स्कूली किताबों में कैसे ख़त्म होगा लड़का-लड़की में भेदभाव
यूनेस्को की एक रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को स्कूल की किताबों में पुरुषों के मुक़ाबले कम दिखाया जाता है.
दिल्ली की रहने वाली सुमन कहती हैं कि उन्होंने अपने बच्चे की तीसरी क्लास की किताब ख़रीदी थी. किताब बहुत सुंदर थी और दिलचस्प थी. लेकिन, उन्होंने देखा कि उस किताब में लड़कियों की तस्वीर ना के बराबर थी. पूरी किताब में खेल-कूद करते, चलते-फिरते सब लड़के ही दिखाए गए थे. उन्हें ये बात बहुत अजीब लगी.
दरअसल, स्कूल की किताबों में लड़कियों को परंपरागत भूमिकाओं में दिखाना या उन्हें कम दिखाना ये मुद्दा लंबे समय से उठाया जा रहा है.
लगभग हर क्लास की किताबों में इस तरह का भेदभाव देखा जा सकता है और ये भेदभाव सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि विश्वस्तर पर भी देखने को मिलता है.
हाल ही में यूनेस्को ने इस संबंध में एक ग्लोबल ऐजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट जारी की है जो कहती है कि दुनियाभर में स्कूल की किताबों में महिलाओं को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है.
यूनेस्को की ग्लोबल ऐजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट का चौथा संस्करण हाल ही में जारी हुआ है. इसके मुताबिक़ किताबों में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं के चित्र कम होते हैं. साथ ही उन्हें कम प्रतिष्ठित पेशों में या निष्क्रिय भूमिकाओं में दिखाया जाता है.
जैसे पुरुष डॉक्टर की भूमिका में दिखाए जाते हैं तो महिलाएं नर्स की. साथ ही महिलाओं को खाना, फ़ैशन या मनोरंजन से जुड़े विषयों में ही दिखाया जाता है. किताबों में महिलाएं स्वैच्छिक कामों में और पुरुष वेतन वाले कामों में दिखाए जाते हैं.
इस रिपोर्ट में अलग-अलग देशों की किताबों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर नज़र डाली गई है. इसकी कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं-
- अफ़ग़ानिस्तान में 1990 में पहली कक्षा की किताबों में महिलाएं लगभग ग़ायब थीं. साल 2001 के बाद महिलाओं को ज़्यादा दिखाया गया लेकिन वो भी मां, अभिभावक, बेटी और बहन की भूमिका में. वो पुरुषों पर पूरी तरह निर्भर दिखाई गईं.
- इसी तरह इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की 95 प्रतिशत किताबों की समीक्षा की गई. इसमें पाया गया कि महिलाओं की सिर्फ़ 37 प्रतिशत तस्वीरें थीं.
- एक मलेशियाई प्राथमिक स्कूल की किताब में सलाह दी गई है कि लड़कियां अगर अपने शील की रक्षा नहीं करतीं तो उन्हें शर्मिंदा होने और बहिष्कार किए जाने का ख़तरा है.
- अमरीका में अर्थशास्त्र की किताबों में महिलाओं के सिर्फ़ 18 प्रतिशत किरदार ही थे. वो भी खाने, फ़ैशन और मनोरंजन से संबंधित थे.
- चिली में चौथी कक्षा की इतिहास की किताब में 10 पुरुषों पर दो महिला किरदार थे. उनके ऐतिहासिक योगदानों को घरेलू कामों से जुड़े रूढ़िवादी विचारों के साथ दर्शाया गया था.
इस रिपोर्ट में 2019 की महाराष्ट्र की उस पहल का भी ज़िक्र किया गया है जिसमें किताबों से जेंडर संबंधी रूढ़ियों को हटाने के लिए किताबों के चित्रों की समीक्षा की गई थी.
समीक्षा के बाद किताबों में महिला और पुरुष दोनों को घर के कामों में हाथ बंटाते दिखाया गया. बच्चों को इन चित्रों पर ध्यान देने और इन पर चर्चा करने के लिए कहा गया.
हालांकि, इसके बाद भी समानता का रास्ता बहुत लंबा है. भारत में भी समय-समय पर इसे लेकर समीक्षा और विश्लेषण होते हैं.
भारत में स्थिति
साल 2016 की राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के डिपार्टमेंट ऑफ़ जेंडर स्टडीज़ ने कुछ राज्यों की बच्चों की किताबों का अध्ययन किया था.
इसमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, मणिपुर और राजस्थान की किताबें शामिल थीं.
इस अध्ययन से जो निष्कर्ष निकला उसके मुताबिक़ लगभग सभी राज्यों की किताबों में पुरुषों को कई तरह के पेशे में दिखाया गया था जबकि महिलाएं गृहणी, नर्स, शिक्षक, डांसर और मेकअप आर्टिस्ट की भूमिकाओं में थीं.
पुरुषों को नेतृत्व और फ़ैसले लेने की भूमिका में रखा गया था. हालांकि, इसमें कुछ सकारात्मक क़दमों का भी ज़िक्र किया गया था.
भारत में पाठ्यक्रम (स्लेबस) में लैंगिक असमानता हमेशा एक मुद्दा रहा है. राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा (एनसीएफ़) 2005 में भी इस पर चर्चा की गई है. जिसके बाद किताबों में बदलाव लाने की कोशिश की गई थी. लेकिन, अब भी ये समस्या ख़त्म होती नहीं दिखती.
चित्र और किरदार गिनना हल नहीं
इसे लेकर शिक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि किताबों में लैंगिक असमानता बड़े स्तर पर है लेकिन उसे दूर करने और मापने का हमारा तरीक़ा बहुत सतही है.
लैंगिक समानता और शिक्षा पर काम करने वाले ग़ैर-सरकारी संस्थान 'निरंतर’ की निदेशक अर्चना द्विवेदी कहती हैं कि “एनसीएफ़ 2005 की कोशिशों के बाद भी असमानता की खाई को पाटा नहीं जा सका है. इसकी वजह है, लैंगिक समानता को संख्यात्मक तरीक़े से मापना. चित्रों और महिला किरदारों का पुरुषों की तुलना में कम होना एक तरह का भेदभाव तो है लेकिन असल समस्या ये नहीं है. अब असमानता को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है.”
वह कहती हैं, “समानता मापने के आसान तरीक़े खोज लिए गए हैं. जैसे कि चित्र गिने जाते हैं कि दस लड़कों की तस्वीरें हैं तो दस लड़कियों की भी होंगी. भूमिकाएं बदल दी जाती हैं. पति चाय बनाते और महिला नौकरी करते दिखाई जाती हैं. ये बहुत सतही तरीक़ा है. लेकिन, कंटेंट और भाषा को लेकर कोई सोच नहीं है.”
अर्चना द्विवेदी इसे एक उदाहरण के ज़रिए भी समझाती हैं. जैसे कि एक किताब में एक महिला की दिनचर्या को दिखाया गया था जिसमें वो औरत सुबह का नाश्ता बनाती है, फिर घर का काम करती है, दिन के दो-तीन घंटे फ्री रहकर टीवी देखती है. अब इसे लिखने वाले समझेंगे कि उन्होंने औरत की दिनचर्या बताकर लैंगिक समानता ला दी है.
वह कहती हैं, “इसे पढ़ने के बाद लगा कि ये कौन-सी औरतें हैं. मतलब पाँच प्रतिशत उच्च मध्यम वर्गीय महिलाएं जिन्हें रोज़ दो-तीन घंटे टीवी देखने का समय मिलता है क्या गांव-क़स्बों के बच्चों की मां की यही ज़िंदगी है? हमने उसे हटाया तो नहीं लेकिन उसमें आख़िर में एक सवाल जोड़ा कि हर बच्चे अपनी मां की दिनचर्या लिखें. इससे वो ख़ुद को हक़ीक़त के ज़्यादा क़रीब महसूस करेगा और अपने घर की महिला की स्थिति को समझेगा.”
“साथ ही ये दिनचर्या इतने असंवेदनशील तरीक़े से दी गई है कि उसे पढ़कर लग रहा है कि उस महिला की क्या मज़ेदार ज़िंदगी है. उसे कोई तनाव और परेशानी है ही नहीं. असल असमानता इस तरह की है, ना कि सिर्फ़ संख्या की.”
निरंतर से जुड़ीं दिप्ती भोजा का कहना है कि जिस तरह दाल में छोंक लगाते हैं तो इस तरह किताबों में जेंडर का छोंक लगा दिया जाता है. लेकिन, जब तक आपको ये बात समझ नहीं आएगी कि जेंडर बहुत सारी अन्य व्यवस्थाओं के साथ गुंथा हुआ है तब तक आप सही तरीक़ा नहीं अपना पाएंगे.
वह कहती हैं, “हर वर्ग की महिला की समस्या एक-सी नहीं है. कुछ महिलाओं के पास संसाधन और मौक़े हैं तो कुछ औरतें अभावों मे जी रही हैं. कुछ महिलाओं के पास ज़्यादा अधिकार हैं तो कुछ के पास बिल्कुल नहीं. इस अंतर को महिला-पुरुष के चित्रों की गिनते करके नहीं समझाया जा सकता. बच्चों को उनकी ज़िंदगी से जुड़ी चीज़ें दिखानी होंगी तभी वो किताब से जुड़ेंगे और इन विषयों पर सोचने को विवश होंगे. जैसे अगर इस दौर में असमानता दिखाई जाए तो हम डिजिटल असमानता को भी शामिल करेंगे.”
बच्चों पर क्या होगा असर?
यूनिसेफ़ के साथ काम करने वाले शेषागिरी बताते हैं, “अगर बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो जेंडर के साथ कम्युनिटी, धर्म और इतिहास को कैसे दिखाया जाता है ये सब आपस में जुड़ा हुआ है. आप अक्सर देखते हैं कि राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे पर स्कूल की किताबों में इतिहास से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाती हैं.”
“इसी तरह जेंडर का मामला भी है. हमारे समाज में पितृसत्तात्मक सोच हावी है जो किताबों में भी दिखाई पड़ती है. भले ही ये किताबें शिक्षित लोग तैयार करते हैं लेकिन वो भी कहीं ना कहीं पुरुषवादी सोच से संचालित होते हैं. ऐसे में महिलाओं को रुढ़िवादी भूमिकाओं में रखा जाता है और उनकी भागीदारी कम होती है.”
वह कहते हैं कि अगर स्कूल की किताबों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होगा तो बच्चे महिलाओं को पारंपरिक, कमज़ोर और निर्भर भूमिकाओं में ही याद रखेंगे और समानता नहीं आ पाएगी.
कैसे हो समाधान?
लेकिन, दशकों से चली आ रही इस समस्या का हल क्या है. इस दिशा में क्या किया जाना चाहिए.
अर्चना द्विवेदी और दीप्ती भोजा का मानना है कि इसके लिए कोई तय उपाय नहीं हैं, बल्कि कई स्तरों पर लगातार काम करना होगा-
- सबसे पहले तो किताबें लिखने वालों का लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर प्रशिक्षण होना चाहिए. इसको लेकर उनका नज़रिया स्पष्ट होना चाहिए.
- कहानी लिखते समय देखना चाहिए कि हम किस तरह की सोच सामने रख रहे हैं. जैसे वैज्ञानिक सीवी. रमन के बारे में पढ़ते हैं तो उनके परिवार और घरेलू कामों का कुछ पता नहीं चलता. लेकिन, मैडम क्यूरी की बात करते हैं तो आपको पता लगेगा कि उनके पति और बच्चे कौन थे. वो कैसे घर के काम के साथ लैब में काम करती थीं. इससे ये दिखता है कि भले ही आप बहुत बड़ी वैज्ञानिक हैं लेकिन बर्तन, कपड़े, बच्चे और खाना आपकी ही ज़िम्मेदारी है. आपने महिला वैज्ञानिक के बारे में बताया लेकिन बताने के तरीक़े में लैंगिक असमानता थी.
- चित्र और महिला किरदारों की संख्या गिनने का तरीक़ा उस समय अपनाया गया होगा जब इस मसले की पहचान की गई. शुरुआती तौर पर ये अच्छा था लेकिन 20 साल बाद भी अगर हम चित्रों पर अटके हुए हैं तो ये ठीक नहीं.
- वहीं, जब जेंडर की बात हो तो सिर्फ़ महिलाओं की ही नहीं बल्कि थर्ड जेंडर की भी बात करें. हमारी किताबों में आज भी ट्रांसजेंडर का ज़िक्र नहीं मिलता. इससे भी हम लैंगिक असमानता को बढ़ा रहे हैं.