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बीजेपी के वोट बढ़े तो सीट कैसे घट गईं?

छह सीटों पर मामूली अंतर से जीते उम्मीदवार, साढ़े पांच लाख वोटरों ने नोटा वोट डाले.

By BBC News हिन्दी
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बीजेपी समर्थक
SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images
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गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टियों के प्रदर्शन की पड़ताल जारी है.

गुजरात में इस बार पिछले विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले तीन फ़ीसदी कम मतदान हुआ. कुल मतदान का 93 फ़ीसदी दोनों मुख्य पार्टियों के हिस्से में गया और बीजेपी 49.1 फ़ीसदी वोट के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.

बीजेपी को गुजरात के शहरी इलाक़ों में मज़बूत माना जाता है. सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार के मुताबिक़, ''पिछले चुनाव में बीजेपी को शहरी इलाक़ों में 59 फ़ीसदी वोट मिले थे और इस बार 57 फ़ीसदी मिले हैं.''

संजय बताते हैं कि ''ग्रामीण इलाक़ों में बीजेपी और कांग्रेस 44-45 फ़ीसदी वोट शेयर के साथ बराबरी पर नज़र आते हैं.''

बीजेपी समर्थक
SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images
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वोट बढ़े लेकिन सीट घटी

बीजेपी का कुल वोटशेयर पिछली बार के मुक़ाबले सवा प्रतिशत बढ़ा लेकिन उनकी सीटें कम हो गईं. 2012 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 115 सीटें हासिल की थीं, जो इस बार घटकर 99 रह गईं.

ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर वोट ज़्यादा मिले तो सीट कैसे घट गईं?

संजय कुमार इसके पीछे सीधी सी वजह यह बताते हैं कि बीजेपी के वोट उन्हीं सीटों पर ज़्यादा बढ़े, जिन पर उनका पहले से क़ब्ज़ा था.

उन्होंने बताया ''जैसे मान लीजिए कि किसी शहरी इलाक़े में जहां बीजेपी पहले 23 हज़ार वोट से जीत रही थी, वहां अब 30 हज़ार से जीत गई. तो उनकी वोटों की गिनती तो बढ़ी लेकिन सीट वही एक रही. चुनाव की भाषा में इसे 'फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट' कहते हैं. बीजेपी के वोटों का एक जगह जमघट रहा यानी वहीं ज़्यादा वोट मिले जहां वो पहले से मज़बूत थी.''

बीजेपी समर्थक
SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images
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उम्मीदवारों की संख्या से भी वोट बंटता है

वोट और सीट की संख्या के बीच के गणित पर उम्मीदवारों की गिनती से भी असर पड़ता है.

एक सीट पर कई उम्मीदवार होते हैं तो वोट बंट जाते हैं. ऐसा भी हो सकता है कि कोई महज़ 20 फ़ीसदी वोट पर ही सीट जीत जाए.

अब जीतता तो एक ही उम्मीदवार है तो बाक़ी उम्मीदवारों को मिले वोट बेकार हो जाते हैं.

ऐसे वोट सीट में भले ही न बदल पाएं लेकिन वोट शेयर की तरह उम्मीदवार या उनकी पार्टी के सामने तो दिखते ही हैं, मिसाल के तौर पर 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को वोट तो मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिली.

वहीं, 2008 के कर्नाटक चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस से 30 सीटें ज़्यादा जीतीं जबकि वोट शेयर में मामूली फ़र्क था. यानी जितनी ज़्यादा पार्टी और उम्मीदवार, उतना ही बंटा हुआ वोट शेयर देखने को मिलता है.

वोटों की गिनती
SAM PANTHAKY/AFP/Getty Images
वोटों की गिनती

लाखों वोटरों ने किसी को नहीं चुना

गुजरात चुनाव में इस बार नोटा (NOTA) यानी नन ऑफ़ द अबव (इनमें से कोई नहीं) का प्रतिशत भी काफ़ी रहा. कुल मतदाताओं में से तक़रीबन दो फ़ीसदी (1.8) वोटरों ने वोट तो डाला लेकिन किसी भी उम्मीदवार का चुनाव नहीं किया.

राज्य के साढ़े पांच लाख वोटरों ने नोटा विकल्प का इस्तेमाल किया. इसका मतलब है कि उन्हें अपने क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा कोई भी उम्मीदवार इस लायक नहीं लगा कि उसको जिताया जाए.

ग़ौरतलब है कि इस चुनाव में शामिल पांच पार्टियों का वोटशेयर कुल मतदाताओं का एक फ़ीसदी भी नहीं है. उस नज़रिए से 1.8 फ़ीसदी का ये आंकड़ा काफ़ी अहम है.

कुछ जगहों में तो नोटा वोट की संख्या हार-जीत के अंतर के बराबर या उससे ज़्यादा है. गोधरा में जहां बीजेपी सिर्फ़ 258 वोट से जीती है, वहां 3050 नोटा वोट पड़े हैं. इसी तरीक़े से ढोलका में बीजेपी उम्मीदवार 327 वोट से जीते लेकिन 2347 नोटा वोट डले.

स्ट्रॉन्ग रूम की निगरानी करता पुलिस वाला
SAM PANTHAKY/AFP/Getty Images
स्ट्रॉन्ग रूम की निगरानी करता पुलिस वाला

छह सीटों पर जीत-हार के बीच मामूली अंतर

बनासकांठा के दांता में सबसे ज़्यादा 6,461 नोट वोट पड़े. वहीं जेतपुर जहां से कांग्रेस के सुखरामभाई 3152 वोट से जीते हैं वहां 6155 लोगों ने नोटा चुना.

नोटा का विकल्प 2013 के बाद अमल में आया यानी 2012 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में नोटा वोटिंग की सुविधा उपलब्ध नहीं थी.

राज्य की क़रीब 14 सीटों पर कांटे की टक्कर हुई, जिसमें से एक कपराड़ा सीट पर तो जीत महज़ 170 वोटों के अंतर से मिली.

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English summary
How did the seat decrease if BJP votes increased
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