कैसे खींची गई थी भोपाल गैस त्रासदी की वो ऐतिहासिक तस्वीर?
गधे की तस्वीर से करियर की शुरुआत करने वाले फोटोग्राफर रघु राय ने भारत की पिछले 50 साल की यात्रा को अपने कैमरे में कैद किया. पढ़िए रेहान फ़ज़ल की विवेचना.
कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गाँधी से शक्तिशाली प्रधानमंत्री आज तक नहीं हुआ. उनके बारे में मज़ाक में कहा जाता था, "अपने मंत्रिमंडल में वो अकेली पुरुष थीं."
1969 में मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय इंदिरा गाँधी के जीवन के एक दिन पर फ़ोटोग्राफ़ी फ़ीचर कर रहे थे. अचानक उन्होंने देखा कि संसद के उनके दफ़्तर में गुजरात के कुछ विधायक चले आए. उन्होंने इंदिरा गाँधी को एक ज्ञापन दिया. वो चश्मा लगाए उसको पढ़ ही रही थीं कि रघु राय ने इंदिरा गाँधी के पीछे से उनके कंधों के ऊपर से तस्वीर ली.
रघु राय याद करते हैं, "मेरा सबसे पहले ध्यान गया उन सबके चेहरे पर आए उत्कंठा और इंतज़ार के भाव पर. ये बताता था कि कितनी शक्तिशाली थीं इंदिरा गांधी. एक भी शख़्स ने इंदिरा गाँधी से एक शब्द भी नहीं कहा कि आप ये कर दीजिए, वो कर दीजिए. वो सिर्फ़ इंतज़ार करते रहे उनके फ़ैसले का."
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गधे की तस्वीर से करियर की शुरुआत
रघु राय उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जिन्होंने भारत की पिछले पचास साल की यात्रा को अपने कैमरे में क़ैद किया है. रघु राय के सफ़र की शुरुआत हुई थी 1965 में जब उन्होंने पहली बार गधे के एक बच्चे की तस्वीर खींची थी.
रघु राय याद करते हैं, "एक बार मैं अपने भाई के दोस्त योग ज्वॉय के साथ दिल्ली से 50 किलोमीटर उनके गाँव दो-तीन दिनों के लिए चला गया. चलते-चलते मेरे भाई ने मुझे आग्फ़ा सुपर सिलीट कैमरा दिया और समझाया कि इसे किस तरह इस्तेमाल किया जाता है. योग अपने गाँव में बच्चों की तस्वीरें ले रहे थे."
उन्होंने आगे कहा, "तभी मुझे एक कोने में गधे का एक बच्चा खड़ा दिखाई दिया. जब मैं उसके पास तस्वीर लेने गया तो वो दौड़ने लगा. वहाँ खेल रहे बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे. मैं भी बच्चों का मनोरंजन करने के लिए गधे के बच्चे के पीछे दौड़ने लगा. छोड़ी देर में गधे का बच्चा थक कर रुक गया. जब मैंने उसकी तस्वीर ली."
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... और शुरू हुई फ़ोटोग्राफ़ी करियर
रघु राय आगे बताते हैं, "जब मैं दिल्ली लौटा तो मेरे भाई ने वो तस्वीर धुलवाई और कहा कि ये बहुत अच्छी तस्वीर है. उन्होंने ये तस्वीर 'द टाइम्स' को भेजी. उस ज़माने में टाइम्स सप्ताहांत पर कुछ इस तरह की असामान्य और मज़ाकिया तस्वीरें अपने आधे पेज पर छापा करता था. उस समय नॉर्मन हॉल 'द टाइम्स' के संपादक हुआ करते थे. उन्होंने मेरी वो तस्वीर अपने अख़बार में मेरी बाई लाइन के साथ छापी. ये मेरे फ़ोटोग्राफ़ी करियर की शुरुआत थी."
1971 में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों की खींची गई तस्वीरों ने रघु राय को विश्व के आला दर्जे के फ़ोटोग्राफ़रों की कतार में ला खड़ा किया. 1971 में जब भारतीय सेना बांग्लादेश में घुसी, तो रघु राय भी उसके साथ-साथ बांग्लादेश में गए.
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जब जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जनरल नियाज़ी का सरेंडर लेने वहाँ पहुंचे तो रघु राय ढाका हवाई अड्डे पर पहले से मौजूद थे. उन्होंने उसी समय दोनों जनरलों की तस्वीरें खींची. रघु राय कहते हैं, "जनरल अरोड़ा की बॉडी लैंग्वेज में एक विजेता की अकड़ थी, जबकि जनरल नियाज़ी के झुके हुए चेहरे से शर्मसारी टपक रही थी."
रघु राय की बेटी ने पिछले दिनों उनके ऊपर एक डॉक्युमेंट्री बनाई है जिसमें उनका खीचा एक चित्र दिखाया गया है कि एक घायल पाकिस्तानी युद्ध बंदी ज़मीन पर गिरा पड़ा है जिसे थके हुए भारतीय सैनिकों ने घेरा हुआ है. रघु राय याद करते हैं, "ये तस्वीर खुलना के आसपास की है जहाँ भारतीय सैनिक एक बुरी तरह से घायल पाकिस्तानी सैनिक को अपने कंधों पर उठाकर इलाज के लिए ले जा रहे हैं क्योंकि वहाँ उस समय कोई जीप या गाड़ी नहीं पहुंच सकती थी. कई किलोमीटर चलने के बाद उन्होंने सुस्ताने के लिए उस पाकिस्तानी सैनिक को थोड़ी देर के लिए ज़मीन पर रखा था. वो पानी वगैरह पी रहे थे तभी मैंने वो तस्वीर खींची थी."
रघु राय की तस्वीरों के मायने
रघु राय के चित्र भारत के विभिन्न रंगों को एक आइने की तरह दिखाते हैं. जिंदल स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी के प्रोफ़ेसर शिव विश्वनाथन कहते हैं कि रघु राय की फ़ोटोग्राफ़ी पश्चिमी संकल्पना निगाह, जिसे जॉन बर्गर 'देखने' का नाम देते हैं, से अलग है.
प्रोफ़ेसर विश्वनाथन की नज़र में रघु राय की फ़ोटोग्राफ़ी एक तरह का दर्शन है, दार्शनिक वाला दर्शन नहीं, बल्कि भगवान को देखने वाला दर्शन. इसकी ख़ास बात ये हैं कि इसमें दृश्य और इनसाइट यानी परख का संगम होता है.
रघु राय की एक और तस्वीर देख कर करीब करीब हँसी ही आ जाती है. इसमें जनरल मानेक शॉ को फ़ील्ड मार्शल के बिल्ले पहनाए जा रहे हैं और राष्ट्रपति गिरी का हाथ गंभीर दिख रहे सैम मानेक शॉ की मूछों के बिल्कुल नज़दीक है और ऐसा लग रहा है मानो गिरी, मानेक शॉ की मूछों को खींच रहे हैं.
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मानेक शॉ की मूछें
रघु राय याद करते हैं, "एक बार जब सैम मानेक शॉ दिल्ली पहुंचे तो हवाई अड्डे पर मैं भी मौजूद था. उनको रिसीव करने एक कैप्टेन आया हुआ था. उसकी भी सैम की तरह बड़ी मूछें थी. सैम ने अपनी बेंत से उसकी मूछों को छूते हुए कहा, 'लॉन्ग मुसटाशेस. नॉट अलाउड.'
उन्होंने कहा, "जब उनको फ़ील्ड मार्शल के बिल्ले पहनाए जा रहे थे तो राष्ट्रपति गिरि का हाथ उनकी मूछों के पास से गुज़रा. तभी मैंने तस्वीर क्लिक की जिसको एकबारगी देखने में लगता है जैसे गिरि सैम की मूछों को पकड़ कर खींच रहे हों."
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रघु राय की सबसे अच्छी तस्वीर!
रघु राय ने शिमला समझौते के समय का भी एक तस्वीर खींची. उस वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो भारत आए थे.
रघु राय कहते हैं, "इंदिरा गाँधी पचास वर्ष की उम्र में भी बहुत आकर्षक महिला हुआ करती थीं. भुट्टो भी बहुत स्टाइलिश शख़्स थे और तीन पीस का डबल ब्रेस्ट का सूट पहनते थे जिसे वो थोड़ी देर बाद बदल दिया करते थे. मैंने इन दोनों की एक तस्वीर खींची."
वो कहते हैं, "इंदिरा गांधी और भुट्टो एक दूसरे के बग़ल में इस अंदाज़ से खड़े हैं कि उस ज़माने में लोग मज़ाक किया करते थे कि कहीं यह मिस्टर और मिसेज़ भुट्टो या मिसेज़ और मिस्टर गाँधी की तस्वीर तो नहीं है."
रघु राय का चावड़ी बाज़ार के चौराहे का एक तस्वीर भी बहुत मशहूर है जिसमें ताँगे हैं, रिक्शे वाले हैं, ठेले हैं. ये तस्वीर दिल्ली की आत्मा को दिखाता है. ऊपरी तौर पर सब कुछ बेतरतीब दिखाई देता है लेकिन शिव विश्वनाथन कहते हैं कि इस बेतरतीबी में भी एक तरतीब है. वो इस रघु राय के सबसे अच्छे चित्रों में से एक मानते हैं.
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1977 में इंदिरा गाँधी की हार को भी रघु राय ने एक सांकेतिक चित्र में कैद किया था जिसमें एक कूड़ा उठाने वाला इंदिरा गाँधी के फटे हुए पोस्टर को उठा रहा है और उसके सामने वाली दीवार पर परिवार नियोजन का नारा लिखा हुआ है जिसकी वजह से इंदिरा गांधी की हार हुई थी.
रघु ने ये तस्वीर चुनाव ख़त्म होने वाले दिन खींची थी.
जब वो ये तस्वीर अपने संपादक कुलदीप नैयर के पास लेकर गए तो उन्होंने कहा कि ये तस्वीर भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का चित्रण करती है. लेकिन मैं इसे छापूँगा नहीं.
राय ने उनसे इसका कारण पूछा. कुलदीप नैयर ने कहा कि अगर इंदिरा गाँधी जीत गईं तो वो मुझे और तुम्हें जेल में डाल देंगी.
रघु ने उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश की कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार रही हैं, लेकिन कुलदीप ने उनकी एक न सुनी.
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भिंडरावाले को 'पाजी' पुकारते थे रघु
रघु ने गुस्से में वो तस्वीर वहीं फाड़ दी. अगले दिन जब चुनाव परिणाम आया तो इंदिरा गांधी हार गईं.
तब कुलदीप को उस तस्वीर की याद आई. उन्होंने रघु राय को ढुंढ़वाया लेकिन वो उस दिन दफ़्तर नहीं आए थे. बहुत मुश्किल से उनके साथ संपर्क हो पाया.
अगले दिन स्टेट्समैन में वो तस्वीर फ़ोटो एडिट के तौर पर छपी.
रघु राय को 1984 के 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के दौरान भी तस्वीरें खींचने का मौका मिला था.
वो जरनैल सिंह भिंडरावाले को बहुत नज़दीक से जानने लगे थे और उन्हें 'पाजी' कह कर पुकारते थे. लेकिन इसकी वजह से एक बार वो मुश्किल में पड़ गए.
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भोपाल गैस कांड की तस्वीर
रघु राय याद करते हैं, "एक दिन मेरे होटल का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया. बाहर भिंडरावाले के दो बंदूकधारी समर्थक खड़े हुए थे. उन्होंने मुझसे कहा कि भिंडरावाले संत हैं. वो आपके पा जी नहीं हैं. रघु ने कहा कि वो मुझसे उम्र में छोटे हैं और अगर उन्हें पा जी कहने से कोई आपत्ति नहीं है तो आपको क्यों बुरा लग रहा है."
रघु कहते हैं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार से एक दिन पहले वो भिंडरावाले से मिले थे. उस समय उनकी आँखें तनाव और ग़ुस्से से लाल हो रही थीं. उनकी आंखों में डर को साफ़ पढ़ा जा सकता था.
लेकिन जिस तस्वीर ने रघु राय को सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि दी वो थी भोपाल गैस कांड के बाद एक दो साल के बच्चे को दफ़नाए जाने की बार-बार याद आने वाली तस्वीर.
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पेंटिंग में हिटलर के डेथ कैंप का ख़ौफ़
रघु कहते हैं, "भोपाल पहुंचते ही सबसे पहले मैं हमीदिया अस्पताल गया जहाँ गैस से पीड़ित लोगों का लाया जा रहा था. सड़कों पर इधर-उधर लोगों और मवेशियों के शव पड़े हुए थे. फिर मैं कब्रिस्तान चला गया जहाँ एक ही गड्ढ़े में तीन-तीन शवों को दफ़नाया जा रहा था. मेरी जब इस बच्चे पर नज़र पड़ी तो उसका सिर्फ़ चेहरा दिखाई दे रहा था. जिस चीज़ ने मुझे हिला कर रख दिया वो थी उसकी स्थिर आँखे जिनमें कोई जान नहीं थी. उसको देखते ही मेरा दिल धक से रह गया कि हे ईश्वर ये क्या हो गया."
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