मोदी समेत कितने सांसदों की सांसद निधि पर रोक लगाई गई और क्यों?
सांसद निधि स्कीम के तहत सांसदों के संसदीय क्षेत्रों में कार्यों के संपन्न होने पर उनके नाम शिलान्यास होता है जिसमें सांसद का नाम और कार्य का ब्यौरा होता है.
केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय ने वाराणसी के सांसद पीएम नरेंद्र मोदी को मिलने वाली सांसद निधि पर बीते साल 2018 में रोक लगाई थी.
सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक़, नरेंद्र मोदी को 10 में से सिर्फ 7 किश्तें ही जारी की गई हैं.
इस तरह नरेंद्र मोदी को एक सांसद होने के नाते 25 करोड़ में से सिर्फ 17.5 करोड़ रुपये मिले हैं.
मोदी के सांसद निधि खाते में आख़िरी बार 22 अक्टूबर, 2018 को 2.5 करोड़ रुपये जारी किया गया था.
सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर मौजूद रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि नरेंद्र मोदी को मिलने वाली राशि क्यों जारी नहीं की गई. मंत्रालय ने इसके लिए 'त्रुटिपूर्ण ऑडिट सर्टिफिकेट' को ज़िम्मेदार ठहराया है.
हालांकि मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट नहीं किया है कि सांसद नरेंद्र मोदी की सांसद निधि के ऑडिट सर्टिफ़िकेट में क्या त्रुटि पाई गई थी.
वहीं वाराणसी ज़िला प्रशासन के परियोजना अधिकारी से बीबीसी ने संपर्क किया तो उन्होंने सूचित किया कि बीते पांच सालों में सांख्यिकी मंत्रालय ने ऑडिट से जुड़ी कोई आपत्ति नहीं उठाई है. ज़िला प्रशासन सांसद निधि के ज़रिए जारी होने वाली रकम को विकास कार्यों पर खर्च करने के लिए ज़िम्मेदार है.
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क्या है पूरा मामला?
भारत सरकार 'संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना' (MPLADS) के तहत लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों को हर साल पांच करोड़ रुपए की राशि जारी करती है.
सांसदों को उनके संसदीय क्षेत्र की ज़रूरतों के आधार पर ज़िला प्रशासन को कुछ कार्यों को कराने का सुझाव देना होता है.
ज़िला प्रशासन सांसद निधि योजना के नियमों को ध्यान में रखते हुए सांसद के सुझावों के आधार पर इन कार्यों को पूरा कराते हैं.
इसके बाद ज़िला प्रशासन सांसद निधि के खर्चों से जुड़े दस्तावेज़ सांख्यिकी मंत्रालय को भेजता है जिसके बाद अगली किस्तें जारी होती हैं.
सांख्यिकी मंत्रालय ज़िला प्रशासन की ओर से आए दस्तावेज़ों में ग़लती पाए जाने पर सांसदों को मिलने वाली अगली किस्तों को रोकता है.
मंत्रालय ने इसी आधार पर नियमों का उल्लंघन होने की वजह से नरेंद्र मोदी समेत देश के 443 से ज़्यादा सांसदों की सांसद निधि पर रोक लगाई है.
ये जानकारी सांसद निधि स्कीम की वेबसाइट www.Mplads.gov.in पर उपलब्ध है.
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क्यों रोकी गई पीएम मोदी की सांसद निधि
सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट से हासिल रिपोर्ट में पीएम मोदी की सांसद निधि को रोके जाने की वजह त्रुटिपूर्ण ऑडिट प्रमाणपत्र बताई गई है.
बीबीसी ने सांख्यिकी मंत्रालय में उप महानिदेशक दिनेश कुमार से ईमेल और फ़ोन पर कई बार इस मुद्दे से जुड़े कुछ सवालों के जवाब मांगे हैं लेकिन इस ख़बर के लिखे जाने तक 10 मई 2019 को भेजी गई ईमेल पर उनका कोई जवाब नहीं आया.
हालांकि वाराणसी ज़िला प्रशासन में इस योजना को संभालने वाले परियोजना निदेशक उमेश चंद्र त्रिपाठी ने इस मुद्दे पर ज़िला प्रशासन का पक्ष रखा है.
परियोजना निदेशक से मिली जानकारी के मुताबिक, सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से बीते पांच सालों में कभी भी ऑडिट सर्टिफिकेट के ग़लत या अशुद्ध होने से जुड़ी किसी तरह की आपत्ति दर्ज नहीं की गई.
ऐसे में सवाल उठता है कि सांख्यिकी मंत्रालय ने किस आधार पर अपनी वेबसाइट पर सांसद निधि रोके जाने की वजह 'त्रुटिपूर्ण ऑडिट सर्टिफिकेट' बताया.
मोदी के साथ-साथ देश के आधा दर्जन से ज़्यादा सांसदों की सांसद निधि को भी इसी वजह से रोका गया.
इनमें दक्षिणी दिल्ली की सांसद मीनाक्षी लेखी, उडूपी चिकमंगलूर की सांसद कुमारी शोभा करंडलाजे, हावेरी के सांसद शिवकुमार चनाबसप्पा, फ़ैजाबाद के सांसद लल्लू सिंह, इलाहाबाद के सांसद श्यामाचरण गुप्ता और गढ़वाल के सांसद भुवनचंद्र खंडूरी शामिल हैं.
बीबीसी ने इन संसदीय सीटों में ज़िला स्तर के अधिकारियों से बात करके इसकी वजह जानने की कोशिश की.
उडुपी चिकमंगलूर की सांसद शोभा कुमारी की सांसद निधि को नियमानुसार खर्च करने के लिए ज़िम्मेदार डिप्टी कमिश्नर विद्या कुमारी ने बीबीसी से बात करके अपना पक्ष रखा है.
उन्होंने कहा है, "ज़िला प्रशासन को मिली सांसद निधि की राशि से जुड़े यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट केंद्र सरकार को भेज दिए गए हैं लेकिन हमें मिली सांसद निधि में से कुछ रकम चिकमंगलूर के एक ट्रस्ट को दी गई जिसके लिए केंद्र सरकार की ओर से आपत्ति दर्ज की गई थी."
बीबीसी ने बीजेपी सांसद भुवनचंद्र खंडूरी की सांसद निधि को नियमानुसार खर्च करने के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों से भी संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कई बार संपर्क करने और संदेश भेजे जाने के बाद भी पौड़ी ज़िले की मुख्य विकास अधिकारी दीप्ति सिंह की ओर से किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं मिली.
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क्या है बाकी सांसदों का हाल?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी से आगे बढ़कर अगर राष्ट्रीय स्तर पर आंकड़ों को देखा जाए तो सांख्यिकी मंत्रालय ने 443 सांसदों की सांसद निधि को किसी न किसी वजह से रोकने की कार्रवाई की है.
उत्तर प्रदेश के 83 सांसदों (उप-चुनाव जीतकर सांसद बने नेताओं समेत) में से 54 सांसदों की सांसद निधि को रोका गया है.
{image-सांसद निधि (राज्यवार ब्यौरा). . . hindi.oneindia.com}
आंकड़ों को बारीकी से देखें तो ये भी पता चलता है कि सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के ज़्यादातर सांसदों को इस समस्या से दो चार होना पड़ा.
हालांकि, दूसरी पार्टियों के सांसदों की सांसद निधि भी रोकी गई है.
{image-पार्टियां जिनके सांसदों की सांसद निधि रोकी गई. . . hindi.oneindia.com}
क्या सांख्यिकी मंत्रालय ने बदले आंकड़े?
बीबीसी ने सांख्यिकी मंत्रालय में इस स्कीम को चलाने के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों से भी इस संबंध में जानकारी हासिल करने की कोशिश की.
लेकिन इन कोशिशों में कामयाबी तो नहीं मिली लेकिन उसके बाद वेबसाइट पर मौजूद डेटा में बदलाव किए गए.
सांख्यिकी मंत्रालय से संपर्क करने से पहले 26 मार्च तक वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों में नरेंद्र मोदी की रकम रोके जाने की वजह 'ग़लत ऑडिट सर्टिफिकेट' थी लेकिन 15 अप्रैल को वेबसाइट से हासिल रिपोर्ट में ये वजह 'कोड ऑफ़ कंडक्ट' हो गई.
अनौपचारिक बातचीत में मंत्रालय के अधिकारियों ने इसकी वजह आदर्श आचार संहिता लागू होना बताया.
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर आचार संहिता लगने का तर्क सही है तो 26 मार्च तक आंकड़ों में इसे दर्ज क्यों नहीं किया गया जबकि आचार संहिता दस मार्च को ही लागू हो गई थी.
इसके साथ ही ये वजह नरेंद्र मोदी के अलावा उमा भारती, किरण खेर और हेमा मालिनी जैसे कुल 32 सांसदों से जुड़े आंकड़ों में ही नज़र आती है जबकि उमा भारती चुनाव नहीं लड़ रहीं हैं.
सांसद निधि योजना कितनी सफल?
साल 1990 में सांसद रहते हुए राम नाईक ने सांसदों के लिए दो करोड़ रुपए की राशि जारी किए जाने के लिए अभियान छेड़ा था, उन्होंने इसके लिए उस दौर के वित्त मंत्री मधु दंडवते को पत्र लिखा था.
दंडवते राम नाईक के गृह राज्य महाराष्ट्र के रहने वाले थे और इस विचार से भली-भांति परिचित थे क्योंकि इस तरह चुने हुए जन प्रतिनिधियों को निधि दिए जाने की शुरुआत साल 1970 में उनके प्रदेश से ही हुई थी.
पब्लिक मनी - प्राइवेट एजेंडा नाम की किताब में वरिष्ठ पत्रकार ए. सूर्यप्रकाश लिखते हैं कि राम नाईक ने अप्रैल 1992 और मई 1993 में इस मुद्दे पर लोकसभा में लगभग सौ सांसदों के हस्ताक्षरों समेत विनियोग विधेयक पेश किया.
इसके बाद पीवी नरसिम्हा राव सरकार 1 करोड़ रुपये प्रति सांसद देने के लिए सहमत हुई.
सरकार ने 1993 के शीतकालीन सत्र में इस योजना को लागू करने की घोषणा की और इस तरह सांसदों के लिए पहली बार सांसद निधि स्कीम के तहत 5 लाख रुपये की राशि आवंटित हुई.
लेकिन सवाल ये उठता है कि ये स्कीम अपने उद्देश्य में कितनी सफ़ल हुई.
योजना के लिए जारी दिशा-निर्देशों में तीसरा निर्देश कहता है - "योजना का उद्देश्य, संसद सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्रों में स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर स्थाई सामुदायिक परिसंपत्तियों के सृजन पर जोर देते हुए विकासत्मक प्रकृति के कार्यों की अनुशंसा करने हेतु सक्षम बनाना है, योजना के आरंभ से ही राष्ट्रीय प्राथमिकताओं की स्थायी परिसंपत्तियों यानी पेयजल, प्राथमिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता, और सड़क इत्यादि का निर्माणसृजन किया जा रहा है."
एसोशिएसन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिसर्च के संस्थापक जगदीप छोकर मानते हैं कि आंकड़े बताते हैं कि इस योजना के तहत सांसदों को मिलने वाला धन उन मदों में खर्च नहीं किया जा रहा है जिनके लिए इस योजना का जन्म हुआ था.
बीबीसी ने सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए भी यही पाया है.
प्राथमिक क्षेत्रों जैसे पेयजल, शिक्षा, बिजली, सिंचाई और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में कुल खर्च की गई सांसद निधि का सिर्फ 27.43 फीसदी धन खर्च किया गया.
सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट mplads.gov.in में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में किए खर्च का ब्यौरा दिया गया है.
{image- प्राथमिक क्षेत्रों में खर्च की गई सांसद निधि. . . hindi.oneindia.com}
ये आंकड़े इस योजना के औचित्य पर सवाल उठाते हैं.
सांसद निधि से किसको होता है फ़ायदा?
अगर इस योजना के इतिहास में जाएं तो ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब सांसदों ने अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल करते हुए योजना के नियमों को अपने हितों के मुताबिक़ ढाल लिया.
सूर्य प्रकाश लिखते हैं, "वाजपेयी सरकार के दौरान चांदनी चौक के सांसद विजय गोयल ने चांदनी चौक क्षेत्र में पर्यटकों को फ्री बस सेवा उपलब्ध कराने के लिए चार बसों को खरीदे जाने का प्रस्ताव दिया. साल 2001 में लोकसभा की एक कमेटी ने इस पर विचार किया लेकिन सांख्यिकी मंत्रालय की राय मिलने तक इस प्रस्ताव को टाल दिया. सांख्यिकी मंत्रालय ने इसे नियमों का उल्लंघन बताया जिसके बाद लोकसभा की कमेटी ने 1 अगस्त 2001 को ये प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया."
"लेकिन इसके ठीक एक साल बाद विजय गोयल ने एक बार फिर पांच बैटरी ऑपरेटेड ओपन बसों को चलाने का प्रस्ताव दिया. इसी कमेटी ने अपना फ़ैसला बदलते हुए 5 दिसंबर 2002 को सांख्यिकी मंत्रालय की राय मांगे बगैर इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. यहां ये बताया जाना जरूरी है कि दोनों प्रस्तावों को दिए जाने की तारीखों के बीच विजय गोयल एक सांसद से राज्य मंत्री बन गए. यही नहीं, वो उसी सांख्यिकी मंत्रालय के राज्य मंत्री बने जो कि लोकसभा और राज्यसभा की समितियों को राय देती है."
प्रकाश विजय गोयल से जुड़ा एक और ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, "सांख्यिकी मंत्रालय के राज्य मंत्री रहते हुए विजय गोयल ने साल 2002 में एक दो मोबाइल मेडिकल वैन्स को खरीदने का प्रस्ताव दिया. सांख्यिकी मंत्रालय के मुताबिक़, गोयल ने दिल्ली नगर निगम को लिखा कि उन्होंने दो मोबाइल वैन्स को खरीदने के लिए सांसद निधि से धनराशि जारी करने का फ़ैसला किया है जिससे चांदनी चौक के स्थानीय मतदाताओं का भला होगा. उन्होंने ये भी लिखा कि 'ये वैन्स किसी बड़े अस्पताल के साथ जोड़ी जा सकती हैं और इसके लिए मेसर्स आयशर लिमिटेड के साथ संपर्क किया जा सकता है और इसके लिए वह 12 लाख रुपये की राशि स्वीकृत कर रहे हैं."
"गोयल के पत्र में किसी अस्पताल का ज़िक्र नहीं था जिसके साथ ये मोबाइल वैन्स जोड़ी जा सकती हैं. इसके बाद दिल्ली नगर निगम ने मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया कि ये वैन्स महाराजा अग्रसेन अस्पताल के लिए थीं तो क्या नियमों के मुताबिक़ एंबुलेंस को खरीदा जाना मान्य है और अगर ऐसा है तो ये अस्पताल मंत्री जी के संसदीय क्षेत्र के बाहर पंजाबी बाग में आता है."
"सांख्यिकी मंत्रालय ने इस पत्र के साथ गोयल का पत्र संलग्न करके लोकसभा की कमेटी को भेज दिया. इसके साथ ही लिखा कि ये एंबुलेंस महाराजा अग्रसेन अस्पताल को दी जानी हैं जो कि एक निजी अस्पताल है और माननीय मंत्री के संसदीय क्षेत्र में भी नहीं आता है. मंत्रालय ने ये भी लिखा कि नियमों के अनुसार एंबुलेंस खरीदे जाने की इजाज़त सिर्फ तब है जब सरकारी अस्पताल ये सेवार्थ संस्थान के लिए ग्रामीण इलाकों में ऐसा किया जा रहा हो. इसके साथ ही पंचायती राज संस्थान ऐसा कर सकते हैं. और लोकसभा सांसद सिर्फ अपने क्षेत्र में ही किसी कार्य के लिए अनुशंसा कर सकते हैं. लेकिन इस सबके बाद भी लोकसभा कमेटी ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी."
हाल ही में कैग की रिपोर्ट में स्मृति ईरानी के सांसद निधि फंड का दुरुपयोग करने का मामला भी सामने आया था.
कैग ने अपनी 74 पेजों की रिपोर्ट के पेज नंबर 21 में लिखा है - माननीय सांसद ने साल 2015-17 के दौरान 276 कामों की अनुशंसा की जिनकी लागत लगभग 8.93 करोड़ थी. इनमें से 232 कामों को जिला कार्यक्रम अधिकारी ने श्री शारदा मजूर कामदार को-ऑपरेटिव सोसाइटी, खेड़ा (एनजीओ) को दिए जिनकी लगभग लागत 5.93 करोड़ थी. ऑडिट में सामने आया है कि इस इंप्लीमेंटिंग एजेंसी के रूप में इस एनजीओ का चुनाव इस स्कीम के नियम और दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है क्योंकि इसके चुनाव के लिए किसी तरह का टेंडर आमंत्रित नहीं किया गया."
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सांसदों को मिलने वाली निधि नियमों के अनुसार खर्च होती है.
छोकर मानते हैं कि इस स्कीम के तहत अपने संसदीय क्षेत्रों में कार्यों के लिए अनुशंसा करने का अधिकार है लेकिन वह इस निधि को अपनी मर्जी के मुताबिक़ खर्च करते हैं.
वह कहते हैं, "सांसद अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक फायदे के मुताबिक़ निधि को खर्च करवाते हैं. सुनने में ये भी आता है कि इसमें से धनराशि निजी स्तर पर लाभ पहुंचाने के उद्देश्य के साथ भी खर्च की जाती है. कई ऐसे मामले देखने में आए हैं जिसमें किसी पार्क में फव्वारे को बनवा दिया जबकि उस क्षेत्र में पेयजल की भारी किल्लत पाई गई."
कई विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि सांसद इस निधि की मदद से अपने चुनाव जीतने की संभावनाओं को बढ़ाने की कोशिश करते हैं.
येल यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर हैरी ब्लेयर ने भी अपने शोध में यही पाया है.
हैरी ब्लेयर अपने अध्ययन 'कॉन्स्टीट्युएंसी डेवलपमेंट फंड - डू दे इनवाइट ए पॉलिटिकल बिजनेस साइकिल', में लिखते हैं कि सांसद निधि के खर्च करने के समय के रूप में एक पॉलिटिकल बिजनेस साइकिल मौजूद होती है. पंद्रहवीं लोकसभा के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि वर्तमान सांसद अपने चुनाव से ठीक पहले सांसद निधि को तेजी से खर्च करते हैं ताकि उनके जीतने की संभावनाएं बढ़ सकें. हालांकि आंकड़े बताते हैं कि ऐसा करने वाले सांसदों में ज़्यादातर सांसद अपनी सीट नहीं बचा पाते हैं."
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क्या ये नीति लोकतांत्रिक और संवैधानिक है?
सांसद निधि स्कीम के तहत सांसदों के संसदीय क्षेत्रों में कार्यों के संपन्न होने पर उनके नाम शिलान्यास होता है जिसमें सांसद का नाम और कार्य का ब्यौरा होता है.
और इसके लिए 24 परगना दक्षिण सीट के सांसद रहे राजनीतिज्ञ आर. आर. प्रमाणिक को दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने ही साल 2000 के मार्च महीने में ये प्रस्ताव पेश किया था.
जगदीप छोकर मानते हैं कि ये चीज़ सामंतवाद का प्रतीक है.
वह कहते हैं, "पुराने दौर में जिस तरह सामंत अपने नाम पर मंदिर और मस्जिदें बनवाते थे ताकि उन्हें इतिहास में याद रखा जाए. इसी तर्ज पर ये पत्थर की दीवारें बनवाई जाती हैं जिनमें सांसद का नाम लिखा होता है. ये लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है क्योंकि अगर कोई सांसद ने किसी कार्य को संपन्न भी कराता है तो वो उनकी अपनी की धनराशि नहीं बल्कि करदाता का पैसा होता है. ऐसे में सांसद ऐसे कामों को संपन्न कराने के लिए श्रेय कैसे ले सकते हैं."
जेएम लिंगदोह जैसे अनुभवी नौकरशाह और इरा सेझियां जैसे राजनेता भी इस स्कीम को ख़त्म करने का सुझाव दे चुके हैं.
पूर्व सांसद और लेखक इरा सेझियां ने अपनी किताब 'एमपीलेड्स - कॉन्सेप्ट, कन्फ़्यूज़न, कॉन्ट्राडिक्शन' में लिखा है, "ये स्कीम सांसदों के काम में बाधा डालती है. उन्होंने अपने ऊपर अत्यधिक काम ले लिया है. इससे उनकी कार्यपालिका के कामों पर नज़र रखने की भूमिका प्रभावित होती है. इसके साथ ही अपेक्षाकृत ज़्यादा संसदीय कार्यों से उनका ध्यान हट जाता है. इस स्कीम के चलते वे एक तरह से कार्यपालिका के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं."
इस स्कीम के चलते एक संवैधानिक समस्या भी पैदा होती है.
लिंगदोह ने इस मुद्दे पर कहा है कि ये स्कीम संविधान की मूल भावना शक्तियों का बंटवारे को चुनौती देती है और ये चुने हुए जनप्रतिनिधियों की भूमिका को भी प्रभावित करती है.
लिंगदोह ने इस स्कीम को तत्काल प्रभाव से समाप्त करने का सुझाव देते हुए कहा था कि ये देश के लोकतांत्रिक ढांचे को कमज़ोर करता है और इस स्कीम को रद्द करके इसमें खर्च की जाने वाली रकम को पंचायती राज संस्थाओं को दिया जाना चाहिए. इससे ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र मज़बूत होगा जैसा कि संविधान में परिकल्पना की गई है.
जगदीप छोकर इस बिंदू को सरल शब्दों में समझाते हुए कहते हैं, "भारत में राज्य के तीन स्तंभ हैं जो कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका हैं. विधायिका का काम कानून बनाना है, कार्यपालिका का काम कानून का पालन करना है और न्यायपालिका का काम कानून की व्याख्या करना है. ऐसे में सांसद या विधायकों को कार्यपालिका के क्षेत्र में किसी तरह से प्रवेश नहीं मिलना चाहिए."
"इस स्कीम में एक समस्या और है कि नियमों के उल्लंघन होने पर सांसद अपने दायित्व से ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि इस स्कीम को अमल में लाने का काम ज़िला प्रशासन का है और ज़िला प्रशासन सांसद के आदेशानुसार स्कीम को लागू करता है. ऐसे में नियमों का उल्लंघन होने की स्थिति में किसी की जवाबदेही तय नहीं हो पाती है."
"स्कीम के मुताबिक़, सांसद सिर्फ़ कामों की अनुशंसा कर सकते हैं लेकिन असल में होता ये है कि सांसद अनौपचारिक रूप से ज़िला प्रशासन को बताते हैं कि काम किसे दिया जाना है (इनमें उनके करीबी लोग शामिल होते हैं.) इसके बाद काम में खामी आने की स्थिति में सांसद ज़िला प्रशासन से कहते हैं कि पास कर दिया जाए."
"ये मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया जहां ये कहा गया कि ज़िला प्रशासन सांसद के अनुशंसित कामों को खारिज भी कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर इसे संविधान के अनुरूप करार दिया. लेकिन किस ज़िला प्रशासन की हिम्मत होती है कि वो सांसद के बताए काम को खारिज़ कर दे. ऐेसे में इस स्कीम में कई ऐसी कमियां हैं जिनसे धांधलेबाज़ी होने की गुंजाइश बहुत ज़्यादा है."
"ये स्कीम जिस तरह से चल रही है वो सिर्फ सांसदों के फायदे के लिए है. इसका जनता के हितों से कोई लेना-देना नहीं है. और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सांसद निधि ही रोकी जाती है तो ये इस बात का संकेत है कि नेतृत्व के सबसे उच्च स्तर पर इस स्कीम को लेकर अव्यवस्था फैली हुई है."
इस स्कीम की जड़ें इंदिरा गांधी के उस फैसले से निकलती हैं जब उन्होंने 1971 में होने वाले चुनाव पहले कराने का फैसला किया था.
इससे सांसदों में अपने चुनाव को लेकर एक असुरक्षा की भावना पैदा हुई क्योंकि इससे पहले तक मतदाताओं को लुभाने के लिए सांसदों को विशेष प्रयत्न नहीं करने होते थे. लेकिन इसके बाद सांसदों को ये ज़रूरत महसूस हुई कि राष्ट्रीय राजनीति में लंबे राजनितिक भविष्य के लिए संसदीय क्षेत्रों में उन्हें एक ज़मीन तलाशनी होगी.
1971 से शुरू हुई असुरक्षा की भावना 1993 में एक कानून में परिवर्तित हुई.
लेकिन सवाल ये है कि सांसदों की असुरक्षा की भावना से उपजी ये स्कीम आख़िर कब पूरी तरह कारगर होगी.