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विदेशी मीडिया में कैसे बदलती है मोदी की हवा

टाइम मैगज़ीन की वेबसाइट पर प्रकाशित स्टोरी के कवर पेज पर मोदी को 'India's Divider In Chief' बताया गया है, जिस पर काफी विवाद हुआ है.

By संदीप सोनी
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TIME MODI

पांच साल पहले भारत में गैर-कांग्रेसी सरकार बनने के बाद कई बार ऐसे मौक़े आए जब अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रधानमंत्री मोदी पर कवर-स्टोरी करके अलग-अलग तरह से उनके कार्यकाल और कार्यशैली पर टीका-टिप्पणी की.

इस सिलसिले में ताज़ा कड़ी अमरीका की टाइम मैगज़ीन है जिसने लिखा है, ''क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मोदी सरकार को आने वाले और पांच साल बर्दाश्त कर सकता है?"

अमरीकी पत्रिका ने ये सवाल अपने उस अंक के कवर पेज के साथ ट्वीट किया है जो भारतीय बाज़ार में 20 मई 2019 को जारी किया जाएगा.

टाइम मैगज़ीन की वेबसाइट पर प्रकाशित स्टोरी के कवर पेज पर मोदी को 'India's Divider In Chief' बताया गया है, जिस पर काफी विवाद हुआ है.

ध्यान देने वाली बात ये है कि चार साल पहले 2015 में मई के अंक में भी TIME मैगज़ीन ने भारतीय प्रधानमंत्री मोदी पर कवर स्टोरी की थी और तब उसका शीर्षक था- "Why Modi Matters".

TIME MODI

इसी तरह फोर्ब्स पत्रिका में 16 मार्च 2019 को छपे एक लेख में लिखा है कि ''मोदी ने देश-विदेश में भारत को ऊपर उठाया है, लेकिन शासन करने की अपनी शैली की वजह से उन्हें अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ सकता है.''

लेख में कई अन्य बातों के साथ ये भी लिखा गया है कि ''मोदी की नीतियां आम लोगों तक पहुंचने में विफल हुईं, यहां तक कि औसत भारतीय की मोदी के दौर में हालत ख़राब हुई है.''

'मोदी का भारत आगे बढ़ रहा है'

MODI

साल 2019 में पीएम मोदी की आलोचना से दो वर्ष पहले 18 नवंबर 2017 के एक लेख में फोर्ब्स ने लिखा था- Modi's India Is Rising जिसका मतलब हुआ मोदी का भारत आगे बढ़ रहा है.

इसमें कहा गया था, ''प्रधानमंत्री मोदी विश्व आर्थिक मंच पर भारत को आगे बढ़ा रहे हैं, भारत की रैंकिंग बेहतर हो रही है, मोदी ने संरचनात्मक सुधार किए हैं.''

लेकिन द इकनॉमिस्ट ने अपनी रिपोर्ट में यहां तक कह दिया कि मोदी ने मौक़ा गंवा दिया है. इस रिपोर्ट में बताया गया कि मोदी ने ऐसा कोई आर्थिक सुधार नहीं किया, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. इसमें भारतीय प्रधानमंत्री को एक सुधारक की तुलना में एक प्रशासक ज़्यादा बताया गया.

इसी तरह वॉशिंगटन पोस्ट ने इसी साल जनवरी में छापा कि ''मोदी भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारने में नाकाम हुए हैं. मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था को 7 प्रतिशत ग्रोथ रेट से आगे नहीं ले जा पाए और नोटबंदी से वो लक्ष्य हासिल नहीं हुए जिसके लिए ये कदम उठाया गया था.''

भारतीय बनाम विदेशी मीडिया

कुछ जानकारों का मानना है कि विदेशी मीडिया तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और भारतीय अंग्रेज़ी मीडिया से प्रभावित होकर अपनी बात कहता है.

फॉरेन कोरेस्पोंडेंट क्लब (एफसीसी) के प्रेसीडेंट और वरिष्ठ पत्रकार एस. वेंकट नारायण कहते हैं, ''बात ये है कि विदेशी मीडिया और उसके संवाददाता अपनी जानकारी के लिए बहुत हद तक उन अंग्रेज़ी अख़बारों पर निर्भर हैं जो दिल्ली से छपते हैं. उनमें से कुछ ही होंगे जो भारत के अलग-अलग हिस्सों में जाकर ज़मीनी जानकारी जुटाते हैं, बाक़ी अधिकतर संवाददाता भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग से प्रभावित होते हैं जिन्हें अंग्रेज़ी मीडिया में जगह मिलती है. ऐसा इंदिरा गांधी के मामले में भी होता था.''

वरिष्ठ पत्रकार एस. वेंकट नारायण का मानना है कि सिर्फ़ हेडलाइन के आधार पर किसी तरह की पुख़्ता धारणा नहीं बनाना चाहिए. टाइम मैगज़ीन के चर्चित ताज़ा अंक का हवाला देते हुए वो कहते हैं, ''हेडलाइन से आगे बढ़कर कवर स्टोरी को पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि उसमें ये भी कहा गया है कि कांग्रेस पूरी तरह से बेकार है और बस इतना कर पाई है कि राहुल गांधी की मदद के लिए बहन प्रियंका को लेकर आए. लिखा तो ये भी है कि विपक्ष इतना कमज़ोर है कि मोदी का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे.''

'मोदी का कंट्रोल नहीं'

वरिष्ठ पत्रकार हरतोष बल का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया, भारतीय मीडिया से इस तरह अलग है कि वहां मोदी का कंट्रोल नहीं है.

हरतोष बल कहते हैं, ''हमें ये ग़लतफ़हमी होती है कि विदेशी मीडिया और भारतीय मीडिया के बीच बहुत बड़ा डिस-कनेक्ट है. लेकिन ऐसी बात नहीं है. आजकल एक बड़ा बदलाव आ रहा है. आप देखिए विदेशी मीडिया में जो ऑपिनियन पीस आ रहे हैं, वो ज्यादातर भारतीय या भारतीय मूल के लोग ही लिख रहे हैं, जो इंडियन मीडिया में काम कर रहे हैं या इंडियन मीडिया से जुड़े हुए हैं. इसलिए विदेशी मीडिया में जो आप देख रहे हैं, वो इंडियन मीडिया को भी रिफ्लेक्ट करता है.''

हरतोष बल एक और बात की ओर ध्यान दिलाते हैं, वो है मीडिया पर कंट्रोल का होना या ना होना. वो कहते हैं, ''बाहर के मीडिया पर मोदी का कंट्रोल नहीं है. इसी का असर आप विदेशी मीडिया में देख रहे हैं. कुछ लोग हैं जो सही मायने में आलोचनात्मक विश्लेषण कर रहे हैं जो ज़मीनी हक़ीक़त और ठोस तथ्यों पर आधारित हैं.''

हरतोष बल के इस तर्क की एक बानगी 11 मई के वॉशिंगटन पोस्ट में नज़र आती है, जिसमें बरखा दत्त लिखती हैं, ''ये चुनाव पूरी तरह से मोदी के बारे में है, मोदी को दोबारा चुने जाने से भारत का भविष्य तय होगा.''

लेकिन हरतोष बल और एस. वेंकट नारायण दोनों का मानना है कि विदेशी मीडिया में इस तरह के लेख आने से पीएम मोदी को ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता. उनका मानना है कि विश्व का कोई नेता या राजनयिक किसी मैगज़ीन से अपनी राय कायम नहीं करते.

चुनाव की टाइमिंग

MODI SARKAR

संडे टाइम्स लंदन में कॉन्ट्रिब्यूटर रही, दिल्ली स्थित वरिष्ठ पत्रकार अलका नाथ का मानना है कि चुनाव के वक्त ऐसी ख़बरें ज्यादा आती हैं जो सरकार को आइना दिखाने वाली होती हैं. वो याद दिलाती हैं कि साल 2012 में वॉशिंगटन पोस्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'ट्रेजिक फिगर' बताया था.

अलका नाथ कहती हैं, ''मैं ये तो नहीं कहूंगी कि विदेशी संवाददाताओं की ज़मीनी पकड़ नहीं होती, क्योंकि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते. हां ये भी है कि हर राज्य में जाना संभव नहीं होता, इसलिए न्यूज़ मॉनिटरिंग एक बड़ी भूमिका अदा करता है.''

अलका नाथ इस बात को भी ख़ारिज करती हैं कि टाइम जैसी पत्रिकाओं की वजह से किसी सरकार को फर्क नहीं पड़ता.

वो कहती हैं, ''सरकार की छवि पर, देश की छवि पर असर पड़ता है. ये तो क्रेडिबिलिटी की बात है. टाइम, संडे टाइम्स लंदन, न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट उनमें छपे एक एक शब्द को गंभीरता से लिया जाता है. ये कोई छोटे-मोटे अख़बार नहीं है. विदेशी पत्रकारों को कंट्रोल करना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होता है, सरकार ज्यादा से ज्यादा, वीज़ा देने से ही मना कर सकती है.''

BBC Hindi
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English summary
How Modi changes in foreign media
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