कुमार विश्वास से कितनी अलग है आम आदमी पार्टी?
जातिवाद संबंधी बयान पर सफ़ाई देकर कुमार विश्वास ने अपनी असल मंशा उजागर की.
आम आदमी पार्टी (आप) के नेता कुमार विश्वास ने सफ़ाई दी है कि आरक्षण के आंदोलन के लिए उनके निशाने पर बाबा साहेब आंबेडकर नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे.
राजस्थान में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं की एक सभा में उन्होंने कहा, "एक आदमी आरक्षण के आंदोलन के नाम पर हमारे देश में जातिवाद की नींव (या रीढ़) डाल गया था." इस बयान के वायरल होने पर उनकी कड़ी आलोचना हुई और कहा गया कि उन्होंने आंबेडकर पर निशाना साधा है.
पर भले ही कुमार विश्वास के निशाने पर पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ही क्यों न हों, उसके मूल में आरक्षण विरोधी विचार ही था.
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इस वीडियो में कुमार विश्वास जो कहते सुने गए, वो ना सिर्फ़ घोर वर्ण व्यवस्थावादी, बल्कि स्त्री विरोधी भी है. उनकी स्त्री विरोधी, रंगभेदी और नरेंद्र मोदी के गुणगान में कही गई बातें पहले भी सामने आई हैं.
इसके बावजूद 'आप' में उनकी खास हैसियत बनी रही है. बहरहाल, इस बार सीधे आरक्षण लागू करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को निशाने पर लेकर कुमार विश्वास अपनी मंशा ज़ाहिर कर चुके हैं.
अरविंद केजरीवाल कहते रहे हैं कि कुमार विश्वास न सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत मित्र हैं, बल्कि वे उन लोगों में हैं जिन्होंने 'आप' की नींव डाली.
यह हैरतअंगेज है कि यह सवाल उनसे कभी गंभीरता से नहीं पूछा गया कि क्या उन्होंने इस तरह की सामाजिक दृष्टि वाले लोगों को लेकर उस पार्टी की बुनियाद रखी, जिसे एक समय भारत में "नई राजनीति" का जनक बताया गया था?
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तब कहा गया था कि तमाम अस्मिताओं से ऊपर उठते हुए 'आप' नव-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगी. क्या ये बात सामाजिक यथार्थ पर पर्दा डालने की कोशिश थी?
मूलभूत मुद्दे गौण
ये प्रश्न पूछा जाता तो इस पार्टी के संस्थापकों की पृष्ठभूमि और उसकी उत्पत्ति को लेकर कई महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर देश का ध्यान जाता.
लेकिन भ्रष्टाचार विरोध का ऐसा भ्रम खड़ा किया गया कि 'आप' के आर्थिक एवं सामाजिक नज़रिए से संबंधित मूलभूत मुद्दे गौण बने रहे.
दरअसल, अन्ना हज़ारे का आंदोलन सचमुच भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था, या वह कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार की साख को ध्वस्त करने का सुनियोजित प्रयास था, अब हम इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने की बेहतर स्थिति में हैं.
https://twitter.com/ashutosh83B/status/937330740362076161
2011 से 2014 तक मुख्यधारा के मीडिया के शोर और तब तमाम तथ्य सामने ना होने के कारण बहुत से भलेमानस लोग भ्रष्टाचार विरोध के 'नेक उद्देश्य' से भ्रमित हो गए.
लेकिन ख़ुद कुमार विश्वास यह राज़ खोल चुके हैं कि अन्ना आंदोलन के भीतर "भाजपा नेताओं के भ्रष्टाचार के प्रति आक्रामक रुख़ न अपनाने" पर सहमति थी.
तो भ्रष्टाचार विरोध महज बनाना था. इसके जरिए तत्कालीन सरकार की वैचारिक और राजनीतिक विरोधी शक्तियों की मदद से कुछ महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों ने अपनी राजनीति की शुरुआत की.
https://twitter.com/ashutosh83B/status/937215081758081024
लोकतंत्र में राजनीति में क़दम रखना अपने-आप कोई आपत्तिजनक बात नहीं है. मगर सामान्य स्थितियों में सबसे अहम मुद्दा यही होता है कि कोई राजनीतिक दल या सियासत में आए शख्स के विचार क्या हैं?
इसे 'आप' की बड़ी सफलता माना जाएगा कि इस प्रश्न को हाशिये पर रखने में वह अब तक कामयाब है. वरना, इसकी जड़ों में जाने की कोशिश होती, तो 'आप' के लिए अपनी प्रगतिशील और न्यायप्रिय छवि बना पाना कठिन हो जाता.
'मनुवादी कुंठित मानसिकता'
अरविंद केजरीवाल अब डॉ. आंबेडकर के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं. उनकी पार्टी के नेता ब्राह्मणवाद को ज़हर बताने वाले बाबा साहेब के कथन को उद्धृत करते हैं और आरक्षण विरोध को "मनुवादी कुंठित मानसिकता" का परिणाम बताते हैं.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोगों के विचारों का विकास होता है. उम्र के किसी पड़ाव किसी शख़्स ने जो कहा या किया, वह उससे आगे निकल सकता है.
केजरीवाल अगर आरक्षण विरोधी गुट यूथ फॉर इक्वलिटी के समर्थन और अपने कथित दलित विरोधी रुख से आज आगे निकल गए हैं, तो इसके लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए.
मगर वो सचमुच उस सोच से निकल गए हैं या सियासी मजबूरियों में उन्होंने अपना रुख़ बदला है, यह जानने का हमारे पास कोई माध्यम नहीं है.
चूंकि अस्वीकार्य बयानों के बावजूद कुमार विश्वास को पार्टी में लगातार सहा जा रहा है, इसलिए केजरीवाल के बदले विचारों के बारे में संदेह करने का पर्याप्त आधार बनता है.
'आप' अब अपनी पुरानी आभा खोकर एक आम राजनीतिक दल के रूप में जानी जाने लगी है. लेकिन जब उसकी आभा तेज चमक रही थी और बहुत से लोगों ने उससे परिवर्तन की उम्मीद जोड़ रखी थी, तब भी पार्टी के सिद्धांतकार यह नहीं बताते थे कि 'आप' की नीतियां क्या हैं?
ये वामपंथी हैं या दक्षिणपंथी? इस अहम सवाल पर पर्दा डालने के लिए उन्होंने 'सोल्यूशन बेस्ड पार्टी' होने का ज़ुमला गढ़ा था.
पार्टी नेता कहते थे कि 'आप' समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए अस्तित्व में आई है. इसे जिधर हल दिखेगा, उधर जाएगी.
पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं
पार्टी नेता कहते थे कि 'आप' पूंजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि वह क्रोनी कैपिटलिज्म के ख़िलाफ़ है. 21वीं सदी के दूसरे दशक में आकर कोई पार्टी ऐसी बात कहे, जब यह सिद्ध हो चुका है कि क्रोनीवाद से अलग किसी पूंजीवाद का वजूद कहीं नहीं है, तब इसे लोगों को भ्रम में रखने की कोशिश ही समझा जाएगा.
बहरहाल, सच यह है कि 'सोल्यूशन बेस्ड पार्टी' का तर्क देकर 'आप' जाति व्यवस्था और सामाजिक अन्याय के बारे में अपनी नीति बताने से बचती रही है.
मगर पार्टी की नींव डालने वालों में से एक ने अब पार्टी को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है, जब वह इसे बताए बगैर कुछ ज़ुमलों से लोगों को भरमाए नहीं रख सकती.
कुमार विश्वास का पार्टी में बने रहने का सीधा मतलब होगा कि 'आप' जातिवादी, स्त्री द्वेष की पारंपरिक मानिसकता और एनजीओवादी सोच से आज तक नहीं उबर पाई है.
पूंजीवाद के घोषित समर्थक वो पहले से हैं. ये प्रवृत्तियां दक्षिणपंथी, अनुदारवादी और एक हद तक पुरातनपंथी चरित्र की झलक देती हैं. क्या वर्तमान स्थिति में 'आप' इससे अलग होने का दावा कर सकती है?