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मोदी सरकार को किसान आंदोलन से कितना राजनीतिक और आर्थिक नुक़सान?

किसान आंदोलन में रेल रोको, चक्का जाम और टोल प्लाज़ा पर धरने की वजह से केंद्र सरकार को काफ़ी आर्थिक नुक़सान हुआ है. लेकिन अब बात राजनीतिक नुक़सान तक पहुँच गई है.

By सरोज सिंह
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मोदी सरकार को किसान आंदोलन से कितना राजनीतिक-आर्थिक नुक़सान?

किसान आंदोलन की वजह से केंद्र की बीजेपी सरकार की माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखने लगी है. इसका एक इशारा मंगलवार को मिला, जब पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 'जाटलैंड' कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के नेताओं के साथ इस बारे में चर्चा की.

बैठक के बाद इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक बयान तो सामने नहीं आया, लेकिन मीडिया रिपोर्ट् के मुताबिक़ बीजेपी का ख़ुद का आकलन है कि 40 लोकसभा सीटों पर किसान आंदोलन असर डाल सकता है. इसलिए बीजेपी अध्यक्ष ने नेताओं से अपने-अपने इलाक़े में नए कृषि क़ानूनों पर जनता के बीच जा कर जागरूकता अभियान तेज़ करने के लिए कहा है.

स्पष्ट है कि बीजेपी किसान आंदोलन से चिंतित है, फिर भी क़ानून को लागू करने लिए अटल निश्चय किए बैठी है.

इस क़ानून को लागू करने के लिए मोदी सरकार को एक बड़ी क़ीमत चुकानी भी पड़ रही है. राजनीतिक क़ीमत का एक अंदाज़ा तो सरकार ने ख़ुद लगा लिया है, लेकिन उनके इस फ़ैसले का तात्कालिक आर्थिक नुक़सान भी देखने को मिल रहा है.

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एफ़सीआई की रिकॉर्ड ख़रीद और ख़ाली होता सरकारी खज़ाना

नए कृषि क़ानून की एक आर्थिक क़ीमत केंद्र सरकार एमएसपी पर भारी ख़रीद से चुका रही है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) था, है और रहेगा - ये बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कई बार दोहरा चुके हैं. बावजूद इसके किसान सरकार के इस आश्वसन पर भरोसा करने को राज़ी नहीं है.

मोदी सरकार को किसान आंदोलन से कितना राजनीतिक-आर्थिक नुक़सान?

धरने पर बैठे किसानों के अंदर इसी भरोसे को पुख़्ता करने के लिए फूड कॉरपोरेशन आफ़ इंडिया (एफ़सीआई) ने इस साल गेहूं चावल की रिकॉर्ड ख़रीद की है. सरकारी एजेंसी एफसीआई ने पिछले साल के मुक़ाबले तक़रीबन 50 लाख मिट्रिक टन गेहूं ज़्यादा ख़रीदा है. (ऊपर चार्ट में देखें )

गेहूं की फसल भी इस बार बंपर होने की उम्मीद है, जिसकी ख़रीद मार्च के अंत से शुरू हो जाएगी. उम्मीद जताई जा रही है कि इस साल गेहूं की पैदावार बम्पर हुई है, क्योंकि बारिश भी ठीक रही है और सूखा भी नहीं पड़ा है. इसलिए सरकारी ख़रीद आने वाले दिनों में भी ज़्यादा ही होगी. ख़ास तौर पर पंजाब में.

चावल की बात करें, तो पिछले साल के मुक़ाबले इस बार लगभग 85 लाख टन ख़रीद कम हुई है, लेकिन अभी सीज़न ख़त्म होने में सवा महीना बचा है. कई इलाक़ों में अभी ख़रीद होती है.

उम्मीद जताई जा रही है कि ये भी पिछले साल के मुक़ाबले ज़्यादा ही रहेगा. ग़ौर करने वाली बात ये भी है कि पंजाब से चावल की सरकारी ख़रीद पिछले साल के मुक़ाबले 27 लाख मिट्रिक टन ज़्यादा हुई है. एफ़सीआई ने पिछले साल पंजाब से 108 लाख मिट्रिक टन चावल ख़रीदा था, लेकिन इस बार 135 लाख मिट्रिक टन चावल ख़रीदा है. (नीचे चार्ट में देखें)

आलोक सिन्हा 2006 से 2008 तक फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन रहे हैं.

मोदी सरकार को किसान आंदोलन से कितना राजनीतिक-आर्थिक नुक़सान?

बीबीसी को उन्होंने बताया कि एफ़सीआई को एमएसपी के ऊपर मंडी से गेंहू/चावल ख़रीदने के लिए 14 फ़ीसदी प्रोक्युरमेंट कॉस्ट (मंडी टैक्स, आढ़ती टैक्स, रूरल डेवलपमेंट सेस, पैकेजिंग, लेबर, स्टोरेज देना पड़ता है) फिर 12 फ़ीसदी उसे वितरित करने में ख़र्च करना पड़ता है (लेबर, लोडिंग-अनलोडिंग) और 8 फ़ीसदी होल्डिंग कॉस्ट (रखने का ख़र्च) लगता है. यानी एफ़सीआई एमएसपी के ऊपर गेंहू ख़रीदने पर 34 फ़ीसदी और अधिक ख़र्च करती है. उसमें 8 फीसदी ख़राब पैदावार भी ख़रीदा जा सकता है. मतलब, अगर गेंहू की एमएसपी 1800 रुपए प्रति क्विंटल है, तो एफ़सीआई को लगभग 2800 रुपए प्रति क्विंटल ख़र्च करना पड़ता है.

वे आगे कहते हैं, "फ़िलहाल केंद्र सरकार के पास 800 लाख मिट्रिक टन गेहूं-चावल का स्टॉक है. एक अप्रैल से गेहूं ख़रीद का सीज़न शुरू हो जाएगा. पंजाब में ये थोड़ा पहले मार्च के अंत से ही शुरू हो जाता है. जुलाई आते-आते सरकार के स्टॉक में 400 लाख मिट्रिक टन का और इज़ाफा हो जाएगा. यानी सरकार के पास तक़रीबन 1200 लाख मिट्रिक टन का गेंहू-चावल का स्टॉक होगा.

आम तौर पर सरकार हर महीने औसतन 30 लाख मिट्रिक टन ही इसमें से ख़र्च करती है. तो भी जुलाई तक उनके पास तक़रीबन 1100 लाख मिट्रिक टन का चावल गेहूं बच जाएगा. जबकि बफ़र स्टॉक केवल 150 लाख मिट्रिक टन ही रहना चाहिए."

कुल मिला कर देखें, तो सरकार इन नए कृषि क़ानून को लागू करने के लिए एक तो ज़्यादा ख़रीद रही है और दूसरी तरफ़ दाम भी ज़्यादा दे रही है. यानी दोगुना नुक़सान झेल रही है.

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ये तो हुई बात एफ़सीआई के नुक़सान की.

इसके अलावा अलग-अलग मंत्रालयों को भी कई तरह का नुक़सान झेलना पड़ रहा है. रेलवे, सड़क परिवहन और सूचना प्रसारण मंत्रालय इनमें शामिल हैं.

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रेलवे का नुक़सान

संयुक्त किसान मोर्चा ने 18 फ़रवरी को चार घंटे के लिए रेल रोको कार्यक्रम का एलान किया है.

जाहिर है सफ़र के दौरान दिक़्क़तों का सामना ना करना पड़े, इसलिए कई लोग 18 फरवरी को ट्रेन से सफ़र करने के अपने पहले के प्रोग्राम को कैंसल कर चुकें होंगे. इसका असर माल ढुलाई पर भी पड़ेगा.

दिल्ली बॉर्डर पर किसान आंदोलन शुरू होने से पहले दो महीने तक पंजाब में चला. इस दौरान किसानों ने कई (तक़रीबन 30 से ज़्यादा) रेलवे स्टेशनों के बाहर धरना दिया तो कई जगह पटरियों पर धरना दिया.

इस दौरान रेल यातायात पंजाब में बाधित रहा और मालगाड़ियाँ भी प्रभावित रही. नवंबर के अंत तक के अनुमान के मुताबिक़ भारतीय रेल को तकरीबन 2400 करोड़ का नुक़सान हुआ था.

टोल प्लाज़ा शुल्क

केंद्र सरकार में सड़क परिवहन मंत्री ने बजट सत्र के दौरान लोकसभा को बताया कि किसान आंदोलन की वजह से कई टोल प्लाज़ पर शुल्क जमा नहीं हो पा रहा है. इससे रोज़ाना 1.8 करोड़ रुपए का नुक़सान हो रहा है.

ग़ौरतलब है कि दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर पिछले 82 दिन से किसानों का धरना प्रदर्शन चल रहा है. तकरीबन 150 करोड़ का नुक़सान तो सिर्फ़ टोल प्लाज़ा से हो चुका है. अगर आंदोलन लंबा चला, तो इस नुक़सान में इजाफ़ा होता जाएगा.

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पब्लिसिटी पर ख़र्च

मोदी सरकार इन क़ानूनों को बार-बार किसानों के हित में बता रही है और कह रही है कि किसानों के बीच भ्रम फैलाया जा रहा है. इसलिए सरकार, किसानों के भ्रम को दूर करने के लिए भी कई क़दम उठा रही है.

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में बताया कि नए कृषि क़ानून के प्रचार पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने तक़रीबन 7 करोड़ 25 लाख रुपए ख़र्च किए है. इस पैसे से हिंदी, अंग्रेज़ी और अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में नए कृषि क़ानूनो पर पब्लिसिटी अभियान चलाया गया.

इसके अलावा कृषि मंत्रालय के किसान वेलफ़ेयर विभाग ने भी 67 लाख रुपए तीन प्रमोशनल वीडियो और दो एडुकेशनल वीडियो बनाने में ख़र्च किए हैं. यानी लगभग 8 करोड़ रुपए नए कृषि क़ानून के प्रचार प्रसार में केंद्र सरकार ख़र्च कर चुकी है.

पब्लिसिटी पर करोड़ों ख़र्च के बाद भी सरकार और किसानों में बात बनती नज़र नहीं आ रही.

इसलिए बात अब राजनीतिक नुक़सान की तरफ़ बढ़ती दिख रही है. किसी भी पार्टी के लिए राजनीतिक नुक़सान आर्थिक नुक़सान से ज़्यादा बड़ा होता है और इसलिए बीजेपी अपनी रणनीति बनाने में जुट गई है.

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राजनीतिक नुक़सान

इस साल पश्चिम बंगाल, असम सहित पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं.

इसके अलावा 2022 में पंजाब और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. बीजेपी नहीं चाहती है कि किसान आंदोलन की वजह से इन राज्यों में उसे कोई नुक़सान हो.

ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश उनके लिए महत्वपूर्ण है.

बीजेपी को लंबे असरे से कवर करने वाली आउटलुक मैग़ज़ीन की राजनीतिक संपादक भावना विज अरोड़ा कहती हैं कि किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब को लेकर सबसे ज़्यादा चिंतित है. इसके पीछे वो कारण भी बताती हैं.

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उनके मुताबिक, "उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 90 सीटें 19 ज़िलों में फैली हैं, जो जाट बेल्ट कहलाती हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तक़रीबन 17 फ़ीसदी जाट रहते हैं, जिनका असर कम से कम 40-50 सीटों पर है.

उसी तरह से हरियाणा की बात करें, तो 90 में से 43 विधानसभा सीटों पर जाट वोट असर डालते हैं. इन सीटों पर जाट वोटरों की संख्या 30 से 60 फ़ीसदी है. ये आठ ज़िलों में फैले हैं.

राजस्थान में जाट कुल आबादी के 9 फीसदी हैं, जो 40 से लेकर 200 सीटों के वोट को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं."

उत्तर प्रदेश में अभी बीजेपी की सरकार है. कहते हैं केंद्र का रास्ता उत्तर प्रदेश से हो कर जाता है. इसलिए वो उस राज्य को खो नहीं सकती. हरियाणा में भले ही बीजेपी ने नॉन-जाट पॉलिटिक्स की हो, लेकिन उनको वोट जाटों के भी चाहिए.

राजस्थान में इस बार भले ही वो सत्ता से दूर हों, लेकिन वहाँ एक बार बीजेपी और कांग्रेस का फ़ॉर्मूला हमेशा से चला है. बिना जाटों के समर्थन के सत्ता में वापसी राजस्थान में मुश्किल खड़ी कर सकती है.

पंजाब के लिए भावना कहती हैं कि भले ही बीजेपी के पास वहाँ खोने के लिए कुछ ना हो. लेकिन उसकी चिंता 2022 में आने वाले विधानसभा चुनाव की है.

पंजाब निकाय चुनावों के नतीज़ों में कांग्रेस को मिली बढ़त से भले ही बीजेपी उतनी हताशा ना हुई हो, लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अकाली दल उनके साथ नहीं होगा. पाकिस्तान की सीमा से लगे होने के कारण उस राज्य की अनदेखी बीजेपी नहीं कर सकती.

संयुक्त किसान मोर्चा के पश्चिम बंगाल में महापंचायतें करने की घोषणा ने बीजेपी की मुश्किलें पश्चिम बंगाल में और बढ़ा दी है.

यही वजह है कि मोदी सरकार को अब तक आंदोलन से हुए नुक़सान की भरपाई करने के लिए बैठक बुलानी पड़ी और पहले से रणनीति बनने की बात शुरू हो गई है.

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English summary
How much political and economic damage to Modi government from farmers movement?
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