मोदी के 'नए दोस्त' नेतन्याहू को कितना जाते हैं आप?
बिन्यामिन नेतन्याहू की छवि दुनिया भर में एक ना झुकने वाले नेता के रूप में है. पढ़िए, पूरा सफर.
इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू भारत के छह दिवसीय दौरे पर हैं.
नेतन्याहू का जीवन भी कई नाटकीय घटनाक्रमों से जुड़ा है. इसराइल में सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे नेतन्याहू की पहचान एक मजबूत नेता के रूप में है.
बिन्यामिन नेतन्याहू ने इसराइल में चौथी बार सत्ता संभाली है. वह इसराइली सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रहने वाले नेता बन गए हैं.
इस चतुर राजनेता ने 2014 के आख़िर में अचानक से चुनाव की घोषणा कर दी थी. ओपिनियन पोल में ख़राब स्थिति के बावजूद वह नाटकीय रूप से चुनाव जीतने में कामयाब रहे थे.
नेतन्याहू के चुनावी मुद्दों में इसराइल की सुरक्षा सबसे पहले रहती है. ऐसे में फ़लस्तीनियों के प्रति उनका सख्त रवैया रहा है.
नेतन्याहू का मिलिटरी रिकॉर्ड
बिन्यामिन ''बिबी'' नेतन्याहू का जन्म तेल अवीव में 1949 में हुआ था. 1963 में जब इनके इतिहासकार और यहूदी एक्टिविस्ट पिता बेंज़िऑन को अमरीका में एक एकैडमिक पोस्ट का प्रस्ताव मिला तो पूरा परिवार अमरीका चला गया.
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18 साल की उम्र में नेतन्याहू इसराइल लौट आए. यहां वह पांच साल आर्मी में रहे. वह एक अहम कमांडो यूनिट में कैप्टन रहे. नेतन्याहू 1968 में बेरूत एयरपोर्ट पर हुए एक ऑपरेशन में शामिल थे. इसके साथ ही 1973 में मध्य-पूर्व का युद्ध भी उन्होंने लड़ा.
आर्मी सर्विस ख़त्म होने के बाद नेतन्याहू फिर से अमरीका आ गए. यहां उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) से बैचलर और मास्टर की पढ़ाई की.
1976 में नेतन्याहू के भाई जोनाथन युगांडा के एंतेबे में अगवा कर बंधक बनाए गए एक विमान को छुड़ाने के लिए अभियान में शामिल हुए थे. इस अभियान में जोनाथन को जान गंवानी पड़ी थी.
इस मौत का असर नेतन्याहू के परिवार पर गहरा पड़ा. उनके भाई का नाम इसराइल की महान हस्तियों में शामिल हो गया. नेतन्याहू ने अपने भाई की याद में एक आतंकवाद विरोधी इंस्टिट्यूट की स्थापना की.
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इस वजह से अमरीका में इसराइल के राजदूत और भविष्य के विदेश मंत्री मोशे एरेन्स का ध्यान खींचा था.
1982 में एरेन्स ने बिन्यामिन नेतन्याहू को वॉशिंगटन में अपना डिप्टी चीफ़ ऑफ मिशन नियुक्त किया. रातो-रात नेतन्याहू के सार्वजनिक जीवन को पंख मिल गए. नेतन्याहू अमरीकी अंदाज़ में बिल्कुल खरी इंग्लिश बोलते हैं.
वह जल्द ही अमरीकी टेलीविजन पर जाना-पहचाना चेहरा बन गए. वह पश्चिम में इसराइल की बात बड़ी मुखरता से रखने लगे थे.
आगे चलकर नेतन्याहू को 1984 में न्यूयॉर्क में यूएन में इसराइल का स्थायी प्रतिनिधि बना दिया गया.
1998 में जब वह इसराइल वापस आए तो देश की राजनीति में दस्तक दी. उन्होंने संसदीय चुनाव जीता और उप विदेश मंत्री बने. राजनीतिक रूप से बिन्यामिन नेतन्याहू ख़ुद को दक्षिणपंथी बताते हैं.
1992 के आम चुनाव में लिकुड पार्टी की जब हार हुई तो उन्हें पार्टी का चेयरमैन बनाया गया.
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1996 में इसराइल के राष्ट्रपति शिमोन पेरेज ने प्रधानमंत्री यित्ज़ाक रॉबिन की हत्या के बाद वक़्त से पहले चुनाव की घोषणा की थी.
इस चुनाव में नेतन्याहू को सीधी जीत मिली और वह इसराइल के प्रधामंत्री बने. नेतन्याहू इसराइल के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री बने और वह इस मामले में भी एकलौते हैं कि उनका जन्म 1948 में इसराइल के जन्म बाद हुआ था.
नेतन्याहू का पहला कार्यकाल छोटा रहा लेकिन काफ़ी नाटकीय था. इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच ओस्लो एकॉर्ड्स समझौते की तीखी आलोचना के बावजूद 1997 में नेतन्याहू ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसमें हेब्रोन का 80 फ़ीसदी नियंत्रण फ़लस्तीनियों को देना था.
इसके साथ ही उन्होंने 1998 में वाई रिवर मेमोरेंडम पर भी हस्ताक्षर किया जिससे पश्चिमी बैंक से अधिक निकासी का रास्ता साफ़ हुआ.
1999 में नेतन्याहू ने 17 महीने पहले चुनाव की घोषणा कर दी और इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा. उन्हें लेबर नेता एहुद बराक से हार मिली थी. पूर्व कमांडर नेतन्याहू ने एक स्थायी शांति समझौते का वादा किया और उन्होंने दक्षिणी लेबनान से भी वापसी की बात कही.
राजनीतिक पुनर्जीवन
चुनाव हारने के बाद नेतन्याहू ने संसदीय सदस्य और लिकुड पार्टी के चेयरमैन से इस्तीफा दे दिया. नेतन्याहू लिकुड पार्टी में एरियल शरोन के उत्तराधिकारी बने थे.
2001 में जब शरोन प्रधानमंत्री बने तो फिर से नेतन्याहू की सरकार में वापसी हुई. इस सरकार में वह पहले विदेश मंत्री बने और फिर बाद में वित्त मंत्री बने.
2005 में उन्होंने ग़ज़ा पट्टी से सैनिकों की वापसी के फ़ैसले पर विरोध के कारण इस्तीफा दे दिया.
2005 में एक बार फिर से नेतन्याहू को मौक़ा मिला. तब शरोन बड़े स्ट्रोक की चपेट में आ गए थे और उन्हें कोमा में भर्ती करना पड़ा था. लिकुड पार्टी में मतभेद उभरा और वह दो फाड़ हो गई.
नेतन्याहू ने लिकुड पार्टी का नेतृत्व जीता और वह शरोन के उत्तराधिकारी एहुद ओलमर्ट के कड़े आलोचक के रूप में सामने आए.
मार्च 2009 में नेतन्याहू ने दूसरी बार चुनाव जीता. नेतन्याहू ने दक्षिणपंथ, राष्ट्रवादी और धार्मिक पार्टियों को मिलाकर एक गठजोड़ तैयार किया. नेतन्याहू सरकार की अंतरराष्ट्रीय समुदाय में आलोचना हुई.
यह आलोचना फ़लस्तीनियों के साथ शांतिवार्त नहीं बहाल करने की वजह से हुई.
नेतन्याहू ने सार्वजनिक रूप से बिना सैनिकों के फ़लस्तीनी स्टेट की अवधारणा को स्वीकार किया लेकिन उन्होंने कहा कि फ़लस्तीनियों को इसराइल को एक यहूदी मुल्क को रूप में कबूल करना होगा.
2015 में नेतन्याहू ने फ़लस्तीनियों के लिए एक देश की संभावना से ख़ुद को अलग कर लिया. उन्होंने कहा कि मध्य-पूर्व में इस्लामिक चरमपंथ जिस तरह से आगे बढ़ रहा है वैसे में इसकी संभावना ख़त्म हो गई है.
2012 के आख़िर में नेतन्याहू ने वक़्त से पहले चुनाव की घोषणा कर दी और कुछ हफ़्तों में ही संसद को भंग कर दिया गया. इसके बाद नेतन्याहू ने ग़ज़ा में चरमपंथियों के ख़िलाफ़ बड़ी कार्रवाई का आदेश दिया. उन्होंने ऐसा इसराइल में एक रॉकेट फायरिंग के बाद आदेश दिया था.
नेतन्याहू ने ग़ज़ा में यह ऑपरेशन बिना ज़मीन पर सेना उतारे अंजाम दिया था. आठ दिनों के इस ऑपरेशन की सफलता की दुनिया भर में प्रशंसा हुई. जुलाई 2014 में एक बार ने नेतन्याहू ने ग़ज़ा में एक बड़ा ऑपरेशन चलाया.
50 दिनों की इस लड़ाई में 21 सौ से ज़्यादा फ़लस्तीनियों की मौत हुई. फ़लस्तीन में यूएन के अधिकारियों के मुताबिक इनमें से ज़्यादातर आम नागरिक थे. इसराइल की तरफ़ से 67 सैनिक और 6 आम नागरिक मारे गए.
संघर्ष के दौरान इसराइल को अमरीका का समर्थन हासिल रहा है. लेकिन नेतन्याहू और तत्तकालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के संबंध ठीक नहीं थे. ऐसा नेतन्याहू के तीसरे कार्यकाल से ही होने लगा था.
2015 में जब नेतन्याहू ने अमरीकी कांग्रेस को संबोधित किया तो ओबामा से संबंध और निचले स्तर पर पहुंच गया था. ओबामा ने ईरान के साथ जो परमाणु समझौता किया था उसकी नेतन्याहू ने कड़ी आलोचना की.
जब अमरीका में सत्ता परिवर्तन हुआ तो फिर इसराइल और अमरीका के संबंध मधुर हुए. मोदी और नेतन्याहू की दोस्ती कहां तक जाती है यह आने वाले वक़्त में जगजाहिर हो जाएगा लेकिन पिछले 25 सालों से दोनों देशों के बीच के राजनयिक संबध को निश्चित तौर पर गति मिली है.