नीतीश के मनमाने फैसलों को मानने के मूड में नहीं जनता, जीत के लिए नाम नहीं काम भी जरूरी
पटना। बिहार में चुनाव जीतने के लिए अब नीतीश का नाम काफी नहीं। विधानसभा उपचुनाव में जदयू को तीन सीटों पर हार मिली। ये सभी सीटें उसने 2015 के चुनाव में जीती थीं। यहां के विधायकों के सांसद चुने जाने के कारण उपचुनाव हुआ था। इस हार से नीतीश की 'जिताऊ छवि’ धूमिल हुई है। जनता नीतीश कुमार के हर फैसले को आंख मूंद कर मानने के मूड में नहीं है। स्थानीय परिस्थिति और जनता के मूड को समझना जरूरी है। वोटर नाम के साथ काम भी परख रहे हैं। जदयू को केवल नाथनगर में जीत मिली। नीतीश अब हारे को हरिनाम की तरह ये कह रहे हैं कि जब उपचुनाव हारते हैं तो मुख्य चुनाव में बेहतर जीत मिलती है।
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दरौंदा ने कहा, नीतीश की मनमानी नहीं चलेगी
जदयू की सबसे चौंकाने वाली हार सीवान के दरौंदा में हुई है। नीतीश कुमार के लिए यहां का परिणाम सबसे बड़ा झटका है। इस सीट पर न नीतीश का नाम काम आया न उम्मीदवार का बाहुबल। एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जदयू के बाहुबली प्रत्याशी अजय सिंह को करीब 28 हजार वोटों से हरा दिया। ये वही अजय सिंह हैं जिन्होंने अपनी ताकत से मां जगमातो देवी और पत्नी कविता सिंह को विधायक बनाया था। दबंग अजय सिंह का सीवान इलाके में दबदबा है। फिर भी बुरी तरह हारे। इस हार ने नीतीश को समझाया कि उनके हर थोपे हुए फैसले पर जनता मुहर नहीं लगाएगी। नीतीश कुमार ने सीवान के वोटरों का मूड नहीं समझा। सीवान में अनदेखी से भाजपा कार्यकर्ताओं में नाराजगी थी। ये नाराजगी लोकसभा चुनाव के समय से चल रही थी जब भाजपा के सीटिंग सांसद ओमप्रकाश यादव का टिकट काट कर जदयू की कविता सिंह को दे दिया गया था। अजय सिंह के जोर लगाने पर नीतीश ने यह सीट भाजपा से मांग ली। अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह सांसद बन तो गयी लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं को अपनी सीट छीने जाने का मलाल कम न हुआ।
जनता के मूड को नहीं समझे नीतीश
कविता सिंह सांसद बनने के बाद नीतीश ने जब अजय सिंह को दरौंदा से टिकट दे दिया तो भाजपा समर्थक उबल पड़े। नीतीश कुमार ने 2011 में अजय सिंह को आपराधिक छवि के कारण टिकट देने से मना कर दिया था। लेकिन 2019 में उन्होंने अजय सिंह को टिकट दे दिया। पत्नी सांसद और पति विधायक बनने की लाइन में। नीतीश के इस मनमाने फैसले का विरोध शुरू हो गया। भाजपा के कार्यकर्ता कहने लगे कि नीतीश कब तक उनका हक मारेंगे। क्षेत्र की जनता का मूड देख कर भाजपा नेता कर्णजीत सिंह उर्फ व्यास सिंह ने पार्टी से टिकट मांगा। भाजपा ने नीतीश की खातिर व्यास सिंह को टिकट नहीं दिया। व्य़ास सिंह ने निर्दलीय तालठोक दी। जनता ने नीतीश और अजय सिंह को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था। व्यास सिंह की दरौंदा में अच्छी पकड़ है। जातीय समीकरण के हिसाब से भी वे फिट थे। अजय सिंह की तरह वे भी राजपूत समुदाय से हैं। सारी परिस्थितियां व्यास सिंह के पक्ष में हो गयीं। फिर तो उनकी झोली वोटों से भर गयी और वे करीब 28 हजार वोटों से जीत गये।
बेलहर
बेलहर उपचुनाव में भी वोटरों ने नीतीश के वंशवादी फैसले को नकार दिया। बेलहर के जदयू विधायक गिरिधारी यादव बांका से सांसद चुने गये तो नीतीश ने गिरिधारी के भाई लालधारी को टिकट दे दिया। स्थानीय कार्यकर्ताओं की उपेक्षा नीतीश को महंगी पड़ गयी। जनता ने राजद के पक्ष में मतदान किया। गिरिधारी को सांसद बनाने वाले यादव वोटरों ने इस बार राजद का समर्थन किया। राजद उम्मीदवार रामदेव यादव ने करीब 19 हजार मतों से ये चुनाव जीत लिया। राजद को करीब 76 हजार वोट मिले। यानी उसे परम्परागत वोटों के अलवा अन्य का भी समर्थन मिला। नीतीश कुमार का समीकरण यहां भी फेल हो गया।
सिमरी बख्तियारपुर
2015 में सिमरी बख्तियारपुर से जदयू के दिनेश चन्द्र यादव विधायक चुने गये थे। उनके सांसद बनने के बाद जब उपचुनाव हुआ तो राजद के जफर आलम ने जदयू के अरुण कुमार यादव को हरा दिया। इस हार से नीतीश की वह धारणा भी खंडित हुई कि अब बिहार के मुसलमान उनके साथ आ गये हैं। अतिपिछड़े वोटरों ने भी नीतीश का पूरे मन से साथ नहीं दिया जिसकी उम्मीद पर वे 2020 का प्लान तैयार कर रहे हैं। राजद के जफर आलम ने यहां से चुनाव जीत कर ये बताया कि अभी ‘माय' समीकरण पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। राजद ने यह सीट तब जीती जब यहां से महागठबंधन के ही मुकेश सहनी की वीआइपी ने भी चुनाव लड़ा था।
भाजपा से दरार का असर
‘ब्रांड नीतीश' की चमक कम हुई है। भाजपा से दोस्ती और लड़ाई के रिश्ते पर भी गौर करना होगा। अगर जदयू इस पर मंथन नहीं करता है तो आगे और नुकसान की आशंका है। नीतीश भले कहें कि उपचुनाव में हार से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला लेकिन हालात के बदलते देर नहीं लगती। जिस राजद को अभी कमजोर आंका जा रहा था उसने कमाल कर दिया। खुद को चुनावी चेहरा मानने वाले नीतीश अगर हारे हैं तो उसकी कुछ न कुछ वजह जरूर है। भाजपा से बनते बिगड़ते रिश्तों की वजह से भी नीतीश को नुकसान हुआ है। भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पूरे मन से जदयू का साथ नहीं दिया। टकराव की वजह से जदयू और भाजपा एक दूसरे को वोट ट्रांसफर करने क्षमता खो रहे हैं। दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में एक खाई बनी हुई है। उनमें विश्वास की कमी है। जदयू तीन सीटों पर हारा तो भाजपा किशनगंज में अधिक वोट लाकर भी शिकस्त खा बैठी। उपचुनाव ने दोनों दलों को भविष्य के लिए कई सबक दिये हैं।