भारतीय मुसलमान कब तक राजनीतिक दलों की बंदूक का कंधा बनेंगे?
बेंगलुरू। ब्रिटिश हुकूमत की करीब 300 वर्षों की गुलामी से आजादी के लिए खून का एक-एक कतरा बहाकर आजाद हुआ एक मुल्क 73 वर्ष पहले हिंदू और मुस्लिम में बंटकर हिंदुस्तान और पाकिस्तान बन गया। धर्म के आधार पर हुआ हिंदुस्तान का यह बंटवारा उसकी आत्मा के खिलाफ था।
15 अगस्त, वर्ष 1947 की आधी रात ब्रिटिश हुकूमत ने अविभाजित हिंदुस्तान को आजाद घोषित जरूर किया, लेकिन जब सुबह सूर्य उगा था तो एशिया उपमहाद्वीप पर बसा हिंदुस्तान, जिसका छोर हिंदुकुश पर्वत से हिंद महासागर तक फैला था खंडित हो चुका था। अखंडित हिंदुस्तान हिंदू और मुस्लिम के नाम पर दो टुकड़ों में विभाजित हो चुका था।
भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले, यह तर्क दिया गया था कि बहुसंख्यक हिंदुओं में मुसलमानों का हित सुरक्षित नहीं है, इसलिए विभाजन आवश्यक है। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान), जो पिछले 73 वर्षों में मुस्लिम हितों के नाम पर हिंदुस्तान से अलग हो गए थे, अब उसी हिंदुस्तान में मुस्लिम हितों की रक्षा की वकालत कर रहे हैं, जिसके आधार पर दोनों इस्लामिक राष्ट्र वर्ष 1947 में भारत से अलग हो गए थे।
गौर करने वाली बात यह है कि मुस्लिम हितों को आधार बनाकर वर्ष 1947 में दो अलग राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्तिरूप दिया गया था। आज जब पाकिस्तान और बांग्लादेश के मौजूदा हुक्मरान हिंदुस्तान में पारित किसी कानून को लेकर भारतीय मुस्लिमों के हितों की बात करते हैं तो बरबस हंसी छूट जाती है।
अविभाजित हिंदुस्तान बंटवारे के वक्त हिंदू और मुस्लिम भारी संख्या में हितों के परिकल्पनाओं के फैलाए भ्रम में जाल में फंसकर विभाजित सीमा रेखा लांघ गए। उनमें कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें हितों की परिकल्पनाएं छू तक नहीं पाईं थी। ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के वक्त अविभाजित पाकिस्तान में करीब 25 फीसदी हिंदू (हिंदू-सिख) आबादी थी।
लेकिन वर्ष 1998 में हिंदू आबादी 1.6 फीसदी पहुंच गई। यह इस बात की परिचायक थी कि मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र में हिंदू हित बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। यही वजह थी कि 1947 में ही 47 लाख से अधिक हिंदू और सिख अविभाजित पाकिस्तान छोड़कर विभाजित हिंदुस्तान लौट आए थे।
वर्तमान में इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान और बांग्लादेश जब भारतीय मुस्लिम के हितों की बात करते हैं तो हास्यास्पद लगता है, जिन्होंने पाकिस्तानी और बांग्लादेशी में मौजूद हिंदू हितों का ख्याल नहीं रखने में जरा भी कोशिश नहीं की। विविधिताओं से भरे हिंदुस्तान की समावेशी संस्कृति में मुस्लिम हितों के लिए एक अलग राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना निहायत ही बचकानी थी।
आंकड़े इसकी गवाह हैं। 1947 के विभाजन के बाद हिंदुस्तान में रह गए मुस्लिमों की आबादी करीब 10 फीसदी थी और बंटवारे के 70 साल बाद यानी 2017-2018 हिंदुस्तान में मुस्लिमों की आबादी उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए करीब 15 फीसदी तक पहुंच गई है।
कमोबेश यही हाल पूर्वी पाकिस्तान ( वर्तमान बांग्लादेश) का है। पूर्वी पाकिस्तान में बंटवारे के समय हिंदू आबादी 22 फीसदी से अधिक थी, लेकिन 1971 में वजूद में आए वजूद में बांग्लादेश में हुए 1974 के सेंसेस में हिंदू आबादी सिमट कर 13.5 फीसदी रह गई और वर्ष 2011 सेंसेस में हिंदू आबादी दुबककर 9 फीसदी रह गई।
बांग्लादेश में वेस्टेड प्रापर्टीज रिटर्न (एमेंडमेंट) बिल 2011 बिल के पारित होने के बाद हिंदुओं की जमीन कब्जा करने की प्रवृति बढ़ी है, जिसे सरकारी संरक्षण भी प्राप्त है। बांग्लादेश में हिंदू इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं, जिनके साथ मारपीट, दुष्कर्म, अपहरण, जबरन मतांतरण, मंदिरों में तोडफोड़ और शारीरिक उत्पीड़न आम बात है।
अगर यह जारी रहा तो अगले 25 वर्षों में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी ही समाप्त हो जाएगी। हालांकि दावा किया जा रहा है कि बांग्लादेश में हिंदू आबादी में सुधार हुआ है और वर्ष 2017 में यह 9 से 10.7 फीसदी पहुंच चुकी हैं।
वर्ष 2001 में हुए सेंसेस में हिंदुस्तान में मुस्लिमों की आबादी हिंदुस्तान में 13.4 फीसदी थी, 2011 सेंसेस में मुस्लिम आबादी बढ़कर 14.2 फीसदी हुई और संभव है कि 2021 सेंसेस में यह आकंड़ा 16 फीसदी पार कर जाएगा, क्योंकि भारत में हिंदुओं की तुलना में मुस्लिम की आबादी 25 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जो इस बात की तस्दीक करती है।
इतिहास गवाह है कि अविभाजित हिंदुस्तान में भी मुस्लिम का हित सुरक्षित था और विभाजित हिंदुस्तान में मुस्लिमों का हित सुरक्षित हैं जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की हालत क्या है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं हैं। चौंकाने वाला आंकडा यह है कि 1947 से 2017 के बीच हिंदुस्तान में हिंदुओं की आबादी में उत्तरोत्तर कमी आई है जबकि मुस्लिमों की बढ़ रही है।
बात करें भारत सरकार के हालिया सीएबी बिल (सीएए) और एनआरसी की, तो यह कहीं भी भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ नहीं हैं, जिसको लेकर कांग्रेस समेत कई पार्टियां लामबंद हैं। सवाल यह है कि क्या सीएबी और एनआरसी भारतीय मुस्लिमों के हितों के खिलाफ है? तो जवाब है नहीं ! यह कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों की राजनीति का राजनीतिक हथकंडे से अधिक कुछ नहीं हैं।
क्योंकि राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून में तब्दील हो चुके सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (CAA) हिंदुस्तान के 22 करोड़ से अधिक मुस्लिमों की नागरिकता को लेकर कोई बात नहीं करता हैं। एक्ट सीधे-सीधे चिन्हित बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यक हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसी हितों को नागरिकता देने की बात करती है, जो पीड़ित है अथवा सताए गए हैं।
सीएए एक्ट में मुस्लिम का जिक्र नहीं है, जिसका राजनीतिक दल फायदा उठा रही हैं और मुस्लिम युवाओं को भ्रम में फंसाकर विरोध- प्रदर्शन के लिए उकसा रही हैं। इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान में वोट बैंक की राजनीति में मुस्लिम का पिछले 70 वर्षों में किस तरह इस्तेमाल किया गया है। यही राजनीति सीएए और एनआरसी को लेकर भी विपक्षी दल कर रही हैं।
खुद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह संसद को दोनों सदनों में बिल का मसौदा रखते हुए यह बात साफ कर चुके हैं कि बिल में मुस्लिम का जिक्र इसलिए नहीं हैं, क्योंकि जिन तीन देशों के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागिरकता देने का उल्लेख किया गया है उनमें मुस्लिम नहीं है, क्योंकि उल्लेखित तीनों देश इस्लामिक राष्ट्र हैं और वहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं।
अब तय भारतीय मुस्लिम को करना है, जिन्हें पिछले 73 साल का इतिहास भी मालूम है और भारत-पाकिस्तान बंटवारे से पूर्व के हिंदुस्तान का इतिहास भी अच्छी तरह से पता है जब विविधताओं से भरे हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम साथ-साथ खड़े रहते थे और साथ लड़कर ब्रिटिश हुकूमत से आजादी की लड़ाई खून बहाया था।
यह भी पढ़ें- नागरिकता बिल : पाकिस्तान से राजस्थान आए हिन्दुओं की दर्दभरी दास्तां, 'बेटियों को उठा ले जाते थे मुस्लिम और...' VIDEO
बहुसंख्यक हिंदुओं में सुरक्षित है मुसलमानों का भविष्य
भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले, यह तर्क दिया गया था कि बहुसंख्यक हिंदुओं में मुसलमानों का हित सुरक्षित नहीं है, इसलिए विभाजन आवश्यक है। दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान), जो पिछले 73 वर्षों में मुस्लिम हितों के नाम पर हिंदुस्तान से अलग हो गए थे, अब उसी हिंदुस्तान में मुस्लिम हितों की रक्षा की वकालत कर रहे हैं, जिसके आधार पर दोनों भारत से अलग हो गए थे।
मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र में भी हिंदू हित सुरक्षित नहीं
ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के वक्त अविभाजित पाकिस्तान में करीब 25 फीसदी हिंदू (हिंदू-सिख) आबादी थी, लेकिन वर्ष 1998 में हिंदू आबादी 1.6 फीसदी पहुंच गई। यह इस बात की परिचायक थी कि मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र में हिंदू हित बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। यही वजह थी कि 1947 में ही 47 लाख से अधिक हिंदू और सिख अविभाजित पाकिस्तान छोड़कर विभाजित हिंदुस्तान लौट आए थे।
हिंदुस्तान में हिंदुओं से दोगुना तेजी बढ़ी मुस्लिम आबादी
विविधिताओं से भरे हिंदुस्तान की समावेशी संस्कृति में मुस्लिम हितों के लिए एक अलग राष्ट्र के निर्माण की परिकल्पना निहायत ही बचकानी थी। आंकड़े इसकी गवाह हैं। 1947 के विभाजन के बाद हिंदुस्तान में रह गए मुस्लिमों की आबादी करीब 10 फीसदी थी और बंटवारे के 70 साल बाद यानी 2017-2018 हिंदुस्तान में मुस्लिमों की आबादी उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए करीब 15 फीसदी तक पहुंच गई है।
अविभाजित हिंदुस्तान में भी सुरक्षित था मुस्लिमों का हित!
वर्ष 2001 में हुए सेंसेस में हिंदुस्तान में मुस्लिमों की आबादी हिंदुस्तान में 13.4 फीसदी थी, 2011 सेंसेस में मुस्लिम आबादी बढ़कर 14.2 फीसदी हुई और संभव है कि 2021 सेंसेस में यह आकंड़ा 16 फीसदी पार कर जाएगा, क्योंकि भारत में हिंदुओं की तुलना में मुस्लिम की आबादी 25 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जो इस बात की तस्दीक करती है कि अविभाजित हिंदुस्तान में भी मुस्लिम का हित सुरक्षित था और विभाजित हिंदुस्तान में मुस्लिमों का हित सुरक्षित हैं जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की हालत क्या है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं हैं।
पिछले 70 वर्षों से वोट बैंक की राजनीति में पिसे हैं मुस्लिम
सीएए एक्ट में मुस्लिम का जिक्र नहीं है, जिसका राजनीतिक दल फायदा उठा रही हैं और मुस्लिम युवाओं को भ्रम में फंसाकर विरोध- प्रदर्शन के लिए उकसा रही हैं। इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान में वोट बैंक की राजनीति में मुस्लिम का पिछले 70 वर्षों में किस तरह इस्तेमाल किया गया है। यही राजनीति सीएए और एनआरसी को लेकर भी विपक्षी दल कर रही हैं।
भारतीय मुस्लिमों के हितों के खिलाफ नहीं सीएबी और एनआरसी
सवाल यह है कि क्या सीएबी और एआरसी भारतीय मुस्लिमों के हितों के खिलाफ है। तो जवाब है नहीं ! यह कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों की राजनीति का राजनीतिक हथकंडे से अधिक कुछ नहीं हैं, क्योंकि राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून में तब्दील हो चुके सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (CAA)हिंदुस्तान के 22 करोड़ से अधिक मुस्लिमों की नागरिकता को लेकर कोई बात नहीं करता हैं। एक्ट सीधे-सीधे चिन्हित बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यक हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसी हितों को नागरिकता देने की बात करती है, जो पीड़ित है अथवा सताए गए हैं।
बिल में भारतीय मुस्लिमों की नागिरकता छीनने की बात नहीं
सदन में अमित शाह ने बताया कि सीएबी बिल में कही भी भारतीय मुस्लिमों की नागिरकता छीनने की बात नहीं कही गई है, लेकिन विपक्ष मुस्लिमों को भड़काने के लिए ऐसे मनगढ़ंत बातों को तूल दे रहा है, जिसका सीएबी बिल से कोई वास्ता ही नहीं हैं। केंद्रीय गृहमंत्री शाह ने सदन को साफ-साफ यह भी बताया था कि अगर कोई मुस्लिम खुद को इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी प्रताड़ित पाता है और भारत की नागरिकता के लिए आवेदन करता है, तो हिंदुस्तान उसकी नागरिकता पर विचार करेगा।
मोदी सरकार कुल 561 पाकिस्तानी मुस्लिमों को दी नागरिकता
शाह के मुताबिक पिछले वर्ष 561 पाकिस्तान मुस्लिम नागरिकों को आवेदन के बाद हिंदुस्तान की नागरिकता दी गई है, जिनमें पाकिस्तान के मशहूर सिंगर अदनाम सामी शामिल हैं। यही वजह है कि खुद अदनान सामी भी सीएबी बिल का खुलकर समर्थन करते हुए ट्वीट किया है। उन्होंने कहा, सीएबी बिल के बावजूद मुसलमानों के नागरिकता लेने पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, मुस्लिम पहले की तरह भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं।