कितना मुश्किल है दलितों के लिए किराये पर रहना
मैं लगभग दस साल पहले दक्षिण भारत के एक महानगर को छोड़कर हैदराबाद में शिफ़्ट हुआ. आज मैं हैदराबाद के पूर्वी इलाके में रहता हूँ.
लेकिन पहले मैं यहाँ के केंद्रीय इलाके में रहा करता था. मेरे मकान-मालिक मुसलमान थे. मेरे आस-पास रहने वाले लोग भी मेरी तरह ही मीडियाकर्मी थे.
बीबीसी हिंदी की #BeingMuslimAndDalit सिरीज़ की इस कड़ी में पढ़िए एक दलित युवक की कहानी. ये दलित युवक हैदराबाद में एक मीडिया कंपनी में कार्यरत हैं.
भारत में दलितों और मुसलमानों को मकान किराए पर लेने में किस तरह के अनुभवों से होकर गुजरना पड़ सकता है, ये कहानी उन कड़वे अनुभवों की एक बानगी भर है. जानिए, इस युवक की कहानी, उनकी ही जुबानी.
मैं लगभग दस साल पहले दक्षिण भारत के एक महानगर को छोड़कर हैदराबाद में शिफ़्ट हुआ. आज मैं हैदराबाद के पूर्वी इलाके में रहता हूँ.
लेकिन पहले मैं यहाँ के केंद्रीय इलाके में रहा करता था. मेरे मकान-मालिक मुसलमान थे. मेरे आस-पास रहने वाले लोग भी मेरी तरह ही मीडियाकर्मी थे.
इन लोगों से मेरी अच्छी दोस्ती हुआ करती थी. लेकिन तीन साल पहले मुझे अपने उस घर को छोड़कर पूर्वी हैदराबाद में शिफ़्ट होना पड़ा.
ऐसे में मैंने हैदराबाद-विजयवाड़ा हाइवे के नज़दीक एलबी नगर इलाके में अपने लिए एक नए घर की तलाश शुरू की.
मकान खाली है शाकाहारियों के लिए
मैंने 'मकान खाली' है वाले कई बोर्ड देखे लेकिन इन बोर्ड्स में एक नोट भी लगा हुआ करता था. इस नोट में 'केवल शाकाहारी लोगों के लिए' लिखा होता था.
इन घरों के दरवाजों को मैंने खटखटाने के बारे में सोचा भी नहीं. लेकिन काफ़ी तलाश करने के बाद मुझे अपनी पसंद का एक घर मिला.
जब मैंने मकान किराए पर लेने के लिए अपनी इच्छा जताई तो मुझसे पूछा गया कि 'आप किस (जाति) से संबंधित हैं...'
मुझे ये सुनकर गुस्सा आया लेकिन मकान लेने की मजबूरी और असहाय होने की वजह से मेरा गुस्सा मेरे अंदर ही कैद हो गया.
मेरे एक दोस्त ने कहा, "शहर के कुछ इलाकों में मकान मालिक दलितों और मुस्लिमों को घर नहीं देते और जाति आधारित गेटेड कॉलोनियां भी मौजूद हैं."
मगर जाति पूछना क्यों जरूरी है?
ये सुनकर मेरे अंदर एक तरह का डर भी पैदा हो गया.
लेकिन जरूरी सुविधाओं की उपलब्धता, पार्क की मौजूदगी, मेरे ऑफिस से इस इलाके की नज़दीकी और परिवार की ज़रूरतों के लिहाज़ से मैंने इस क्षेत्र में ही अपने लिए किराए के घर की तलाश जारी रखी.
ऐसे में मैं जब एक मकान में गया तो मकान मालकिन ने मुझसे तमाम सवाल पूछे.
इनमें कई सवाल मेरी नौकरी, तनख़्वाह, मेरे शाकाहारी-मांसाहारी होने, परिवार वालों की संख्या, माता-पिता और मेरे गृह नगर की जानकारी से जुड़े थे.
लेकिन आखिर में उन्होंने अपनी जाति बताने के बाद मुझसे मेरी जाति को लेकर सवाल किया.
जाति का पता चलते ही प्रेम ख़त्म
मैं इस सवाल का जवाब देने में सहज नहीं था और मैंने कहा कि मैं आपका घर किराए पर लेने के लिए इच्छुक नहीं हूं.
यहां तक तो ठीक है कि अगर कोई किराये की राशि, किराया देने का समय, किराया देने का तरीका, किरायेदार का आपराधिक इतिहास, घर के रखरखाव, पानी के इस्तेमाल, आधार या पैनकार्ड से जुड़ी शर्तें लगाए.
लेकिन ये कहां तक ठीक है कि कोई मकानमालिक अपना घर किराए पर देने का फैसला किरायेदार की जाति के आधार पर ले.
इस सबके बाद मुझे एक ऐसा मकानमालिक मिला जिसे मेरा गृहनगर बहुत पसंद था. उन्हें जैसे ही मेरे गृहनगर के बारे में पता चला तो उन्होंने मेरे प्रति काफ़ी अनुराग दिखाया.
उन्होंने मुझे बताया कि उनका परिवार मेरे गृहनगर में दस साल रह चुका था और उन्होंने मुझे खाना खाए बिना अपने घर से जाने नहीं दिया.
कुछ दिन बेहतर संबंध रहे...
इसके कुछ समय बाद मैं उनके घर पर रहने लगा. हमारे और मकान मालिक के बीच कुछ दिन बेहतर संबंध रहे.
लेकिन जब मेरी पत्नी ने मकान मालिक को हमारी जाति के बारे में बता दिया तो उन्होंने अपने बच्चों को हमारे बच्चों के साथ खेलने से मना कर दिया.
हालांकि, मेरी बेटी उनके बच्चे के साथ खेलने के लिए उनके घर जाने की ज़िद करती रही.
लेकिन उन्होंने कभी भी मेरी बेटी को घर के अंदर आने देने के लिए दरवाज़े नहीं खोले. धीरे-धीरे सभी पड़ोसियों को पता चल गया कि हम लोग अनुसूचित जाति से हैं.
हमारे मकान मालिक की बहू ने पड़ोसियों को बताया कि मकान किराए पर लेते वक्त मैंने अपनी जाति उजागर नहीं की. मुझे इन सभी बातों से बेहद बेइज्जती महसूस हुई.
बिना भेदभाव वाला पड़ोस
इस बर्ताव की वजह से स्थिति ऐसी आ गई कि आपातकालीन स्थिति में भी हम किसी की मदद न ले सकें. इस वजह से हमें मजबूरी में कुछ हफ़्तों में ही घर खाली करना पड़ा.
इस तरह की पीड़ादायक स्थिति से गुजरने वाले ही समझ सकते हैं कि ऐसा व्यवहार कितना दर्दनाक हो सकता है. सभी लोग ये नहीं जानते होंगे कि ये भेदभाव गैरकानूनी है.
लेकिन कुछ लोग जानबूझकर भी इस तरह का रवैया अपनाते हैं. उन्हें लगता है कि ऐसी हरकतें कानून की नज़र में नहीं आएंगी.
मैंने अपनी कुछ मजबूरियों के चलते कोई कानूनी कदम नहीं उठाया.
इन अनुभवों से गुजरने के बाद हमने फैसला किया कि हम ऐसे ही घर में किराए पर रहेंगे जहां मकान-मालिक मुसलमान हो और हमारी जाति से उसे कोई समस्या न हो.
जब मकान के लिए छुपाई जाति
इसके बाद हमें एक घर मिला. हालांकि, हमें ये घर ज़्यादा पसंद नहीं आया.
हम एक ऐसा घर चाहते थे जहां पर मकान-मालिक को हमारी जाति से कोई समस्या न हो और ऐसा पड़ोस जहां हमें भेदभाव का सामना नहीं करना पड़े.
हालांकि, हमें इस बात का एहसास हुआ कि इन सब शर्तों के साथ घर किराए पर लेने के लिए बात करना भी मुश्किल है.
ऐसे में हमने अपनी जाति के बारे में झूठ बोलने का फ़ैसला किया. हालांकि, हम अपनी पहचान नहीं छुपाना चाहते थे.
हमें एक मकान पसंद आया जिसके मकान मालिक एक सरकारी अधिकारी थे जिन्होंने हम से हमारी जाति को लेकर सवाल नहीं किया.
इसके बाद हम इस घर में रहने पहुंच गए. लेकिन इससे भी हमारी मुश्किलों का समाधान नहीं हुआ.
मक़सद परीक्षा लेना था...
हमारी मकानमालिक की एक रिश्तेदार एक दिन हमारे घर की देहरी पर रुक गईं और अंदर आने से पहले हमारी जाति पूछी.
ऐसे में हमने सच ना बोलकर उन्हें वो जाति बताई जो हमारी नहीं थी. हमारे जवाब से संतुष्ट होकर वह हमारे घर में आ गईं.
इसके बाद जाति से जुड़े कई सवाल पूछे गए लेकिन उन सबका मकसद बस हमारी परीक्षा लेना था.
जब मेरे मां-बाप मेरे घर आए तो मकान-मालिक और पड़ोसियों ने उन्हें शक की निगाह से देखा, शायद उनकी बोलचाल के ढंग की वजह से.
हाल ही में मेरे मकान-मालिक बदल गए हैं और हम अभी भी अपने झूठ के साथ जी रहे हैं. हम अपनी तरह की भाषा और बोली को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं.
हमें नहीं पता कि हम कब तक ये सब बर्दाश्त कर सकते हैं और इसका हमारे बच्चों पर क्या असर पड़ेगा.
आख़िरकार मकान ख़रीदना पड़ा...
एक लोकप्रिय तेलुगु लेखक अर्दुरा कहा करते थे, "मकान खरीदना बेवकूफी है. इससे बेहतर है कि एक किराए के घर में रहा जाए."
"हां, ये इस पर निर्भर करता है कि किसी को एक अच्छा घर और मकान-मालिक मिले."
वे चेन्नई के पानागल पार्क में 25 साल तक एक किराए के घर में रहे. लेकिन आखिर कितने लोग इतने सौभाग्यशाली होते हैं?
घर खरीदने को लेकर मेरे विचार पक्के थे लेकिन अब मैं पूरी ज़िंदगी ईएमआई देता रहा और मेरी तनख़्वाह का आधा हिस्सा होम लोन चुकाने में जाता है.
मुझे कभी भी लोन लेकर घर खरीदने का विचार समझदारी से भरा नहीं लगा.
लेकिन मुझे आखिरकार ये लगा कि अपनी जाति की वजह से सवालों के घेरे में आने और बेइज्जती बर्दाश्त करने की वजह से घर खरीदना एक बेहतर विकल्प लगा.
पड़ोसियों को चुना नहीं जा सकता है...
इसके बाद एक साल तक होम लोन लेने, पैसे जोड़ने और दोस्तों से कर्ज लेने के बाद हम घर खरीदने में सक्षम हुए.
हमारे घर का निर्माण कार्य अभी भी चल रहा है और उसमें शिफ़्ट होने में अभी समय लगेगा. तब तक मुझे भेदभाव बर्दाश्त करना पड़ेगा.
भेदभाव के मामले में पड़ोसी भी मकानमालिकों से कम नहीं हैं. ये कहा कहा गया है कि पड़ोसियों को चुना नहीं जा सकता है.
लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि कुछ लोग अपनी जाति के आधार पर अपने पड़ोसी चुन सकते हैं. हां, हमें मकान देने से मना किया गया और अभी भी मना किया जाता है.