गांधी का गुजरात कैसे बना हिन्दुत्व की प्रयोगशाला?
बीजेपी में गुजरात के 22 साल के शासन में आधे से ज़्यादा शासनकाल मोदी के नाम रहा है.
बात 1991 की है. तब गुजरात में बीजेपी ज़मीन की तलाश में थी. गुजरात में उस वक़्त जनता दल और बीजेपी की साझा सरकार थी.
देश के जाने-माने सोशल साइंटिस्ट आशीष नंदी मोदी का इंटरव्यू लेने गए थे. उनके साथ गुजरात के प्रसिद्ध राजनीति विश्लेषक अच्युत याग्निक और शिखा त्रिवेदी थीं.
अच्युत याग्निक से मैंने पूछा कि वो इंटरव्यू कैसा हुआ था? उन्होंने कहा, ''मोदी का उस वक़्त कोई बड़ा कद नहीं था. वो इंटरव्यू में मुसलमानों के ख़िलाफ़ बोल रहे थे. हमलोग इंटरव्यू के बाद कार में एक साथ आ रहे थे. तभी आशीष नंदी ने अचानक गाड़ी रोक दी और ग़ुस्से में कहा- मैं अभी एक टेक्स्टबुक फ़ासिस्ट से बात करके आ रहा हूं.''
अच्युत याग्निक ने बताया कि जब आशीष ने ये बात कही तो उन्होंने इस बात को कोई गंभीरता से नहीं लिया था. याग्निक इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि उनका इंटरव्यू के दौरान ऐसा कोई आकलन भी नहीं था. याग्निक बताते हैं कि आशीष मनोविज्ञान भी अच्छी तरह से समझते हैं, इसलिए वो ज़्यादा दूरदर्शी थे.
गुजरात में मोदी युग
महात्मा गांधी के राज्य में भारतीय जनता पार्टी की जड़ें इतनी मज़बूत कैसे हुए हुईं? ज़ाहिर है इन जड़ों को मज़बूत करने में मोदी ने गुजरात में सबसे ज़्यादा वक़्त दिया है.
मोदी अक्टूबर 2001 से 22 मई 2014 तक मुख्यमंत्री रहे. मोदी ने अपने नेतृत्व में प्रदेश के तीन विधानसभा चुनाव बहुमत के साथ जीते. बीजेपी के गुजरात के 22 सालों के शासन में मोदी के नाम आधा से ज़्यादा शासनकाल रहा है.
अगर मोदी के शासनकाल को गुजरात से निकाल दिया जाए तो इस सवाल का कोई मतलब नहीं रहेगा कि गुजरात में बीजेपी की जड़ें इतनी मजबूत कैसे हुईं? मोदी ने 2014 के आम चुनाव में भी गुजरात की सभी 26 सीटों पर जीत दर्ज़ की थी.
सुरेश मेहता को बीजेपी ने अक्टूबर 1995 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया था. वो सितंबर 1996 तक सीएम रहे थे. मैंने सुरेश मेहता से पूछा कि गुजरात में मोदी युग भारतीय जनता पार्टी के शासन का कम से कम 70 फ़ीसदी है, इसे वो कैसे देखते हैं?
उन्होंने कहा, ''पूरा शासनकाल निरंकुश रहा है. मोदी का जो तेवर है, वो हिटलशाही की तरह है. प्रचारतंत्र का जाल, किसी भी क़ीमत पर सत्ता और हर विभागों का ग़लत तरीक़े से संचालन ही मोदी युग है.''
'डर, डर और डर के साए में जीना होगा'
मोदी युग में बीजेपी कहां जाएगी? मेहता कहते हैं, ''मुझे तो डर है कि एक हत्थु शासन आ जाएगा और हर इंसान को डर, डर और डर के साए में जीना होगा.''
मेहता कहते हैं कि इस बार के चुनाव में लोगों की नाराज़गी तो है, लेकिन वो किस हद तक जाएगी इसे अभी देखना बाक़़ी है.
मेहता को लगता है कि बीजेपी चुनाव इस बार भी जीत जाती है तो जैसा मोदी का जैसे पहले कद था वैसा नहीं रहेगा. मेहता कहते हैं, ''मोदी अब बचाव की मुद्रा में आएंगे.''
उन्होंने कहा कि बीजेपी के भीतर से आवाज़ डर के कारण नहीं आती है.'' मेहता ने कहा कि उन्होंने डर के साये से बाहर निकलने के लिए ही पार्टी छोड़ी.
सुरेश मेहता के इन आरोपों को बीजेपी नेता भरत पंड्या ने सिरे से ख़ारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि बीजेपी की जड़ें विकासवादी नीति के कारण मजबूत हुई है. सायना एनसी ने भी भरत की बातों का समर्थन करते हुए मेहता के आरोपों को अनर्गल बताया.
गुजरात का 'गांधीयुग'
गुजरात में बीजेपी ने सत्तर के दशक में ही पांव पसारना शुरू कर दिया था. कई राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि जब तक प्रदेश में महात्मा गांधी का प्रभाव रहा तब तक बीजेपी नेपथ्य में रही.
गुजरात यूनिवर्सिटी में सोशल साइंस के प्रोफ़ेसर गौरांग जानी कहते हैं, ''गुजरात में गांधी का प्रभाव सभी वर्गों पर जबर्दस्त था. गुजरात की महिलाओं पर भी गांधी का प्रभाव था.''
''अहमदाबाद की टेक्सटाइल इंडस्ट्री को उस ज़माने में मैनचेस्टर माना जाता था. इसको गांधी ने संगठित करवाया था. यह 1920 की बात है और तीन साल बाद इसके सौ साल हो जाएंगे. गांधी ने गुजरात विद्यापीठ बनाई और इसकी उम्र भी सौ साल हो जाएगी.''
''कई सारे आवासीय स्कूल बनाए. कई महिला संगठनों को खड़ा किया गया. इसीलिए आज़ादी के बाद जब कांग्रेस की सरकार आई तो हिंदुत्व और संघ परिवार वाली राजनीति गुजरातियों को रास नहीं आई.''
गांधीवाद का प्रभाव शिक्षा, साहित्य और शासन प्रणाली में भी थी. उस वक़्त को गांधीयुग कहा जाता था. साहित्य को भी गांधीयुगीन साहित्य कहा जाता था.
गुजरात में संघ का प्रवेश
1960 में गुजरात एक अलग राज्य बना था. इससे पहले बॉम्बे से शासित होता था. गुजरात के गठन से लेकर कांग्रेस पार्टी के आने तक आरएसएस कुछ नहीं कर पाया.
आख़िर संघ की राजनीति को इस राजनीति में जगह कब मिली? गौरांग जानी कहते हैं, ''गुजरात में अब तक नियमित अंतराल पर दंगे हए हैं? एक 1969 में हुआ. तब कांग्रेस की ही सरकार थी और हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री थे.''
''दूसरा दंगा 1985 में हुआ, तीसरा 1992 में हुआ और उसके बाद 2002 में हुआ. दूसरी बात ये कि दो आरक्षण विरोधी आंदोलन हुए. एक 1981 में और दूसरा 1985 में.''
''इसी बीच नवनिर्माण आंदोलन शूरू हुआ. इसमें 20 साल के युवाओं ने जबर्दस्त प्रदर्शन किया था. यहां तक कि 1974 के नवनिर्माण आंदोलन को भी अहमदाबाद में दो तीन जगहों पर संघ परिवार ने सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की थी, लेकिन तब कामयाबी नहीं मिली थी.''
आख़िर ऐसा क्या हुआ कि गांधी की विचारधारा में पले-बढ़े लोगों को जनसंघ की विचारधारा रास आने लगी?
गौरांग जानी कहते हैं कि गांधी की विचारधारा का कांग्रेस ने शुरूआत में पालन किया, पर गुजरात के जो आभिजात्य गांधी से प्रभावित थे उनकी सवर्ण मानसिकता 1960 के बाद सामने आई.
गुजरात में ब्राह्मण महज एक फ़ीसदी हैं और ये भूस्वामी नहीं हैं. दूसरे राज्यों में ब्राह्मण भूस्वामी के रूप में हैं. गुजरात में दूसरा प्रभाव जैनों का था और वो आज भी है.
जानी कहते हैं, ''उस ज़माने में जैनों की पहचान हिन्दू से अलग नहीं थी. गुजरात में आभिजात्यों की सोच यही एक फ़ीसदी ब्राह्मण और जैनियों के प्रभाव में विकसित हुई.
''जैन गुजरात में दश्मलव पांच फ़ीसदी भी नहीं हैं, लेकिन आर्थिक रूप से ताक़तवर पहले भी थे और आज भी हैं. अहमदाबाद की पूरी टेक्सटाइल इंडस्ट्री उनके हाथ में थी. आज की तारीख़ में जैनियों की साक्षरता दर 97 फ़ीसदी है. पर इनकी शिक्षा ज्ञान परंपरा का हिस्सा नहीं रही है.''
''गुजरात में तो गांधी के बाद नॉलेज ट्रेडिशन पूरी तरह से ग़ायब है. हम कह सकते हैं कि इस मामले में गुजरात काफ़ी ग़रीब है.''
यह दिलचस्प है कि गुजरात में जैनिज़म के साथ ही स्वामीनारायण संप्रदाय ने पांव फैलाया. कई लोगों का मानना है कि गुजरात में ब्राह्मण संस्कृति नहीं बल्कि जैन संस्कृति हावी रही है.
पटेलों का प्रभाव
स्वामीनारायण संप्रदाय वैष्णव पंथ को मानते हैं. जब स्वामीनारायण संप्रदाय ने गुजरात में अपने प्रभाव का विस्तार किया तो जैनियों को रास नहीं आया.
प्रोफ़ेसर जानी कहते हैं कि स्वामीनारायण संप्रदाय ने सौराष्ट्र में पिछड़ी जातियों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया. पटेल भी ब्राह्मण पंरपरा के हिस्सा नहीं थे.
सेंटर फोर नॉलेज एंड एक्शन के अच्युत याग्निक कहते हैं कि वर्णव्यवस्था में पटेलों की गिनती भी शुद्रों में होती है. याग्निक कहते हैं कि ऐसे में पाटीदार भी स्वामीनारायण के खेमे में आए.
पटेलों में एक कहावत है कि पटेलों का कोई पटेल नहीं होता है. मतलब पटेल अपने मन से चलते हैं. 19वीं शताब्दी में पाटीदार स्वामीनारायण संप्रदाय से जुड़ गए और वो ब्राह्मण परंपरा से अलग हो गए.
इसका असर गुजरात की राजनीति पर क्या पड़ा? प्रोफ़ेसर जानी कहते हैं, ''स्वामीनारायण संप्रदाय का मत है कि महिलाओं को मत देखो. महिलाओं को मंदिर में मत आने दो.''
''गुजरात के साथ दिलचस्प बात यह है कि ग़ैर-गुजराती संत यहां ख़ूब कामयाब हुए. गुजरात का तो एक ही संत था गांधी जो आज असफल है. स्वामीनारायण और पाटीदारों का संबंध इतना मज़बूत हुआ कि पाटीदारों के हाथ में ही पूरा संप्रदाय आ गया. बीजेपी के लिए स्वामीनारायण संप्रदाय गांधी को बाहर करने में ढाल बना.''
आरक्षण के ख़िलाफ़ ऊंची जातियों को किया एकजुट
गुजरात में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए जब आरक्षण शुरू हुआ तो ऊंची जातियों को लगा कि यह ठीक नहीं है. लोगों को लगा कि कांग्रेस आरक्षण का समर्थन करती है.
जानी कहते हैं कि 1981 में आरएसएस ने आरक्षण के ख़िलाफ़ ऊंची जातियों के साथ पैर जमाना शुरू कर दिया. जानी बताते हैं, ''उस वक़्त में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोदी तक का बयान देख लीजिए तो ये ऊंची जातियों को संबोधित कर रहे थे.''
''पटेलों को भी रिजर्वेशन नहीं था और उन्हें भी आरएसएस की पहल रास आई. कांग्रेसी चिमनभाई पटेल काफ़ी भ्रष्ट मुख्यमंत्री माने जाते थे और कांग्रेस ने आरक्षण के मुद्दे को भी ठीक से सामना नहीं किया. जैसे-जैसे कांग्रेस गांधी की विरासत छोड़ती गई वैसे-वैसे बीजेपी हावी होती गई.''
इसके बाद रामजन्भूमि आंदोलन शुरू हुआ और कांग्रेस इसे भी ठीक से नहीं संभाल पाई. फिर 2002 का दंगा हुआ और बहुसंख्यक समुदाय का ध्रुवीकरण शुरू हुआ.
प्रोफ़ेसर जानी कहते हैं कि 2002 के दंगे के बाद यूनिवर्सिटी में एक भी सेमिनार नहीं हुआ, गुजरात में 2002 के दंगे का न तो स्वामीनारायण संप्रदाय ने विरोध किया और न ही मुरारी बापू जैसे लोगों ने.
दिलचस्प है कि चुनाव में हमेशा से बीजेपी की रीढ़ रहे पाटीदार इस बार बड़ी संख्या में हार्दिक पटेल के साथ लामबंद हैं और उन्हें कांग्रेस रास आ रही है. किसी के पांव जमने का तरीक़ा और उखड़ने का तरीक़ा कई बार इसी पैटर्न में होता है.