पश्चिम बंगाल में 'नंबर दो' पार्टी कैसे बनी बीजेपी?
पश्चिम बंगाल में उपचुनावों में भाजपा भले ही दोनों सीटें हार गई हो, लेकिन उसके वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी चौंकाने वाली है.
गुरुवार को आए उप-चुनावों के नतीजों में मीडिया ने ज़्यादा तवज्जो राजस्थान की दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट के नतीजों को दी. हालांकि पश्चिम बंगाल की लोकसभा और विधानसभा की एक-एक सीट पर हुए उप-चुनाव के भी नतीजे भी आए और यहां पर भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा.
उलुबेरिया लोकसभा और नोआपाड़ा विधानसभा सीट पर पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की. इसमें कुछ भी हैरानी भरा नहीं था और तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने ऐसा ही अनुमान लगाया था.
बीजेपी ने दोनों जगहों पर दूसरा स्थान हासिल किया. हालांकि, जीते हुए उम्मीदवारों और बीजेपी को मिले वोटों में बहुत अंतर है.
लेकिन विश्लेषकों का ध्यान जिस बात ने खींचा वो यह है कि बीजेपी के वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी.
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बीजेपी का बढ़ता कद
उलुबेरिया में जहां 2014 के चुनावों में उसका वोट 11.5 फ़ीसदी था वो अब 23.29 फ़ीसदी हो गया है. वैसे ही नोआपाड़ा विधानसभा में 2016 में जहां बीजेपी को 13 फ़ीसदी वोट मिले थे, इस बार उसे 20.7 फ़ीसदी वोट मिले हैं.
हालांकि, सत्तारूढ़ टीएमसी पार्टी का दोनों सीटों पर वोट प्रतिशत भी बढ़ा है.
दूसरी तरफ़ दो मुख्य विपक्षी पार्टियों लेफ़्ट फ़्रंट और कांग्रेस के वोट प्रतिशत में काफ़ी गिरावट आई है.
ऐसा नहीं है कि पहली बार बीजेपी ने राज्य के चुनावों में दूसरा स्थान हासिल किया है.
राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर बिमल शंकर नंदा पश्चिम बंगाल के चुनावी रुझानों पर क़रीबी नज़र रखते हैं. वह कहते हैं, "मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि बीजेपी ने दूसरा स्थान पक्का किया या नहीं. दिलचस्प यह है कि पार्टी ने तेज़ी से कुछ सालों में अपने वोट प्रतिशत को बढ़ाया है."
पिछले साल हुए कोंतई विधानसभा उप-चुनावों में बीजेपी 30 फ़ीसदी वोट प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर रही. अगस्त 2017 में भी निकाय चुनावों में उसने इसी स्थान को सुरक्षित रखा.
कैसे बढ़ रहे बीजेपी के वोट?
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शुभाशीष मोइत्रा कहते हैं, "2016 के विधानसभा चुनावों के बाद बीजेपी का वोट शेयर बढ़ना एक ट्रेंड बन चुका है. वह अब दूसरा स्थान बनाने में सक्षम हो गए हैं. हालांकि, उनके और पहले स्थान में काफ़ी अंतर रहता है. मैं कहूंगा कि बीजेपी के वोट प्रतिशत में इस वृद्धि की वजह टीएमसी विरोधी वोटों का बीजेपी के पक्ष में जाना है."
मोइत्रा आगे कहते हैं, "इससे पहले टीएमसी विरोधी वोट लेफ़्ट या कांग्रेस के खाते में जाते थे. धीरे-धीरे सही लेकिन अब यह बदल रहा है. अगर आप लेफ़्ट और कांग्रेस के कम हुए वोट प्रतिशत को देखेंगे तो आपको बीजेपी का उतना ही वोट प्रतिशत बढ़ा मिलेगा. इसका मतलब है कि मूल रूप से बीजेपी स्थापित दो राजनीतिक ताकतों को खा रही है."
राजनीतिक कार्यकर्ता अक्सर बीजेपी के बढ़ते कद के लिए केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति को ही मानते हैं.
सुभाषीश मोइत्रा कहते हैं, "कुछ हद तक वे संप्रदाय के नाम पर ध्रुवीकरण करने की रणनीति अपनाते हैं. अगर आप हालिया कुछ सांप्रदायिक तनावों की घटना देखें या कुछ रैलियां देखें तो वह हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा की गईं. आप देख सकते हैं कि किस तरह सांप्रदायिक कार्ड खेला जा रहा है. लेकिन बीजेपी के तेज़ी से बढ़ने और चुनाव परिणामों के लिए मैं केवल इस कारण को ज़िम्मेदार नहीं मानता हूं."
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बंगाल में रही हैं हिंदुत्व की जड़ें
वह आगे कहते हैं, "यह राममोहन राय, विद्यासागर और रवींद्रनाथ की धरती है. आप पश्चिम बंगाल की जनता का केवल सांप्रदायिकता के आधार पर ध्रुवीकरण नहीं कर सकते हैं.
हालांकि, प्रोफ़ेसर नंदा मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंदुत्ववाद की जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन से ही गहरी हैं.
उनकी राय है, "यह नया नहीं है. स्वतंत्रता आंदोलन में दिग्गजों द्वारा हिंदुत्व के प्रतीकों का ख़ूब इस्तेमाल किया गया. यह जनसंघ की नाकामी है कि स्वतंत्रता के बाद वह इसको आगे नहीं कर सका. उन्होंने विभाजन या पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों के मुद्दे को कभी नहीं उठाया. वहीं, वामपंथियों ने इन मुद्दों को उठाया और काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त की."
नंदा आगे कहते हैं, "लेकिन 2011 में वामपंथी चुनाव हार गए जो लोग विपक्षी मंच की खोज में लगे थे उन्होंने बीजेपी का दामन थामना शुरू कर दिया."
बीजेपी का संगठन अभी कमज़ोर
बंगाल की राजनीति में बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ ज़रूर रहा है लेकिन पार्टी अभी भी ज़मीनी स्तर पर अपने संगठन का निर्माण कर रही है.
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह स्थानीय संगठन को मज़बूत करने के लिए कई बार समयसीमा तय कर चुके हैं, लेकिन राज्य के नेताओं को इसमें ख़ासी मुश्किल आ रही है.
कभी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सबसे करीबी रहे मुकुल रॉय के बीजेपी में आने के बाद पार्टी का एक धड़ा महसूस करता है कि ज़मीनी स्तर पर संगठन को खड़ा करने में उसे मदद मिलेगी.
रॉय ही वही शख़्स हैं जिन्होंने टीएमसी के संगठन को खड़ा किया है लेकिन वहां ममता बनर्जी की एक छवि थी जिसने संगठन को मज़बूत करने में रॉय को मदद दी. हालांकि, पाला बदलने के बाद भी रॉय नोआपाड़ा विधानसभा चुनाव में अपनी पसंद का उम्मीदवार तक नहीं उतार पाए. दिलचस्प बात यह है कि नोआपाड़ा मुकुल रॉय का घर है.
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