'रेवड़ी की राजनीति' कितनी सही-कितनी ज़रूरी, छिड़ी बहस
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव अभियानों में राजनीतिक पार्टियों के मुफ़्त चीज़ें और पैसे देने के वादे करने को 'एक गंभीर मुद्दा' बताया है.
चुनाव अभियानों में राजनीतिक पार्टियों के मुफ़्त चीज़ें और पैसे देने के वादों से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे 'एक गंभीर मुद्दा' बताया है.
बुधवार को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने कहा- "ये एक गंभीर मुद्दा है. जिन्हें ये मिल रहा है वो ज़रूरतमंद हैं और हम वेलफ़ेयर स्टेट हैं. कुछ टैक्सपेयर कह सकते हैं कि इसका इस्तेमाल विकास के लिए किया जाए. इसलिए ये गंभीर मुद्दा है. अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफ़ेयर में बैलेंस की ज़रूरत है. दोनों ही पक्षों को सुना जाना चाहिए."
क्या है ये मामला?
जनहित याचिका दायर करने वाले बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने गुज़ारिश की है कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र को नियंत्रित करने और उनके वादों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने से जुड़ा क़ानून लाए और बिना सोच समझकर अतार्किक वादे करने वाली पार्टियों को बैन करे.
उनका कहना है कि मुफ़्त चीज़ों की घोषणा करते वक़्त राजनीतिक पार्टियां सरकार पर पड़ रहे कर्ज़ के बोझ का ध्यान रखें और बताएं कि इसके लिए पैसा किसकी जेब से आ रहा है.
अश्विनी उपाध्याय बताते हैं, "हमने कोर्ट से यही कहा है कि इस समय केंद्र और राज्य सरकारों पर 150 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ हो चुका है. अगर इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में स्थिति बहुत ख़राब हो जाएगी. हमें न विश्व बैंक, न अमेरिका, न जापान कर्ज़ देगा. स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी. केंद्र सरकार ने भी हमारी जनहित याचिका का समर्थन किया है. और कहा है कि जन कल्याणकारी योजनाएं तो चलनी चाहिए लेकिन मुफ़्तखोरी की योजनाएं बंद होनी चाहिए. हमने अपनी ओर से सात सदस्यों की एक समिति का प्रस्ताव दिया है. यह समिति बताए कि मुफ़्तखोरी को कैसे रोका जाए और राज्यों पर जो कर्ज़ बढ़ रहा है, उसे कैसे कम किया जाए."
इस मामले में अब अगली सुनवाई 17 अगस्त को होनी है.
चुनाव आयोग और पीएम मोदी का रुख
चुनाव आयोग ने बुधवार को इस मुद्दे पर कहा है कि जिसे आप सामान्य भाषा में 'फ्रीबीज़' यानी मुफ़्त की चीज़ें कह रहे हैं, वे महामारी जैसे दौर में लोगों की जान बचा सकती हैं. हो सकता है एक वर्ग के लिए जो अतार्किक हो वो दूसरे वर्ग के लिए ज़रूरी हो.
प्रधानमंत्री मोदी भी ये मुद्दा बार-बार उठा रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते गुरुवार राजनीतिक पार्टियों और मुफ़्त में सुविधाएं दिए जाने का ज़िक्र करते हुए कहा, "इस तरह के वादे करके वोटरों को लुभाना राष्ट्र निर्माण नहीं, बल्कि राष्ट्र को पीछे धकेलने की कोशिश है."
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पीएम मोदी ने कहा, "अगर राजनीति में ही स्वार्थ होगा तो कोई भी आकर पेट्रोल-डीज़ल भी मुफ़्त देने की घोषणा कर सकता है. ऐसे क़दम हमारे बच्चों से उनका हक़ छीनेंगे. देश को आत्मनिर्भर बनने से रोकेंगे. ऐसी स्वार्थभरी नीतियों से देश के ईमानदार करदाता का बोझ भी बढ़ता ही जाएगा. ये नीति नहीं 'अनीति' है. ये राष्ट्रहित नहीं, ये राष्ट्र का अहित है."
पीएम मोदी ने बीते महीने बुंदेलखंड-एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए उत्तर प्रदेश के जालौन में भी यही कहा था.
उन्होंने कहा था, "आजकल हमारे देश में मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है. ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है. रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर उन्हें ख़रीद लेंगे. हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है."
भारत में इससे पहले भी सब्सिडी के मुद्दे पर विचार-विमर्श होता रहा है. सब्सिडी के औचित्य आदि पर गंभीर चर्चाएं हुई हैं.
लेकिन इस मुद्दे पर इस तरह राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप ने नए सवाल खड़े किए हैं.
क्या मुफ़्त में चीजें या सेवाएं देना उचित है?
राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त में चीज़ें या सुविधाएं देने का वादा हमेशा से करती रही हैं लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये किया जाना उचित है.
राजनीतिक मामलों को समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह बताते हैं, "जब आप वोट मांगने जाते हैं तो इस तरह की बातें कहनी होती हैं. लेकिन इसमें एक फ़र्क है कि सामान्य रूप से ये कहना कि हम सबका ध्यान रखेंगे और स्पेसिफिक रूप से कहना जैसे '15 लाख आएंगे और हम सबको दे देंगे'. मुझे लगता है कि इस तरह स्पेसिफिक वादे करना ग़लत होता है. ये कहना भी ग़लत है कि हम जब आएंगे तो बिजली के बिल में दो या तीन रुपये माफ़ कर देंगे या बिलकुल ही ख़त्म कर देंगे."
"ये प्रवृत्ति किसी एक दल की नहीं है, बल्कि सभी दलों की होती है लेकिन ये प्रवृत्ति रुकनी चाहिए. अगर आप कुछ करना चाह रहे हैं तो उसके लिए भी नियम कानून होने चाहिए कि उसे किस तरह होना चाहिए. इसकी जवाबदेही भी होनी चाहिए."
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लेकिन क्या जन कल्याणकारी योजनाओं और हाल ही में सामने आए टर्म 'मुफ़्त की रेवड़ी' को एक तरह देखा जा सकता है?
इस सवाल पर राम कृपाल सिंह बताते हैं, "एक ऐसा समाज जहां आर्थिक और सामाजिक समेत तमाम तरह की विषमताएं हैं. वहां सभी के लिए एक जैसा कदम नहीं उठाया जा सकता. ऐसे में वंचितों और शोषितों का कल्याण करना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. लेकिन लोकतंत्र में अगर आपका काम बहुसंख्यक समाज को लाभांवित नहीं करेगा तो आप चुनकर नहीं आ सकते. ऐसे में ये कहा जाए है कि हमारी सरकार ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाएगी. यहां तक तो ठीक है."
वह कहते हैं, "लेकिन धीरे-धीरे ये होने लगा है कि जनता से वादे करो और फिर भूल जाओ. ऐसे में पहले जो एक फुंसी थी, उसने अब कैंसर का रूप ले लिया है. इस प्रवृत्ति का नतीजा ये हुआ कि कहा जाने लगा कि हम फ्री बिजली देंगे. बताइए कि कोई भी सरकार फ्री बिजली कैसे दे सकती है. आख़िरकार पैसा टैक्सपेयर का है. और फ्री बिजली सबको क्यों मिलनी चाहिए...जो लोग बिजली ख़रीद सकते हैं, उन्हें फ्री में क्यों मिलनी चाहिए."
अरविंद केजरीवाल ने भी लगाए आरोप
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गुरुवार को इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए कहा, "कहा जा रहा है कि अगर सरकारें जनता को फ्री में सुविधाएं देंगी तो सरकारें कंगाल हो जाएंगी. देश के लिए बहुत आफ़त पैदा हो जाएगी. इन सारी फ्री की सुविधाओं को बंद किया जाए. इससे मन में एक शक पैदा होता है कि कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक हालत बहुत ज़्यादा खराब तो नहीं हो गयी है. अचानक ऐसा क्या हो गया कि इन सारी चीजों को बंद करने, वापस लेने या इनका विरोध करने की स्थिति आ गई."
उनका आरोप है कि केंद्र सरकार ने करोड़पति उद्योगपतियों के कर्ज़ माफ़ किए हैं.
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उन्होंने कहा है, "2014 में केंद्र सरकार का बीस लाख करोड़ का बजट होता था. आज केंद्र सरकार का बजट लगभग चालीस लाख करोड़ का है तो ये सारा पैसा जा कहां रहा है. इन्होंने बहुत अमीर लोग जो अरबपति हैं, उनके दस लाख करोड़ रुपये के कर्जे़ माफ कर दिए. अगर ये हज़ारों लाखों करोड़ों रुपये के कर्जे़ माफ़ नहीं किए जाते तो इन्हें खाने-पीने की चीज़ों पर टैक्स लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती."
बीते सप्ताह कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल का जवाब ट्वीट किया था.
इसके अनुसार 2017 से लेकर 2022 के बीच बैंकों ने क़रीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ माफ़ किए हैं.
उनका कहना था कि सरकार मध्यवर्ग के करदाताओं को लूट रही है. इसी का ज़िक्र अरविंद केजरीवाल ने किया.
https://twitter.com/kharge/status/1555865388923363333
क्या कल्याणकारी योजनाओं की ज़रूरत है
लेकिन सवाल ये उठता है कि सरकारों की किन योजनाओं को ज़रूरी जन-कल्याणकारी योजना कहा जा सकता है और किन्हें 'फ्रीबीज़' या मुफ़्त की रेवड़ी की संज्ञा दी जाए.
मनी नाइन के संपादक और आर्थिक मामलों के जानकार अंशुमन तिवारी बताते हैं, "हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके ज़रिए ये बताया जा सके कि क्या चीज फ्रीबीज़ हैं और क्या नहीं हैं. क्या आप मुफ़्त अनाज बांटने को फ्रीबीज़ कहेंगे. और कहीं किसी राज्य में पहाड़ों पर पानी नहीं पहुंच रहा है, और वहां सरकार फ्री में पानी उपलब्ध करवा रही है तो क्या उसे आप फ्रीबीज़ कहेंगे या नहीं. ऐसे में इस पूरे विचारविमर्श में तथ्यों का भारी अभाव है."
वह कहते हैं, "हमारे पास इसे देखने का सिर्फ़ एक ही तरीका है. अब से दस साल पहले तक भारत में तथ्यों के आधार पर चर्चा होती थी जिसमें मेरिट और डिमेरिट सब्सिडी को परिभाषित किया जाता था. हमारे पास इसे देखने का यही एक तरीका है जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अनुरूप है. इस आधार पर फ्री राशन और फ्री शिक्षा मेरिट सब्सिडी है. लेकिन अगर किसी छात्र को शिक्षा देना मेरिट सब्सिडी है तो क्या उसे लैपटॉप देना डिमेरिट सब्सिडी है, ये कहना मुश्किल है."
लेकिन सब्सिडी चाहें मेरिट की श्रेणी में आए अथवा डिमेरिट की श्रेणी में, दोनों सूरतों में टैक्सपेयर का पैसा ख़र्च होता है.
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ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश को कल्याणकारी योजनाओं की ज़रूरत होती है और अगर हां तो इसका देश की आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ता है.
इस सवाल पर अंशुमन तिवारी कहते हैं, "अगर ऐसी योजनाएं नहीं होंगी तो वेलफेयर स्टेट के विचार को ही चुनौती मिलेगी. आख़िर सरकारें टैक्स किस लिए लगाती हैं? वे वेलफेयर स्टेट चलाने के लिए टैक्स लगाती हैं. इस तरह के राज्य में एक निश्चित स्तर तक आपको लोगों की मदद करनी होती है जिसके बाद वह पैसा कमाते हैं और खपत की श्रेणी में आ जाते हैं. और ये ज़रूरत हर स्टेट की अलग-अलग होती है. सिक्किम जैसा राज्य जहां पहाड़ आदि हैं, वहां की सरकार को लोगों को कुछ सुविधाएं देनी होंगी जो किसी समृद्ध राज्य में नहीं देनी होंगी."
अंशुमन तिवारी कहते हैं, "अगर ये नहीं होगा तो टैक्स से मिले पैसे का क्या इस्तेमाल होगा. भारत में भारी टैक्स लगाया जाता है. आयकर टैक्स को अलग रख दिया जाए तो भी सरकार को अप्रत्यक्ष कर बहुत मिलता है. ऐसे में ये कहना ग़लत है कि राज्यों के बजट की वजह से ये टैक्स से मिले पैसे की बर्बादी है. समस्या ये है कि हमें ये नहीं पता है कि हमें कौन सा काम करना चाहिए. ये बहस इतनी तथ्यहीन है कि हमारे पास ये जानने का ऐसा कोई तरीका नहीं है कि जो पैसा लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाने में ख़र्च किया जा रहा है, उससे लोगों की जीवनशैली में क्या सुधार हुआ है और उसका क्या असर पड़ा है."
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