महाराष्ट्र में सिर्फ 5 साल में शिवसेना के Big Boss के रोल में कैसे आ गई BJP? जानिए
नई दिल्ली- महाराष्ट्र की राजनीति समझने वाले लोग जानते हैं कि अगर पांच साल पहले कोई ये कहता कि राज्य में एक दिन शिवसेना की सीटें बीजेपी तय करेगी तो उसपर कोई भरोसा नहीं करता है। 2014 के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों का गठबंधन इसलिए टूट गया था कि उद्धव ठाकरे बीजेपी को राज्य की आधी यानि 144 सीटें देने के लिए भी राजी नहीं हुए थे। लेकिन, आज महाराष्ट्र की भगवा राजनीति में सियासत का चक्र 360 डिग्री घूम चुका है। 2019 में शिवसेना 124 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और बीजेपी 150 सीटों पर चुनाव मैदान में है। यानि, स्पष्ट तौर पर बीजेपी और प्रदेश में उसके नेता मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बड़े भाई की भूमिका में हैं और उद्धव को उनकी बातें माननी पड़ रही हैं। हम ये नहीं कह सकते कि शिवसेना के नेता बीजेपी के सामने झुकने को मजबूर हो गए हैं। लेकिन, इतना तो कहना ही पड़ेगा कि वे पांच साल बाद ही सही जमीनी हालातों को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने लगे हैं। आइए समझते हैं कि बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना बीजेपी के प्रभुत्व को मानने के लिए मजबूर क्यों हो चुकी है?
2014 के पहले और उसके बाद की भगवा राजनीति
2014 से पहले तक महाराष्ट्र की भगवा राजनीति का झंडा शिवसेना के हाथों में रहा। लोकसभा चुनावों में बीजेपी उससे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भी और पार्टी की कमान अटल और आडवाणी जैसे कद्दावर नेताओं ने भी संभाली, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना ही बीजेपी की बिग ब्रदर बनी रही। इसका सबसे बड़ा कारण खुद शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे थे। प्रदेश की राजनीति में उनका कद इतना ऊंचा था कि बीजेपी ने शायद कभी बड़े भाई बनने का सपना देखना भी ठीक नहीं समझा। जबकि, 2014 से पहले भी कई लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने प्रदेश में काफी अच्छा प्रदर्शन करके दिखाया था। 1989 में पार्टी जनता दल के साथ चुनाव लड़ी थी और उसे 10 सीटें मिलीं। 1993 के मुंबई धमाकों के बाद 1995 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के साथ मिलकर लड़ी शिवसेना को ऐतिहासिक जीत मिली और एक तरह से तभी से भाजपा प्रदेश में एनडीए का नेतृत्व शिवसेना को दे बैठी। 1996 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी 18 और शिवसेना 15 सीटों पर जीती, लेकिन वह जूनियर पार्टनर ही बनी रही। लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से राज्य की भगवा राजनीति ने महत्वपूर्ण परिवर्तन को महसूस करना शुरू कर दिया। ये दौर बालासाहेब, अटल और आडवाणी से अलग था। यहां से मोदी और फडणवीस का दौर शुरू हो चुका था। बीजेपी 23 और शिवसेना 18 सीटों पर विजयी रही थी। यहीं से बदलाव शुरू हुआ और भाजपा ने शिवसेना के क्षेत्रीय वर्चस्व को चुनौती देना शुरू कर दिया। शिवसेना के दबाव को नामंजूर करते हुए बीजेपी अक्टूबर, 2014 में विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ी और उसने शिवसेना से अपना लोहा मनमाना शुरू कर दिया। आज बीजेपी शिवसेना की बिग बॉस की भूमिका में नजर आ रही है तो उसके मुख्य रूप से चार कारण माने जा सकते हैं, जिसपर हम आगे चर्चा कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की छवि
1972 में महाराष्ट्र के तत्कालीन सीएम वसंतराव नाइक के बाद देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री हैं, जो पांच साल का अपना पूरा कार्यकाल पूरा करने जा रहे हैं। अपने विकासवादी छवि के चलते उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपना कद इतना ऊंचा कर लिया है, जितना अभी तक बालासाहेब ठाकरे और शरद पवार के अलावा कोई नहीं बना पाया है। इसबार का चुनाव भी मुख्य रूप से सत्ताधारी गठबंधन उन्हीं के चेहरे के दम पर लड़ रहा है। अपने दम पर उन्होंने पिछले पांच साल में पूरे महाराष्ट्र के सर्वमान्य नेता के रूप में खुद को स्थापित किया है। ये बात उनकी महा जनसंदेश यात्रा में भी देखा जा सकता है।
बीजेपी का लगातार बढ़ता जनाधार
आज महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी, बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना की बिग बॉस नजर आ रही है। अगर ऐसा न होता तो 2014 में उसे 144 सीटें देने के लिए भी राजी नहीं हुए उद्धव इसबार अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं का भारी विरोध झेलकर भी अपनी पार्टी के लिए महज 124 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए क्यों तैयार हो गए? जबकि, भाजपा न केवल उससे कहीं ज्यादा 150 सीटों पर चुनाव मैदान में है, बल्कि बाकी 14 सीटें भी बीजेपी के खाते से छोटी सहयोगी पार्टियों को दी गई हैं, जिसमें से कई तो 'कमल' निशान के साथ ही ईवीएम पर भी नजर आएंगी। जाहिर है कि शिवसेना को बीजेपी के बढ़ते हुए जनाधार का अंदाजा है, इसलिए उन्होंने जमीनी हालातों को स्वीकार करने में ही भलाई समझी है।
विपक्षी दलों का खिसकता जनाधार
आज अगर ये कहा जाय कि महाराष्ट्र की दोनों प्रमुख विपक्षी पार्टियां कांग्रेस और एनसीपी राज्य में अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं तो इसमें गलत नहीं है। राज्य में लागातार 15 साल सत्ता में रहने वाली पार्टियों को इसबार मजबूत उम्मीदवार तलाशने के लिए भी कड़ी संघर्ष करनी पड़ी है। पार्टी के आला से लेकर अदना नेता और कार्यकर्ता तक शिवसेना-बीजेपी का झंडा उठा चुके हैं। दोनों पार्टियों में जो बड़े नेता बचे हुए हैं वे या तो विरोधी गुट के उम्मीदवारों को हराने के दांव में लगे हैं या फिर जो चुनाव लड़ रहे हैं, उनका सारा ध्यान किसी तरह अपनी सीट बचाने पर ही टिका हुआ है।
राज्य की राजनीति में आया बदलाव
अगर ये कहें कि देवेंद्र फडणवीस ने राज्य में वही रणनीति अपनाई है, जो केंद्र में नरेंद्र मोदी अपनाकर चल रहे हैं तो महाराष्ट्र की वर्तमान स्थिति की ज्यादा सटीक व्याख्या की जा सकती है। वर्तमान समय में राज्य में जातिवादी राजनीति का असर कम हुआ लगता है। केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं ने सियासत को एक नई दिशा दी है। व्यक्तिवाद और परिवारवाद का प्रभाव स्पष्ट तौर पर कम हुआ है। इसका सीधा लाभ सीधे बीजेपी और देवेंद्र फडणवीस को मिल रहा है। यही नहीं जिस हिंदुत्व की राजनीति को लेकर अबतक शिवसेना चल रही थी, भाजपा ने उसमें राष्ट्रवाद का भी ऐसा रंग चढ़ाया है कि शिवसेना के भगवे झंडे पर बीजेपी के भगवा ध्वज का असर ज्यादा हो रहा है। हालांकि, शिवसेना ने आदित्य ठाकरे को उतारकर एक नया प्रयोग करने की कोशिश की है और इसलिए 21 अक्टूबर की वोटिंग के बाद 24 अक्टूबर का इंतजार रहेगा कि क्या उद्धव बिग बॉस वाला तमगा फिर से अपने वापस छीनकर ला पाते हैं?