10 साल में कितना बदला नीतीश कुमार का डीएनए?
नई दिल्ली- रविवार को पटना के गांधी मैदान की एक तस्वीर ऐतिहासिक बन गई। ऐतिहासिक इसलिए कि मई 2009 के बाद पहली बार नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार एक राजनीतिक मकसद से इकट्ठे एक मंच पर मौजूद हुए थे। एक दशक पहले एक और फोटोग्राफर ने वैसी ही एक तस्वीर खींचने की कोशिश की थी, लेकिन तब वो तस्वीर देश के इन दो कद्दावर नेताओं की सियासी दुश्मनी का बीज बो गई थी। उस राजनीतिक लड़ाई ने इतना तूल पकड़ा कि एक-दूसरे के सियासी डीएनए तक पर सवाल उठ गए। लेकिन, कहते हैं राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, तो फिर उस राजनीतिक डीएनए की क्या औकात, जो परिस्थितियों के मुताबिक मेल न खा जाए!
जब अपने हो थे गए बेगाने
नीतीश कुमार चाहे जिस भी पार्टी के नेता रहे हों, वे 90 के दशक से बीजेपी के भरोसेमंद सहयोगी रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में अटल और आडवाणी ने अपने जिस सहयोगी को सबसे अधिक महत्त्व दिया था, उनमें नीतीश कुमार का नाम अव्वल माना जा सकता है। लेकिन, इसके बावजूद गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के साथ सार्वजनिक तौर पर उनके राजनीतिक रिश्ते कभी सहज नहीं दिखे। 2009 के आम चुनावों के दौरान लुधियाना में एनडीए की एक रैली में मंच साझा करने अलावा दोनों किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम में इकट्ठे नहीं दिखे। लेकिन, इस असहजता ने तब विकराल स्वरूप ले लिया, जब 2013 में बीजेपी ने मोदी को पार्टी के चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया था। परंपरागत रूप से पार्टी उसी को ये पद देती है, जिसकी अगुवाई में चुनाव लड़ने का फैसला लिया हो। लिहाजा, नीतीश ने करीब दो दशक से चली आ रही बीजेपी से दोस्ती तोड़ने में एक पल भी नहीं सोचा। वे मोदी के खिलाफ उस लालू यादव के साथ हो लिए, जिनके विरोध की बुनियाद पर उन्होंने अपनी राजनीति की इमारत बुलंद की थी। लेकिन, 2014 के आम चुनाव में नीतीश गच्चा खा गए और नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत से प्रधानमंत्री बन गए। इसमें नीतीश के बगैर बिहार का भी बड़ा योगदान शामिल रहा।
शुरू हुई थी सियासी डीएनए की तलाश
2015 आते-आते बिहार की सियासी फिजा काफी बदल चुकी थी। मोदी के साथ जबर्दस्त कामयाबी का तमगा था, तो नीतीश के साथ लालू के वोट बैंक का हौसला। विधानसभा चुनावों के दौरान सियासी बयानबाजी में मोदी का दर्द भी छलक आया। उनके पीएम उम्मीदवार घोषित होने पर नीतीश का स्टैंड उन्हें अंदर ही अंदर चोट पहुंचा रहा था। ऊपर से उनमें लोकसभा चुनावों में नीतीश को पटखनी देने का दम भी भरा था। लिहाजा उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़कर लालू के साथ जाने के लिए नीतीश के सियासी डीएनए पर प्रहार कर दिया। अब बारी नीतीश की थी। उन्होंने इसे बिहारी अस्मिता से ऐसा जोड़ा कि विधानसभा चुनावों में बीजेपी से लोकसभा चुनाव का हिसाब चुकता कर लिया।
एक तस्वीर ने बिगाड़ा था सियासत का जायका
दरअसल, 2013 में नीतीश अगर मोदी के कारण बीजेपी से दूर हुए तो उसकी बीज 2002 में ही पड़ चुकी थी। लेकिन, 2009 की एक तस्वीर नीतीश और बीजेपी के बीच की सियासत का सबसे बड़ा शैतान साबित हुआ। यह तस्वीर मई 2009 में लुधियाना की एक एनडीए महारैली की थी, जिसमें मोदी और नीतीश दोनों मंच पर हाथ मिलाकर खड़े थे। एक साल तक यह तस्वीर किसी भी आम तस्वीर की तरह रही। लेकिन, 2010 में बिहार बीजेपी ने इसका राजनीतिक फायदा लेना चाहा तो बात जरूरत से ज्यादा बिगड़ गई। नीतीश को लगा कि मोदी के साथ उनकी तस्वीर उनके सियासत का खेल बिगाड़ सकता है। संयोग से उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक के लिए पटना गए हुए थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी समेत बीजेपी के सभी वरिष्ठ नेताओं को डिनर पर बुलाया था। लेकिन, मोदी के साथ वाली तस्वीर देखकर नीतीश इतने भड़क गए कि उन्होंने डिनर ही कैंसिल कर दिया। वैसे भी नीतीश कुमार बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को विश्वास में लेकर बिहार में प्रचार कार्यों से मोदी को दूर ही रखते आ रहे थे। क्योंकि, वो किसी भी सार्वजनिक मंच पर मोदी के साथ नहीं दिखना चाहते थे। अलबत्ता, सरकारी समारोहों और धार्मिक कार्यक्रमों में साथ में ठहाके लगाने से कभी परहेज भी नहीं रखा।
अब सारे 'दाग' अच्छे हैं
समय ने 2014 आते-आते 2002 को दरकिनार कर दिया। अब नीतीश कुमार भी इस बात से भली-भांति परिचित हैं। लालू यादव के साथ समय नीतीश कुमार का भी बीता है और नीतीश के बिना बिहार में बीजेपी का भी। शायद दोनों को अहसास हुआ कि समय की मांग यही है कि साथ-साथ चला जाय। क्योंकि, बीती बातों को कुरेदकर किसी का भी फायदा नहीं होने वाला। सियासी समझ तो यही कहती है कि जनता की भावना की बयार को समझो और उसी रास्ते चल पड़ो। शायद, इसी भावना के साथ समय बीता तो कड़वाहट भी कम होने लगी। बीजेपी को एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में जेडीयू की अहमियत का अंदाजा था और नीतीश को लालू से छुटकारे का अवसर। इसलिए, मोदी को अब नीतीश का सियासी डीएनए पसंद हो चुका है और नीतीश को भी मोदी के राजनीतिक 'दाग' अच्छे लगने लगे हैं।