आपके डेटा से चुनाव जीतने के दावे में कितना है दम
कोई ऐप अपने डेटा को विश्लेषण के लिए किसी बाहरी कंपनी को भेजे तो इसमें कुछ भी ग़ैर क़ानूनी नहीं है.
तक़रीबन सारे ऐप्स अपने यूज़र्स के डेटा का विश्लेषण करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लोगों की पसंद-नापसंद के हिसाब से कॉन्टेंट, विज्ञापन दिखाने और प्रॉडक्ट फ़ीचर बनाने में मदद मिलती है.
कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों का आरोप है
कोई ऐप अपने डेटा को विश्लेषण के लिए किसी बाहरी कंपनी को भेजे तो इसमें कुछ भी ग़ैर क़ानूनी नहीं है.
तक़रीबन सारे ऐप्स अपने यूज़र्स के डेटा का विश्लेषण करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लोगों की पसंद-नापसंद के हिसाब से कॉन्टेंट, विज्ञापन दिखाने और प्रॉडक्ट फ़ीचर बनाने में मदद मिलती है.
कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों का आरोप है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आधिकारिक ऐप NaMo से भी डेटा लीक हो रहा है.
लेकिन बीजेपी ने इन आरोपों को खारिज़ किया है. पिछले दिनों बीबीसी के साथ बातचीत में पार्टी के प्रवक्ता नलिन कोहली ने कहा कि नमो ऐप पूरी तरह सुरक्षित है.
बीजेपी के आईटी सेल के हेड ने भी थर्ड पार्टी के साथ डेटा शेयर करने को ख़ारिज़ किया था.
इन सभी चर्चाओंके बीच ये सवाल भी तेज़ी से उठे हैं कि क्या कोई पार्टी सोशल मीडिया से मिली जानकारी के आधार पर चुनाव में हेरफेर कर सकती है?
मीडियानामा के संपादक निखिल पाहवा को लगता है कि ऐसा बिल्कुल हो सकता है.
क्या डेटा चुनाव जिता सकता है?
निखिल बताते हैं, "2016 के अमरीकी चुनाव के दौरान ऐसी ख़बरें आईं कि कुछ अफ़्रीकी-अमरीकी लोगों को एक फ़र्ज़ी साइट का लिंक भेजकर कहा गया कि उन्हें वोट देने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है, वो उस साइट के ज़रिए घर बैठे वोटिंग कर सकते हैं. ज़ाहिर है जिन वोटर्स ने वहां वोट डाले उनके वोट ख़राब हो गए."
इसी के साथ निखिल ये भी स्पष्ट कर देते हैं कि, "अब तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है जिससे पता लगे कि बीजेपी ने NaMo के डेटा का ग़लत इस्तेमाल किया हो, लेकिन कैम्ब्रिज एनालिटिका के बाद डेटा की सुरक्षा पर चिंता होना लाज़िमी है."
कैम्ब्रिज एनालिटिका एक ब्रिटिश कंपनी है जिस पर आरोप है कि उसने फ़ेसबुक के ज़रिए करोड़ों लोगों का डेटा चुराया और उसका इस्तेमाल 2016 के अमरीकी चुनाव पर असर डालने के लिए किया.
ऐसा करने के लिए कैम्ब्रिज एनालिटिका ने व्यक्तित्व बताने वाला एक क्विज़ बनवाया जिसे फ़ेसबुक पर लॉन्च कर दिया गया. लाखों फ़ेसबुक यूज़र्स ने ये क्विज़ खेला और अनजाने में अपने व्यक्तित्व के अहम पहलू साझा कर दिए.
'आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपका इस्तेमाल हो रहा है'
निखिल बताते हैं कि, "किसका व्यक्तित्व कैसा है, कौन क्या पसंद करता है, किसकी नस्ल क्या है, नाम, जगह, ईमेल, सब शेयर हो गए. ऐसे में प्रोफ़ाइलिंग करके विरोधियों की पहचान की जा सकती है, अफ़वाहें फैलाई जा सकती हैं.''
उन्होंने कहा, ''किसी ख़ास समूह को निशाना बनाया जा सकता है, जाली ख़बरें भेजकर लोगों को किसी ख़ास नेता के पीछे गोलबंद किया जा सकता है या किसी और नेता के ख़िलाफ़ भड़काया जा सकता है, मिसाल के तौर पर किसी हिलेरी समर्थक को ऐसी ख़बरें भेजी जाएं जिनसे उन्हें हिलेरी पर शक़ होने लगे."
निखिल आगे कहते हैं, "स्टेटस, कॉमेंट, मेसेज में आप जो भी लिखते हैं उससे आपके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ पता लगता है जिसका फ़ायदा उठाया जा सकता है.''
उन्होंने कहा, ''जैसे मान लीजिए ये पता चल जाए कि इस व्यक्ति को अपनी भाषा से बहुत प्यार है तो आप उसके भाषा प्रेम को देश प्रेम से जोड़कर उसे दूसरों के ख़िलाफ़ भड़का सकते हैं. उस व्यक्ति को पता भी नहीं चलेगा कि उसके साथ झूठ बोला जा रहा है या उसे इस्तेमाल किया जा रहा है."
राजनीति ख़ासकर चुनाव में ऐसी गोलबंदी और हेराफेरी से बहुत मदद मिल सकती है.
'पार्टियां साइबर आर्मी बना रही हैं'
नेटा डेटा के संस्थापक एचआर वेंकटेश कहते हैं कि "यूज़र्स के डेटा का कैसा भी इस्तेमाल हो सकता है बस राजनीतिक पार्टी के पास बजट होना चाहिए."
जाने माने साइबर वक़ील विराग गुप्ता के मुताबिक़ दिक़्क़त ये है कि राजनीतिक पार्टियों के इन कामों पर नज़र भी नहीं रखी जा सकती.
विराग कहते हैं, "आजकल सारी राजनीतिक पार्टियां साइबर आर्मी बना रही हैं और इसके बाद भी डेटा के इस्तेमाल या ख़र्च को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं बरती जाती."
ऐसे में अपने डेटा की हिफ़ाज़त करना क्या ख़ुद की ज़िम्मेदारी है?
निखिल और वेंकटेश तो ऐसा ही मानते हैं.
निखिल के मुताबिक़, "सोचिए कि एक टॉर्च जलाने वाले ऐप को फ़ालतू की एक्सेस देने की क्या ज़रूरत है? लोग आराम से हर ऐप को अपने संपर्कों की एक्सेस दे देते हैं. इससे बचना चाहिए. माइक्रोफ़ोन और कैमरा की एक्सेस देते समय भी बहुत चौकसी बरतें. ख़ुद फ़ेसबुक बनाने वाले मार्क ज़ुकरबर्ग भी अपने लैपटॉप के कैमरे और माइक्रोफ़ोन पर स्टिकर लगाकर रखते हैं."
अनाप-शनाप ऐप डाउनलोड न करें
वेंकटेश की सलाह भी कुछ अलग नहीं. उनका कहना है कि हो सके तो ऐप इस्तेमाल ही न करें और अगर करनी भी पड़े तो डाउनलोड करने से पहले अच्छे से सोचें.
"आम तौर पर एक स्मार्टफ़ोन में 17 से 20 ऐप्स रखे जा सकते हैं लेकिन लोग कई ऐप इंस्टॉल-अनइंस्टॉल करते रहते हैं. उन्हें ये अहसास ही नहीं होता कि उनका डेटा उन सारी ऐप्स पर जा रहा है. लोगों को चाहिए कि फ़ेसबुक पर जाकर सारे थर्ड पार्टी ऐप को दी गईं इजाज़त को डिलीट करें.''
उन्होंने कहा, ''कैंडी क्रश जैसे खेलों की अनदेखी करें क्योंकि ये सब थर्ड पार्टी ऐप हैं. फ़ेसबुक पर अपनी निजी ज़िंदगी के बारे में कम से कम जानकारी डालें. जैसे मैं अपने परिवार के फ़ोटो कभी फ़ेसबुक पर नहीं डालता.''
उन्होंने कहा, ''मैं फ़ेसबुक को बताना नहीं चाहता कि मेरा बेटा ऐसा दिखता है या उसका क्या नाम है. हम नही जानते उस जानकारी का इस्तेमाल कैसे किया जाएगा. इसी तरह लोगों को ख़रीदारी करते समय अपना फ़ोन नंबर और ईमेल देने से बचना चाहिए."
गूगल ये मान चुका है कि जीमेल से जाने वाले मेल के साथ-साथ किसी और डोमेन से जीमेल पर आने वाले मेल भी स्कैन किए जाते हैं.
इसका मतलब ये नहीं कि गूगल में बैठकर कोई आपके निजी मेल पढ़ता है, लेकिन ये कंपनियां कीवर्ड सर्च के ज़रिए सारे ईमेल्स की जांच करती हैं ताकि मैलवेयर, स्पैम को पकड़ सकें और लोगों की पसंद के प्रॉडक्ट फ़ीचर बना सकें.