चिदंबरम की बातों से सहमत हूं कि रुपए का गिरना ज्यादा खराब नहीं : मनोज लाडवा
नई दिल्ली। डॉलर के मुकाबले रुपये में जारी गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही है। शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया 72.10 के स्तर के बंद हुआ था। वैश्विक स्तर पर रुस के खिलाफ कड़ा रुख, ईरान और सीरिया के बीच तनाव, क्रुड की कीमतों में तेजी को रुपये के कमजोर होने के पीछे वजह माना जा रहा है। वहीं, रुपये में गिरावट को लेकर देश में सियासी घमासान मचा हुआ है। रुपए में गिरावट को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर आरोपों की बरसात कर दी थी। रुपया एक वक्त 72.50 के पार चला गया था जिसको लेकर विपक्षी दल हल्ला मचा रहे हैं और लगातार मोदी सरकार को घेर रहे हैं। तो क्या मोदी सरकार अर्थव्यवस्था का गलत प्रबंधन कर रही है? इस आरोप में कितनी सच्चाई है, और रुपया क्यों गिर रहा है?
वहीं, रुपए में गिरावट को लेकर इंडिया आईएनसी के संस्थापक मनोज लाडवा पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम की बातों से सहमत नजर आते हैं कि रुपए में गिरावट ज्यादा खराब नहीं है।
वैश्विक स्तर पर मुद्राएं हुईं कमजोर
पिछले पांच सालों में अर्जेंटीनी पेसो में 546 फीसदी की गिरावट आई है, तुर्की लीरा 221 फीसदी नीचे है, ब्राजीलियाई रियल 84 फीसदी गिर गया है, दक्षिण अफ़्रीकी रैंड 51 फीसदी गिरा है, मेक्सिकन पेसो 47 फीसदी गिर गया है, इंडोनेशियाई रुपिया 28 प्रतिशत और मलेशियाई रिंगट 27 प्रतिशत तक गिर गया है। इस लिहाज से भारतीय रुपया केवल 16 फीसदी गिरा है जो कि संभाला जा सकता है। केवल चीनी मुद्रा ही 12 फीसदी गिरावट के साथ रुपया से थोड़ी बेहतर स्थिति में दिखाई दे रहा है। इस दौरान मजबूत रहे अमेरिकी डॉलर में भी 18 प्रतिशत की गिरावट आई है।
अक्षय ऊर्जा के स्रोतों पर जोर
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश बना हुआ है। क्रु़ड की कीमत में $ 1 की वृद्धि भारत का आयात बिल 1 बिलियन डॉलर तक बढ़ जाता है। यह मोदी सरकार के अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने के पीछे बड़े कारणों में से एक है। अक्षय ऊर्जा के लिए हाइड्रोकार्बन से अक्षय ऊर्जा की तरफ बढ़ने से न केवल भारत अरबों रुपया बचाएगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वच्छ दुनिया बनाने में हमारी मदद करेगा। भारतीय अखबारों के साथ-साथ ब्लूमबर्ग, रायटर और अन्य जैसे विदेशी एजेंसियों ने कई रिपोर्ट की हैं कि मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना का लक्ष्य 2022 तक सौर, पवन और बायोमास ऊर्जा का उत्पादन 160 GW तक बढ़ाने का है। इस दिशा में हो रहे कार्यों के जरिए भारत में हजारों नौकरियां भी पैदा हो रही हैं।
रुपए के गिरने के पीछे वैश्विक कारण
रुपए में गिरावट के पीछे मुख्यत: तुर्की और रूस की मुद्रा का बड़ा हाथ है। विदेशी कर्ज बढ़ने के कारण तुर्की में आर्थिक संकट पैदा हो गया है। महंगाई चरम पर है और डॉलर की बढ़ती मांग के कारण हालात ऐसे बन गए हैं कि इस वक्त बाजार में कोई निवेश करने की स्थिति में नहीं दिखाई दे रहा है। मॉस्को के खिलाफ अमेरिका और यूरोपीय प्रतिबंधों ने रूबल के साथ-साथ रूसी अर्थव्यवस्था को और भी खराब कर दिया है। इस कारण अंतर्राष्ट्रीय निवेशक, उभरते बाजारों के संक्रमण से डरने लगे हैं।
स्थिरता कायम करने की भारत की कोशिश
रुपये में हाल के दिनों में गिरावट इतनी खराब नहीं दिखाई देती है, वास्तव में सरकार गिरावट को 16 फीसदी तक नियंत्रित करने में कामयाब रही है। जहां तक उभरते बाजारों की बात है, अन्य मुद्राएं काफी अनियंत्रित हो चली हैं। साल 2014 में सत्ता संभालने के बाद मोदी सरकार और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश की खराब अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश की है जो उन्हें विरासत में मिली थी।
चार सालों की कड़ी मेहनत के बाद अब इसका फल मिलता दिखाई दे रहा है और इसी का नतीजा है कि पहले तीमाही (अप्रैल-जून) में विकास दर 8.2 पहुंच गई है। वहीं, विश्व बैंक, IMF और RBI भी वार्षिक विकास वृद्धि दर को करीब 7.4 बता रही हैं, ऐसा लगता है कि ये 8 के आसपास रहेगी। बढ़ती तेल की कीमतों के बावजूद मुद्रास्फीति दर जुलाई में 4.17 फीसदी है। साल के दूसरे छमाही में मुद्रास्फीति की दर 4.8 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है, यह फिर भी आरबीआई के नियंत्रण में रहेगी। वहीं, राजकोषीय और चालू खाता घाटे की बात करें तो चालू खाता घाटा 2.5 फीसदी तक बढ़ने की उम्मीद है अगर वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में कमी अगले कुछ महीनों में नहीं दिखाई देती।
अधिकांश अर्थशास्त्री और विश्लेषकों का मानना है कि एक मजबूत मुद्रा केवल कुछ नेताओं के अहम के लिए अच्छी हो सकती है, लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए हमेशा अच्छी नहीं होती, खासकर किसी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लिए।
तेल के उत्पाद शुल्क करने का विचार क्यों अच्छा नहीं
मध्यम वर्ग पर बोझ को कम करने के लिए पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों पर उत्पाद शुल्क कम करने की लगातार विपक्ष मांग कर रहा है। मनोज लाडवा कहते हैं कि इस मांग के कारण ही भारत को पहले परेशानियों का सामना करना पड़ा है। उनका मानना है कि इस कारण सरकार को अन्य कल्याणकारी योजनाओं को चलाने के लिए धन की कमी का सामना करना पड़ेगा। बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण विदेशी निवेशक अपने हाथ भी खींच सकते हैं और इसका नतीजा ये होगा कि साल 2013 की तरह हालात पैदा हो जाएंगे जो यूपीए की अगुवाई वाली सरकार के अर्थव्यवस्था के गलत प्रबंधन के परिणामस्वरूप पैदा हुए थे। उस वक्त रुपया 55 / डॉलर से 68 / डॉलर तक यानी लगभग 25 प्रतिशत गिर गया था और तब भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का कौशल ही था जिन्होंने इसका निवारण किया था।