1984 दंगे को 'मृत मुद्दा' बताने वाली कांग्रेस की सच्चाई 2002 की बीजेपी से कितनी अलग?- नज़रिया
गोपनीयता का हवाला देते हुए आयोग ने कांग्रेस पार्टी को आरोप मुक्त किया और नियमों से परे जाकर कांग्रेस पार्टी को नोटिस भी जारी नहीं किया.
कांग्रेस पार्टी और इसके नेताओं को बेगुनाह मानते हुए मिश्रा ने माना कि कांग्रेस कार्यकर्ता अपने स्तर पर सामूहिक हत्याओं में शामिल हुए.
भारतीय संसद के इतिहास का सबसे दुखद अध्याय नवंबर 1984 में लिखा गया.
दिल्ली की सड़कों पर लगातार तीन दिनों तक सिखों का संहार होता रहा. संसद ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई सिखों की हत्याओं की निंदा करते हुए कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया.
जबकि नई सरकार के गठन के फौरन बाद जनवरी, 1985 में राजीव गांधी सरकार ने इंदिरा गांधी की हत्या और भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों के प्रति दुख जताया.
फरवरी 1987 में एक और चूक हुई. 1984 दंगों पर एक रिपोर्ट संसद में पेश की गई.
सदन में भारी बहुमत का दुरुपयोग करते हुए राजीव गांधी सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर सदन में चर्चा की इजाज़त नहीं दी.
सरकार या कांग्रेस पार्टी के किसी भी नेता के अभियोजन से दूर रहने के बावजूद ऐसा किया गया.
संसद में हुई 21 साल बाद चर्चा
इस मुद्दे पर संसद का मुंह दबाना सरकार के अपने उस अड़ियल रवैये को ज़ाहिर करता है, जो उसने सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत जज की जांच में मिली क्लीन चिट के बाद हासिल किया था.
मिश्र को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया, वो मानवाधिकार आयोग के पहले अध्यक्ष बने और फिर राज्यसभा में कांग्रेस के टिकट पर सांसद बने.
अगस्त 2005 में जब मनमोहन सिंह सरकार ने इसी विषय पर एक दूसरे जांच आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की, तब जाकर 21 साल पुरानी घटना पर संसद में चर्चा हुई.
वो भी इसलिए कि केन्द्र सरकार को न्यायमूर्ति नानावती आयोग की जांच रिपोर्ट स्वीकार करने पर मजबूर किया गया. इस रिपोर्ट में एफ़आईआर दर्ज होने के बावजूद सज्जन कुमार को बाद में दोषी न ठहराने की बात का ज़िक्र था.
दिलचस्प है कि जिस न्यायाधीश ने 1984 के दंगों की दोबारा जांच की, उन्होंने ही 2002 के गुजरात दंगों की भी जांच की थी.
नानावती आयोग ने नवम्बर 2014 में गुजरात दंगों पर अपनी रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट के आने के बाद गुजरात की बीजेपी सरकार 1987 की कांग्रेस से भी दो कदम आगे रही.
बीजेपी से कितनी अलग है कांग्रेस
गोधरा कांड के बाद हुई हिंसा पर नानावती रिपोर्ट छह महीने की संवैधानिक समय सीमा के उल्लंघन के बाद भी विधानसभा के पटल पर नहीं रखी गई.
शायद बीजेपी से ऐसी ही उम्मीद थी, जिसे वैचारिक रूप से साम्प्रदायिक माना जाता है.
लेकिन गांधी और नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाली कांग्रेस उससे कितनी अलग थी?
सज्जन कुमार को दोषी ठहराने के बाद इस अवधारणा को बल मिलता है कि समय पड़ने पर साम्प्रदायिक अवसरवादिता कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है.
अगर दिल्ली में 1984 दंगों के लिए एक राजनीतिज्ञ को दोषी ठहराने में 34 साल लगते हैं, तो निश्चित रूप से इसे कांग्रेस के शुरुआती शासनकाल में अपराधियों को बचाने के लिए संस्थानों के क्रियाकलाप में दखल से जोड़कर देखना चाहिए.
अतीत में झांकें तो राजीव गांधी दंगों की जांच कराने पर ये कहते हुए तैयार नहीं हुए कि वो "एक मृत मुद्दे" को हवा नहीं देना चाहते.
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मिश्रा आयोग की जांच
हालांकि दिसम्बर 1984 के लोकसभा चुनावों और मार्च 1985 के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक फायदा उठाने के बाद राजीव गांधी को प्रशासनिक अनिवार्यता के तहत जांच कराने की मांग के सामने झुकना पड़ा था.
ऐसा इसलिए भी क्योंकि अकाली दल नेता संत लोंगोवाल ने पंजाब संकट के मसले पर तब तक सरकार के साथ वार्ता से इंकार कर दिया था, जब तक वो जांच शुरू नहीं कर देती.
मिश्रा आयोग ने कैमरे के सामने इस मामले की जांच की लेकिन बिना इच्छा के.
गोपनीयता का हवाला देते हुए आयोग ने कांग्रेस पार्टी को आरोप मुक्त किया और नियमों से परे जाकर कांग्रेस पार्टी को नोटिस भी जारी नहीं किया.
कांग्रेस पार्टी और इसके नेताओं को बेगुनाह मानते हुए मिश्रा ने माना कि कांग्रेस कार्यकर्ता अपने स्तर पर सामूहिक हत्याओं में शामिल हुए.
उन्होंने कहा, "कांग्रेस पार्टी में निचले स्तर पर कहीं भी और किसी भी अन्य पार्टी की तरह कमज़ोर कड़ी है. उस स्तर पर किसी पार्टी कार्यकर्ताओं की भागीदारी से ये स्वीकार करना मुश्किल है कि कांग्रेस ने दंगे कराए या उसमें भाग लिया."
इसके साथ ही कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए मिश्रा ने दावा किया कि अगर कांग्रेस हिंसा को बढ़ावा देती, तो दिल्ली में कहीं भी पुलिस या नागरिक समाज के लिए बदतर हुए हालात को संभालना मुश्किल होता.
उन्होंने कहा, "अगर कांग्रेस पार्टी या पार्टी के किसी ताकतवर धड़े ने कोई भूमिका निभाई भी होती तो ये उस तरह से इसे अंजाम नहीं दे सकते थे जिसके लिए उन्हें उत्तरदायी ठहराया गया है.''
तर्कों का खेल
पीड़ितों के आरोपों को नकारते हुए मिश्रा ने कहा, "1 नवम्बर 1984 को पार्टी के केन्द्रीय और केन्द्र शासित प्रदेशों की इकाइयों के प्रस्तावों को देखते हुए ये कहना और खोज निकालना वास्तव में मुश्किल है कि इस घिनौनी हिंसा में पार्टी के अनदेखे चेहरे शमिल थे."
अपनी बात पर ज़ोर देते हुए उन्होंने ये भी कहा कि दंगों के दौरान कांग्रेस पार्टी से जुड़े कई सिखों को भी नहीं बख्शा गया था.
उन्होंने कहा, "अगर कांग्रेस पार्टी या पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता ने दंगाइयों को दिशा निर्देश दिए होते तो कांग्रेस के गढ़ और पार्टी से जुड़े लोगों को बख्श दिया जाता."
इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि रिपोर्ट के कमज़ोर आधार को देखते हुए राजीव गांधी ने मिश्रा की रिपोर्ट पर 1987 में सदन में चर्चा से इंकार कर दिया था.
सच्चाई छिपाने की इस रणनीति ने कम से कम सज्जन कुमार के मामले में इंसाफ देर से हो पाया.