दीदी के गढ़ में कैसे बदल गया है सियासी गणित, इन आंकड़ों से समझिए
नई दिल्ली- कहते हैं कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता है। लेकिन, नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के लिए अमित शाह इसबार लखनऊ के अलावा कोलकाता से भी बड़ी आस लगाए बैठे हैं। बीजेपी की इस उम्मीद के पीछे पश्चिम बंगाल में पिछले साल हुआ पंचायत चुनावों का परिणाम है,जिसमें बीजेपी नंबर दो पार्टी बनकर उभरी थी। उसी चुनाव ने भाजपा के विरोधियों को भी नया-नया समीकरण बिठाने को मजबूर कर दिया है।
दीदी दबंग हैं, लेकिन चुनौती बड़ी है
इस बात में कोई शक नहीं कि 2014 से लेकर पिछले साल तक राज्य में जो तीन चुनाव हुए हैं, उन सब में टीएमसी का रुतबा कायम रहा है। लेकिन, उससे भी बड़ी बात ये है कि आज पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को कोई टक्कर दे रहा है, तो वह भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ता ही हैं। जिस कैडर के दम पर वामपंथियों, खासकर सीपीएम का कभी बंगाल में बोलबाला था, आज वे बीजेपी कैडर के मुकाबले कहीं खड़े नहीं दिखाई देते। अगर हम इसे आंकड़ों में पढ़ना चाहें तो पिछले साल राज्य में जिला परिषद की जिन 824 सीटों के लिए चुनाव हुए उनमें टीएमसी के 793 के बाद 22 सीटें जीतने वाली पार्टी बीजेपी ही रही। जबकि, कांग्रेस को सिर्फ 6 और लेफ्ट को महज 1 सीट से संतोष करना पड़ा। वहीं 9,214 सीटों वाले पंचायत समिति में तो भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन इससे भी बेहतर रहा। उसमें पार्टी को टीएमसी के 8,062 सीटों के मुकाबले 769 सीटें मिलीं। जबकि, कांग्रेस 133 और लेफ्ट पार्टियों को 124 सीटें ही मिल पाईं। यानी इन दोनों को जोड़ने के बाद भी बीजेपी उनसे कहीं बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।
पंचायत चुनाव और विधानसभा उपचुनाव से खलबली
पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव ने टीएमसी से लेकर लेफ्ट और कांग्रेस में भी खलबली मचा रखी है। हालांकि, सीटों पर जीत की संख्या से देखें तो दीदी की दादागीरी बरकरार है। लेकिन, बदली हुई जमीनी हालातों ने उन्हें अंदर से सोचने को मजबूर जरूर कर दिया है। आज कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां फिर से गठबंधन करके चुनाव लड़ने के लिए बातचीत कर रही हैं, तो इसके पीछे भी इसे बहुत बड़ा कारण माना जा रहा है। कयास तो यहां तक लगाए जा रहे हैं कि टीएमसी और कांग्रेस भी एकबार फिर एक साथ आने का मन बना सकते हैं। दीदी की चिंता ये है कि उन्हें कई इलाकों में खासकर आदिवासी बहुल जगहों पर समर्थन घटने की आशंका सता रही है। गौरतलब है कि पिछले साल कम से कम 5 आदिवासी बहुल जिलों में से टीएमसी ने कई सीटें बीजेपी के हाथों गंवा दिए। इन 5 जिलों में से 3 जंगलमहल और दो उत्तर बंगाल के जिले हैं। झारखंड से सटे झारग्राम, बांकुरा और पुरुलिया जिलों में तो बीजेपी 30 से 40 प्रतिशत तक पंचायत सीटें झटकने में सफल हो गई।
लेकिन, बीजेपी का असल हौसला बढ़ाया है, पंचायत चुनाव के साथ ही हुए महेशतला उपचुनाव के रिजल्ट ने। वहां पर बीजेपी काफी अंतर से दूसरे नंबर पर तो रही थी, लेकिन उसका वोट शेयर 8% से बढ़कर सीधे 35% तक जा पहुंचा था। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह आज राज्य की 42 में से 20 से 22 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं, तो इसके पीछे भी यही आकलन है।
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पिछले चुनावों में वोट शेयर में आया बदलाव
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वहां 17% से अधिक वोट शेयर हासिल कर 2 सीटें जीती थी। लेकिन, 2016 के विधानसभा चुनावों में उसका वोट शेयर घटकर 10 फीसदी से थोड़ा ज्यादा रह गया था और वो सिर्फ 3 सीटें ही जीत सकी थी। लेकिन, पंचायत चुनावों की कामयाबी और महेशतला में वोट शेयर में आए जबर्दस्त उछाल ने उसके हौसले बुलंद कर रखे हैं। वहीं, ये भी तथ्य है कि अबतक के सभी चुनावों में तृणमूल कांग्रेस बाकियों से काफी आगे रही है।
मसलन, 2014 में उसने लगभग 40% वोट लेकर 34 लोकसभा सीटों पर कब्जा किया था, तो विधानसभा में उसका वोट शेयर बढ़कर 45% के करीब पहुंच गया और उसने कुल 294 में से 211 सीटें जीत ली थी। पंचायत चुनाव में उसके दमदार प्रदर्शन की बात तो ऊपर हो ही चुकी है। लेकिन, वामपंथी पार्टियों के प्रदर्शन का ग्राफ लगातर गिरता गया है। जैसे- 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां सीपीएम को लगभग 23 प्रतिशत वोट मिले थे, वहीं विधानसभा चुनाव में वह घटकर करीब 20% ही रह गए।
इसी तरह सीपीआई का वोट शेयर 2.36% से घटकर 1.45% रह गया। लेकिन, कांग्रेस और फॉर्बर्ड ब्लॉक का प्रदर्शन बाकी दोनों से ठीक रहा। यानी कांग्रेस को 2014 में 9.69% वोट (4 सीट)मिले थे, जबकि 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 12.25% वोट (44 सीट) मिले थे। जबकि, लेफ्ट को लोकसभा में सिर्फ 2 और विधानसभा में महज 29 सीटों पर ही कामयाबी मिल पाई थी।
अब राज्य में बीजेपी ने हाल में जिस तरह से अपना ग्राफ बढ़ाया है, उसे रोकने के लिए त्रिकोणीय मुकाबले का तानाबाना बुना जा रहा है। इसमें कौन किसमें फिट बैठता है, यह देखना दिलचस्प है। मगर, राजनीति में कभी भी दो और दो का चार होना भी तय नहीं है। इसलिए दीदी के राज में मोदी की घेराबंदी क्या राजनीतिक गुल खिलाएगा, ये बहुत बड़ा सियासी सवाल बन चुका है।