चीन से लड़ाई के बाद नेहरू को विपक्ष और कांग्रेसियों ने कैसे घेरा
1962 में भारत-चीन युद्ध से पहले और बाद में भी जवाहरलाल नेहरू न सिर्फ़ विपक्षी दलों बल्कि ख़ुद कांग्रेस के निशाने पर थे.
जैसे ही पता चला कि चीन ने भारत के इलाक़े में घुसपैठ कर ली है प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से लेकर स्वतंत्र पार्टी, लोहिया के समाजवादियों और जनसंघ सभी ने मिलकर नेहरू पर ऐसे हमले किए जो उन पर पहले कभी नहीं हुए थे.
इन सबका नेतृत्व और कोई नहीं जनसंघ के अपेक्षाकृत युवा नेता अटल बिहारी कर रहे थे.
12 सितंबर, 1959 को उन्होंने लोकसभा में एक प्रस्ताव पेश कर माँग की कि चीन से एक निश्चित तारीख़ तक भारत की ज़मीन छोड़ने के लिए कहा जाए और चीन को ये साफ़ कर दिया जाए कि उसके भारतीय क्षेत्र से हटने से पहले उससे कोई बात नहीं की जा सकती.
जनवरी, 1960 में पार्टी के नागपुर में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में माँग की गई कि भारत तिब्बत की आज़ादी को मान्यता दे, संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश के लिए अपने समर्थन को वापस ले, भारत में चीन समर्थक तत्वों पर कड़ी नज़र रखी जाए और भारत की सैनिक क्षमता में बढ़ोत्तरी की जाए.
अगस्त, 1960 में हैदराबाद में हुए भारतीय जनसंघ की राष्ट्रीय परिषद में पार्टी के अध्यक्ष पीताँबर दास ने माँग की कि चीनियों को भारत की भूमि से खदेड़ने के लिए सैनिक कार्रवाई की जाए.
अप्रैल 1960 में जब चीन के प्रधानमंत्री चऊ एनलाई भारत आए तो जनसंघ ने भारत के प्रति चीन की 'दुष्ट नीति' के ख़िलाफ़ एक और ज्ञापन दिया.
क्रेग बेक्सटर अपनी किताब 'दि जनसंघ' में लिखते हैं कि 'जनसंघ नेहरू-चाऊ एन लाई शिखर वार्ता के बिल्कुल ख़िलाफ़ था और उसकी शुरू से माँग थी कि चीन को कोई रियायत नहीं दी जाए.'
चऊ एनलाई के भारत पहुंचने से दो दिन पहले कई हज़ार जनसंघ के कार्यकर्ता तख़्तियाँ हिलाते हुए नेहरू के निवास स्थान तक पहुंच गए. इन तख़्तियों पर लिखा हुआ था, 'चीनियों भारत की भूमि छोड़ो', 'चीनी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.'
नेहरू पर चारों ओर से हमला
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नाथ पाई ने लोकसभा में प्रधानमंत्री नेहरू से सवाल पूछा, "अगर हमारी ज़मीन पर चीन द्वारा ठिकाना बना लेने से युद्ध शुरू नहीं हो सका तो हम ये चिंता क्यों करें कि हमारे द्वारा उन ठिकानों को नष्ट किए जाने के बाद युद्ध शुरू हो सकता है?"
जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय 24 सिंतबर, 1962 तक ये माँग कर रहे थे कि सरकार चीन को एक अल्टीमेटम दे.
उस समय के मशहूर टीकाकार फ़्रैंक मोरेस ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "जनसंघ अध्यक्ष का ये माँग करना राष्ट्रीय हित को समझे बग़ैर एक ग़ैर-ज़िम्मेदाराना काम है. ये सिर्फ़ राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए किया गया है."
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विपक्ष के तीखे तेवर
भारत की आज़ादी के समय से ही आरएसएस तिब्बत, नेपाल और भूटान में चीन के विस्तारवाद की आलोचना करता आया है.
जब 1959 में कश्मीर के अक्साई चिन इलाक़े में चीन द्वारा सड़क बनाने की ख़बर सार्वजनिक हुई तो आरएसएस के फ़ैसला लेने वाले सबसे बड़े मंच अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने एक प्रस्ताव पारित कर चीन के आक्रामक होने का ठीकरा सरकार द्वारा पिछले दस सालों से चीन के तुष्टिकरण किए जाने पर फोड़ा.
दिलचस्प बात ये थी कि उस समय लोकसभा के सभी अच्छे वक्ता विपक्ष में थे. इनमें से एक थे आचार्य कृपलानी जो कि एक समय कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे. इस समय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे.
विपक्ष की अगली सीट पर बैठे खिचड़ी लंबे बालों वाले कृपलानी जब कृष्ण मेनन को अपना निशाना बनाते थे तो सारे साँसदों और दर्शक दीर्घा में बैठे पत्रकारों की निगाहें उनके ऊपर होती थीं.
उस समय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एक और सदस्य अशोक मेहता, स्वतंत्र पार्टी के एनजी रंगा और मीनू मसानी भी चीन के मुद्दे पर सरकार को घेरने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे. ये भी एक संयोग था कि ये सभी नेता एक ज़माने में कांग्रेस पार्टी के सदस्य रह चुके थे.
आरएसएस ने की चीन से संबंध तोड़ लेने की वकालत
अक्तूबर, 1962 में चीन के आक्रमण के बाद आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने एक वक्तव्य जारी कर कहा कि 'जब तक हम अपनी ज़मीन चीन से छुड़ा नहीं लेते, उसके साथ बातचीत करने का कोई तुक नहीं है.'
इस वक्तव्य में ये भी कहा गया कि 'भारतीय ज़मीन को दोबारा पाने के अलावा चीन के विस्तारवाद को रोकने के और भारत की सीमाओं की सुरक्षा के लिए तिब्बत की आज़ादी भी ज़रूरी है.'
अगले साल आरएसएस की एक और इकाई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने कोलंबो सम्मेलन के भारत और चीन के बीच मध्यस्तता के प्रस्ताव को ये कह कर ख़ारिज कर दिया कि हमें कम्युनिस्ट चीन के साथ अपने कूटनीतिक संबंध तोड़ लेने चाहिए और दलाई लामा का समर्थन कर तिब्बत के स्वतंत्रता आँदोलन की मदद करनी चाहिए.
आरएसएस के इन कट्टर प्रस्तावों को नेहरू ने तो नहीं माना लेकिन युद्ध के बाद पैदा हुए देशभक्ति के माहौल से आरएसएस को बहुत राजनीतिक फ़ायदा हुआ. इसका असर इस हद तक हुआ कि नेहरू ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में उस आरएसएस के दल को भाग लेने की अनुमति दे दी, जिसका वो तब तक हर अवसर पर विरोध करते आए थे.
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चीन को लेकर कांग्रेस में बग़ावत
नेहरू की चीन नीति उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस को ही रास नहीं आ रही थी. एक बार जब नेहरू ने अक्साई चिन के चीन के नियंत्रण में चले जाने का यह कहकर बचाव किया कि वहाँ तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता है तो कांग्रेस के ही वरिष्ठ सदस्य महावीर त्यागी ने अपनी टोपी उतार कर अपने गंजे सिर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि यहाँ भी कुछ नहीं उगता. क्या इसे भी किसी को दे दिया जाना चाहिए?
जैसे-जैसे भारत-चीन की लड़ाई बढ़ती गई रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को इसके विलेन के रूप में देखा जाने लगा.
जब टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक संवाददाता ने कृष्ण मेनन से सवाल पूछा, "आपकी नज़र में बढ़ते हुए चीनियों को कहाँ पर रोका जा सकता है?"
मेनन का जवाब था, "जिस तरह से वो बढ़ रहे हैं इसकी कोई सीमा नहीं दिखाई देती कि वो कहाँ तक जाएंगे."
इस बीच नेहरू प्रेस से दूर-दूर ही रहे. इस दौरान संसद भी नहीं चल रही थी. उन्हीं दिनों दो साँसदों नाथ पाई और फ़्रैंक एंथनी ने नेहरू से मुलाक़ात की.
उन्होंने बताया कि नेहरू चीनी हमले को इस हद तक 'डाउनप्ले कर' रहे थे कि उन्होंने कहा कि चीन से राजनीतिक संबंध तोड़ने की ज़रूरत नहीं है.
विपक्ष नेहरू की भूमिका से ख़ुश नहीं था लेकिन उसने नेहरू को सीधे निशाना न बनाने के बजाए उनके सबसे क़रीबी कृष्ण मेनन पर निशाना साधा.
नेहरू के समर्थन के बावजूद कृष्ण मेनन के खिलाफ़ माहौल
23 अक्तूबर 1962 को क़रीब 30 काँग्रेस साँसदों की बैठक हुई. उनकी शिकायत ये नहीं थी कि सरकार ने संसद और देश को गुमराह किया है बल्कि ये थी कि कृष्ण मेनन ने नेहरू, संसद और देश को गुमराह किया है.
उनका आरोप था कि मेनन ने संसद को बार-बार बताया कि चीनियों का बढ़ना रोकने के लिए लद्दाख में परिस्थितियाँ माकूल नहीं हैं.
नेफ़ा में सेना के हालात के बारे में पूरे देश में ग़लत सूचना फैलाई गई और इसके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ मेनन ज़िम्मेदार थे.
वो मेनन के ख़िलाफ़ अपनी शिकायतें लेकर नेहरू के पास गए. उन्होंने उन्हें पहले ये कहकर ख़ारिज करने की कोशिश की कि ये पोस्टमार्टम का समय नहीं है.
कांग्रेस सदस्यों के इस हमले में आचार्य कृपलानी और विपक्ष के दूसरे नेता भी शामिल हो गए. उन्होंने माँग की कि नेहरू ख़ुद रक्षा मंत्रालय सँभाल लें.
जैसे-जैसे काँग्रेस के और साँसद दिल्ली पहुंचते गए, मेनन के ख़िलाफ़ माहौल बनता चला गया. उस समय के मुख्यमंत्रियों ने भी (जिनमें सभी काँग्रेसी थे) मेनन के ख़िलाफ़ हवा बना दी. एक दो दिन बाद राष्ट्रपति राधाकृष्णन भी मेनन को हटाने के अभियान में शामिल हो गए.
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मेनन का इस्तीफ़ा
31 अक्तूबर को ये घोषणा हुई कि नेहरू ख़ुद रक्षा मंत्रालय सँभालने जा रहे हैं लेकिन कृष्ण मेनन की तब भी मंत्रिमंडल से छुट्टी नहीं की गई.
उनके लिए रक्षा उत्पादन मंत्री का नया पद बनाया गया और वो मंत्रिमंडल के सदस्य बने रहे.
भारत चीन युद्ध पर मशहूर किताब लिखने वाले नेविल मेक्सवेल अपनी किताब 'इंडियाज़ चाइना वार' में लिखते हैं, "ये मान लेने के बावजूद कि मेनन को रक्षा मंत्रालय से हटना चाहिए, नेहरू ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में उन्हें बरकरार रख मेनन के आलोचकों को जो कि उनके भी आलोचक थे, नाराज़ कर दिया और मेनन को हटाने से उन्हें जो राजनीतिक 'ब्रीदर' या आराम मिल सकता था उससे वो महरूम रह गए."
कुछ दिनों बाद कृष्ण मेनन द्वारा की एक टिप्पणी से कि 'कुछ भी नहीं बदला है', ये संदेह एक तरह से सच साबित हो गया कि नेहरू ने मेनन से पिंड छुड़ाने की बात को कोई ख़ास तरजीह नहीं दी है.
द हिंदू अख़बार ने अपने 2 नवंबर, 1961 के अंक में साफ़-साफ़ लिखा कि 'रक्षा मंत्रालय के कामकाज में कोई परिवर्तन नज़र में नहीं आया है.'
नेहरू के दबदबे का अंत
7 नवंबर को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में नेहरू ने एक बार फिर मेनन को बचाने की कोशिश की.
नेहरू ने कहा, मेनन के ख़िलाफ़ शिकायत को वास्तव में पूरी सरकार के ख़िलाफ़ शिकायत के तौर पर देखा जाना चाहिए. अगर आप उनका इस्तीफ़ा ही चाहते हैं तो मेरा इस्तीफ़ा भी माँगिए.
इस बैठक में मौजूद लोगों का कहना है कि कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने जो नेहरू से कहा उसका निचोड़ ये था कि 'अगर आपको मेनन की नीतियों में इतना ही विश्वास है तो हमें आपके बग़ैर रहने के बारे में सोचना होगा.'
अगले ही दिन मंत्रिमंडल से कृष्ण मेनन के इस्तीफ़े का ऐलान कर दिया गया. कांग्रेस पार्टी के इतिहास में ये पहली बार हुआ जब उसने नेहरू की इच्छा का सम्मान नहीं किया.
नेहरू के खुद के बचे रहने के लिए कृष्ण मेनन का मंत्रिमंडल से जाना ज़रूरी हो गया. इसके साथ ही भारतीय राजनीति पर लंबे समय से आ रहे नेहरू के प्रभुत्व के अंत की शुरुआत भी हो गई और नेहरू इस सदमे से कभी उबर नहीं पाए.