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पिछले 5 सालों में कैसे-कैसे बदली अरविंद केजरीवाल की राजनीति?

दिल्ली के जंतर-मंतर पर तिरंगा लहराकर जन लोकपाल क़ानून की मांग करने वाले अरविंद केजरीवाल आज दिल्ली की राजनीति के शीर्ष पर होंगे, ये किसने सोचा था। लेकिन वक्त का पहिया घूमा और एक आंदोलन देखते ही देखते राजनीति पार्टी में बदल गया। आज अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में सत्ता पर क़ायम है और आने वाले चुनाव में भी पूरी टक्कर दे रही है।ची आम आदमी पार्टी.

By BBC News हिन्दी
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नई दिल्‍ली। दिल्ली के जंतर-मंतर पर तिरंगा लहराकर जन लोकपाल क़ानून की मांग करने वाले अरविंद केजरीवाल आज दिल्ली की राजनीति के शीर्ष पर होंगे, ये किसने सोचा था। लेकिन वक्त का पहिया घूमा और एक आंदोलन देखते ही देखते राजनीति पार्टी में बदल गया। आज अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दिल्ली में सत्ता पर क़ायम है और आने वाले चुनाव में भी पूरी टक्कर दे रही है।

अरविंद केजरीवाल
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अरविंद केजरीवाल

पांंच साल पहले जब ये पार्टी ज़बरदस्त बहुमत के साथ जीतकर आई तो उससे पहले तीन बार कांग्रेस सत्ता में रह चुकी थी और बीजेपी उफान पर थी। इन दो बड़ी पार्टियों के बीच में देश की राजधानी में किसी नई पार्टी का इस तरह उभरना नामुमकिन सा लगता था, लेकिन ऐसा हुआ और ये कैसे हुआ, ये जानने के लिए हमें जाना होगा साल 2011 में, जब सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जन आंदोलन खड़ा हुआ था।

इस आंदोलन में अरविंद केजरीवाल, वरिष्ठ वकील शांति भूषण, उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण, किरन बेदी, जनरल वीके सिंह, योगेंद्र यादव, कुमार विश्वास जैसे कई चहरे मुख्य भूमिका निभा रहे थे।

अरविंद केजरीवाल
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अरविंद केजरीवाल

लेकिन लंबे वक्त तक चले आंदोलन, सरकार से कई दौर की बातचीत और भूख हड़ताल के बावजूद भी ये आंदोलन अपना मक़सद पूरा नहीं कर सका। जिस तरह के जन लोकपाल बिल की मांग की गई थी, वो नहीं बन पाया। इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने ऐलान किया कि वो एक राजनीतिक पार्टी बनाएंगे। यहीं से अरविंद केजरीवाल की राजनीति का बीज पड़ा और 2 अक्टूबर 2012 को आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई।

लेकिन राजनीतिक पार्टी बनाने के फ़ैसले पर सवाल भी उठा। अन्य पार्टियों का कहना था कि केजरीवाल ने आंदोलन ही राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए किया था। अन्ना हज़ारे भी राजनीतिक पार्टी के पक्ष में नहीं थे। हालांकि, अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों का कहना था कि देश को भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाने का यही तरीक़ा है कि वो राजनीति में जाएं और सरकार में घुसकर सिस्टम को अंदर से साफ़ करें।

2013 के अंत में आम आदमी पार्टी चुनावी मैदान में उतरी और सबको चौंकाते हुए पहली ही बार में दिल्ली की 70 में से 28 सीटों पर बाज़ी मार ली। अरविंद केजरीवाल ने तीन बार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को नई दिल्ली विधान सभा क्षेत्र से रिकॉर्ड अतंर से हराया। हालांकि, बहुमत ना मिलने की वजह से उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर ही दिल्ली की सरकार बनाने का फ़ैसला किया।

इसपर कई लोगों ने हैरानी जताई कि आम आदमी पार्टी चुनाव में जिस कांग्रेस के ख़िलाफ़ लड़ी, फिर उसी के साथ मिलकर सरकार भी बना ली। अरविंद केजरीवाल इस गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन ये सरकार सिर्फ़ 49 दिन ही टिक सकी। सरकार में अंतर्विरोध सामने आए और अरविंद केजरीवाल ने फ़रवरी 2014 में ये कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि दिल्ली विधानसभा में संख्या बल की कमी की वजह से वो जन लोकपाल बिल पास कराने में नाकाम रहे हैं, इसलिए फिर से चुनाव बाद पूर्ण जनादेश के साथ लौटेंगे।

अरविंद केजरीवाल
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अरविंद केजरीवाल

इसके बाद वो हुआ, जो किसी ने नहीं सोचा था। जिस पार्टी की उम्र महज़ क़रीब दो साल थी, उसने 2015 में दिल्ली की राजनीति में इतिहास रचते हुए 70 में से 67 सीटें जीत ली थीं। जिस पार्टी के पास कुछ नहीं था, अब उस पार्टी ने लगभग पूरी दिल्ली के दिल को जीत लिया था। लेकिन आज पाँच साल बाद इस पार्टी का बहुत कुछ दांव पर लगा है, विधान सभा चुनाव में पार्टी को सबसे ज़रूरी अपनी सत्ता बचानी है। विश्लेषकों का मानना है कि ये चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए वर्चस्व, स्थायित्व और अस्तित्व का चुनाव है।

विश्लेषकों का कहना है कि 2020 की ये चुनावी लड़ाई वैसी नहीं होगी, जैसी 2015 में थी। उनका कहना है कि 2015 में आम आदमी पार्टी सबसे ऊपरी पायदान पर दिख रही थी, लेकिन अब वो उससे नीचे उतर आई है और लगता है लड़ाई अब बराबरी की होगी। लेकिन पिछले पाँच सालों में ऐसा क्या-क्या बदला, जिससे ये कहा जाने लगा है।

आम आदमी पार्टी की राजनीति पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, "आंदोलन से निकली ये पार्टी व्यवस्था परिवर्तन और नई क़िस्म की राजनीति करने के वादे के साथ आई थी। देश भर में लोगों को उम्मीद बंधी थी कि भारतीय राजनीति में एक मौलिक बदलाव आएगा। 2015 में आम आदमी पार्टी जीती तो राहुल गाधी ने एक बयान दिया था कि हमें आम आदमी पार्टी से सीखना चाहिए।"

सभी पार्टियों को लग रहा था कि हमें अपने काम-काज का तरीक़ा, राजनीति करने का तरीक़ा बदलना चाहिए। लेकिन अब विश्लेषकों का कहना है कि अरविंद केजरीवाल वही कर रहे हैं, जो बाक़ी राजनीतिक दल करते हैं। इसके पीछे वो कई वजहें बताते हैं।

जनलोकपाल का मुद्दा

प्रमोद जोशी कहते हैं कि ये पार्टी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन से निकली थी, इसलिए लगा था कि इस पार्टी का मूल या केंद्रीय विषय भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई होगा, "लेकिन अब ये पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बात नहीं करती है।" शुरूआती दौर में भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आम आदमी पार्टी आक्रामक थी। एक वक्त केजरीवाल लिस्ट जारी करते थे कि देश में कौन-कौन से भ्रष्ट नेता हैं। केजरीवाल कहते थे कि अपने वीडियो कैमरे का इस्तेमाल कीजिए और जहां भी कोई भ्रष्टाचार करता हुआ मिले, कोई सरकारी कर्मचारी पैसा मांगता हुआ मिले तो उसकी वीडियो बनाइए और हमें भेजिए।

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "लेकिन पिछले पाँच साल में उन्होंने भ्रष्टाचार पर कोई बात नहीं की। भ्रष्टाचार अब उनके लिए मुद्दा नहीं रह गया है। पहले इन्होंने कहा कि पूर्ण बहुमत मिलने पर जन लोकपाल क़ानून लाएंगे। लेकिन आजतक वो हो नहीं सका। उल्टा आप पार्टी के कई लोगों पर भ्रष्टाचार समेत कई आरोप लगे।"

लेकिन वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे इससे अलग राय रखते हैं। वो कहते हैं कि जो पार्टी पाँच साल सत्ता में रहती हो और चुनाव पर चुनाव लड़ी हो, उसके साथ थोड़े-बहुत विवाद होते ही हैं। उनके मुताबिक़ आम आदमी पार्टी अर्बन गवर्नेंस का आश्वासन लेकर राजनीति में आई थी, बाक़ी चीज़ें करने की बात वैकल्पिक थी।

अभय कहते हैं, "मुख्य बात थी कि वो महानगर में अर्बन गवर्नेंस लेकर आएंगे। इसलिए जब उनका पहला बजट आया, तो उसमें ज़्यादातर पैसा सोशल सेक्टर जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन में ख़र्च करने के लिए दिया गया, जिससे वो दूसरी राज्य सरकारों से अलग हो गए।" वो कहते हैं कि आम आदमी पार्टी की आज की लोकप्रियता का कारण ही यही है कि उन्होंने सोशल सेक्टर के ऊपर पैसा ख़र्च किया और अपने वादों को ठीक से निभाया

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

'आम आदमी' की पार्टी

अरविंद केजरीवाल हमेशा से कहते रहे हैं कि ये सिर्फ़ नाम से ही नहीं, बल्कि असल में भी आम आदमी की पार्टी है। प्रमोद जोशी कहते हैं, "शुरू में ये पार्टी जनता के बीच जाती थी। 2014 की शुरुआत में जब सरकार बनानी थी तो इस पार्टी ने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने समर्थन दे दिया है, फिर भी हम जनता के बीच में जाएंगे और उनसे पूछेंगे। पार्टी ने दिल्ली में कई जगह लोगों के बीच जाकर सवाल किए, बहस चलाई और आख़िर में मान लिया कि जनता ने सरकार बनाने का आदेश दिया है। पार्टी ने कहा था कि वो सिर्फ़ अपने मसलों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने प्रत्याशियों का चयन भी जनता से पूछकर करेगी लेकिन अब ऐसा नहीं है।"

लेकिन अभय दुबे कहते हैं कि सौ फ़ीसदी तो कोई भी अपनी कही बातों पर अमल नहीं करता, लेकिन हमें ये देखना चाहिए कि ग्लास कितना भरा या कितना ख़ाली है। वो कहते हैं, "अगर तराज़ू पर तौला जाए तो पाएंगे कि आम आदमी पार्टी ने आम तौर पर लोगों को राहत पहुंचाने का काम किया। शिक्षा के क्षेत्र में, स्वास्थ्य के क्षेत्र में, लोगों को बिजली पानी के सवाल पर, आर्थिक रियायतें देने के सवाल पर काफ़ी अच्छा काम किया है। डोर टू डोर सेवा से घर-घर में जाकर सुविधा दी है। कई तरह के काम अच्छे किए हैं। इससे उनका जनाधार अपनी जगह पर क़ायम है।"

दूसरे विश्लेषक भी मानते हैं कि आम आदमी पार्टी की लोगों को सहूलियत देने की नीतियों से कई आम लोगों को फ़ायदा हो रहा है, लेकिन कितना फ़ायदा हो रहा है, इसकी पड़ताल करने की ज़रूरत भी है। उनके मुताबिक़ ये देखना चाहिए कि क्या सभी स्कूलों में शिक्षा बेहतर हुई है, सभी मोहल्ला क्लीनिक सही तरीक़े से चल रहे हैं आदि।

उनका मानना है कि फ्री बिजली-पानी की स्कीम कुछ लोगों को ख़ुश तो कर रही है, लेकिन ये लंबे वक्त तक कितना काम करेगी ये देखना होगा, क्योंकि वक्त के साथ जनता की उम्मीदें बढ़ेंगी और ये सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी करेगा।

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

राजनीति की रणनीति बदली

विश्लेषकों का कहना है कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति करने का तरीक़ा भी बदला है। प्रमोद जोशी कहते हैं, "ये पार्टी शुरू में ही कहती थी कि हम ना तो कभी कांग्रेस के साथ जाएंगे, ना बीजेपी के साथ जाएंगे। इसका मतलब था कि ये पार्टी जो परंपरागत राजनीति है उनके साथ जाने को तैयार नहीं है। इन्होंने कांग्रेस के नेताओं और बीजेपी के नेताओं पर कई तरह के आरोप भी लगाए थे। कई नेताओं की लिस्ट जारी कर उन्हें भ्रष्ट क़रार दिया गया। लेकिन कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार भी बनाई और लोक सभा में भी गठबंधन की पूरी कोशिश की। बीजेपी को मिलकर हराने की बात करने वाले विपक्षी पार्टियों के साथ मंच साझा करके हुए भी केजरीवाल को देखा गया है।"

उनके मुताबिक़ एक वक़्त ऐसा लग रहा था कि अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी से सीधा मुक़ाबला करना चाहते हैं। उन्होंने मोदी को लेकर कई व्यक्तिगत तौर पर कड़े बयान भी दिए थे। वाराणसी से 2014 के आम चुनाव में उनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने भी गए थे। लेकिन अरविंद केजरीवाल अब ऐसे बयान नहीं देते उन्होंने मानहानि के कई मुक़दमों में अपने शब्द वापस लिए और माफ़ी भी मांगी। प्रमोद जोशी के मुताबिक़, पिछले सात आठ महीनों से पार्टी विवादों से बचने का प्रयास कर रही है और सारा ज़ोर अपने काम पर दे रही है।

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

विश्लेषक कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल की एक विशेषता है जिसे अच्छाई कहिए या बुराई, कि वो कई बार अकसर अपनी ग़लती को महसूस कर लेते हैं और माफ़ियां भी मांगते हैं, जनता के बीच जाकर भी और लोगों से भी। वहीं अभय दुबे कहते हैं, "केजरीवाल की राजनीति करने की शैली अलग थी और आज भी दूसरी पार्टियों से थोड़ी अलग है। उनका मानना है कि हिंदुस्तान में एक राजनीति ढर्रा है और हर दल को धीरे-धीरे उस ढर्रे से ताल मेल बैठाना पड़ता है और अरविंद केजरीवाल ने भी शायद इस ढर्रे के साथ अपना समायोजन निकाला है।"

उनका कहना है कि अरविंद केजरीवाल रणनीति रूप से मुद्दों पर बोलते हैं, "पहले वो हर बात पर ज़ोर से बोलते थे, उसपर उनके बहुत झगड़े होते थे, तनाव पैदा होता था. इससे काम में बाधा पड़ती थी। अब वो रणनीति के तौर पर जहां ज़रूरी होती है, उसी बात पर बोलते हैं. वर्ना बाक़ी चुप रहते हैं।"

प्रमोद जोशी मानते हैं, "केजरीवाल को शायद देर से ये बात समझ आई कि इस तरह की शब्दावली काफ़ी ख़तरनाक है। शायद उनको ये समझ में आया कि ऐसी शब्दावली का प्रयोग करना जनता पर बहुत अच्छा असर नहीं डाल रहा।" "इसके अलावा 2015 में तो पार्टी को भारी जीत मिली, लेकिन उसके बाद उप चुनाव या नगर निगम चुनाव में पार्टी पिछड़ी। और फिर लोक सभा चुनाव में भी पार्टी सफल नहीं हुई, इससे उन्हें ये समझ आया कि हमें अपनी रणनीति में बदलाव करना चाहिए। और पिछले लगभग एक साल से अरविंद केजरीवाल कोई ऐसा बयान नहीं देते जो काफ़ी टकराव वाला हो या बहुत कड़वा क़िस्म का हो तो ये भी एक रणनीति है।"

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

इसके बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार की सर्जिकल स्ट्राइक और कश्मीर से 370 हटाने के फ़ैसले का समर्थन भी किया। दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा चाहने वाले केजरीवाल के इस विरोधाभासी बयान पर हैरानी भी जताई गई। ये भी कहा जाता है कि आम आदमी पार्टी को अपनी कोई तय विचारधारा नहीं है। ना वो वामपंथी है, ना दक्षिणपंथी।

लेकिन प्रदीप सिंह कहते हैं कि, "केजरीवाल अवसरवादी राजनीति करते हैं। वो समय और अपनी सहूलियत के अनुसार अपनी विचारधारा का चुनाव करते हैं। कभी वो धुर वामपंथी नज़र आते हैं, कभी धुर दक्षिणपंथी नज़र आते हैं। तो कभी मध्यमार्गी नज़र आते हैं।"प्रमोद जोशी कहते हैं कि पार्टी तीर्थ यात्रा योजना करके सॉफ्ट हिंदुत्व भी करती है और मुस्लिमों की राजनीति भी।

लेकिन अभय दुबे का मानना है कि भारत में ज़्यादा वामपंथी होना या ज़्यादा दक्षिण पंथी होना अच्छी बात नहीं है। "और बीच का रास्ता अख़्तियार करना सबसे अच्छा होता है, जो आम आदमी पार्टी करती है।"

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

'एक आदमी की पार्टी'

2015 में जब पार्टी दिल्ली में जीतकर राजनीतिक तौर पर मज़बूत हुई थी, उसके कुछ वक़्त बाद से ही अंदरूनी तौर पर कमज़ोर होने लगी थी। पार्टी में उस वक्त फूट पड़ती हुई दिखी जब प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने केजरीवाल पर "सुप्रीम नेता" की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया। वहीं दूसरी ओर आप की अनुशासन समिति ने "पार्टी-विरोधी गतिविधियों" में शामिल होने का आरोप लगाते हुए भूषण, यादव के अलावा आनंद कुमार और अजीत झा को पार्टी से निकालने की सलाह दी।

आम आदमी पार्टी से लोगों के बाहर जाने की ये शुरुआत थी। इसके बाद आप में कई लोगों के इस्तीफ़े और वरिष्ठ नेताओं की ओर से आलोचनाएं हुईं। आप को उस वक्त भी बड़ा झटका लगा जब पार्टी के एक संस्थापक सदस्य रहे कुमार विश्वास ने केजरीवाल के सर्जिकल स्ट्राइक वाले स्टैंड पर असहमति जताई। इससे दोनों के बीच मतभेद बढ़े। इसके बाद 2018 में राज्य सभा चुनाव के वक्त इन दोनों के रिश्ते और बदतर हो गए।

उस वक्त मीडिया में कुमार विश्वास, आशुतोष और आशीष खेतान को पार्टी की तरफ़ से राज्य सभा में भेजने की चर्चा थी, लेकिन उम्मीदवारी के लिए संजय सिंह, एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता को चुना गया। संसद में आप के प्रतिनिधित्व के लिए चुने गए ये दो गुप्ता कौन थे, ये कम ही लोग जानते थे। बिज़नेसमैन सुशील गुप्ता ने एक महीने पहले ही कांग्रेस छोड़ी थी, हालांकि टॉप चार्टर्ड अकाउंटेंट एनडी गुप्ता पिछले कुछ साल से आप से जुड़े थे। बताया जाता है कि उस वक्त पार्टी फंड की कमी से जूझ रही थी, जिसमें मदद के लिए इन दो गुप्ताओं से आस लगाई गई।

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?

एक वक्त केजरीवाल विश्वास को छोटा भाई कहते थे, लेकिन विश्वास अब केजरीवाल के कड़े आलोचकों में से एक हैं। ऐसे ही कपिल मिश्रा और अलका लांबा भी पार्टी से अलग हो गए कपिल अब बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ेंगे और अलका कांग्रेस में वापस लौट गई हैं। प्रमोद जोशी कहते हैं, "जैसे दूसरी पार्टियों में हाई कमान का स्वरूप है, वैसे ही इस पार्टी के साथ लगता है कि इस पार्टी के सबसे प्रमुख नेता अरविंद केजरीवाल हैं। अब वो दूसरों के बराबर नहीं हैं। उनका विचार ही, उनकी राय ही सबसे ऊपर रहती है"

लेकिन अभय दुबे का कहना है कि शुरू में पार्टी में झगड़े-फ़साद ज़रूर हुए लेकिन ये समझना भी ज़रूरी है कि आप दिल्ली जैसे एक छोटे प्रांत की पार्टी है, जिसके पास पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है। "उनका मानना है कि अगर ऐसी क्षेत्रीय पार्टी में छह बड़े चेहरे होंगे तो राजनीति करना मुश्किल होगा, इसलिए जनता के बीच एक विश्वसनीय चेहरे का जाना ही ठीक है।"

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फ़ोकस बदला

दिल्ली से अपनी पहचान पाने वाली आम आदमी पार्टी ने राजधानी के बाहर दूसरे राज्यों में भी अपने पैर पसारने की कोशिश की। 2014 के आम चुनाव में पार्टी को पंजाब से चार सीटों पर सफलता मिली थी। लेकिन पंजाब में सफलता का जो सूत्र हाथ लगा था, वो धीरे-धीरे उनके हाथ से निकल गया। अंदरूनी वजहों से पंजाब में पार्टी बिखर भी गई।

प्रमोद जोशी कहते हैं, "गोवा के अलावा राजस्थान और उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में भी पार्टी ने क़िस्मत आज़माने की सोची। लेकिन बाद में समझ आया कि इतने कम वक्त में पूरे देश में फैलाव शायद संभव ना हो। इसलिए आख़िर में पिछले लोक सभा चुनाव या उसके आस-पास पार्टी इस निश्चय पर पहुंची लगती है कि फ़िलहाल हमें दिल्ली पर केंद्रित करना चाहिए और ये अच्छी बात भी है। अगर पूरे देश में जाने पर नुक़सान होता हो तो बेहतर है कि पहले जहां अपनी जड़ें बेहतर हैं, वहां रुका जाए।"

पिछले पांच सालों में केजरीवाल की राजनीति कैसे-कैसे बदली?
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अभय दुबे मानते हैं कि राजनीति में अलग-अलग मौक़े पर अलग-अलग नीति अपनानी पड़ती है। "लोक सभा के चुनाव की थीम अलग होती है, इसलिए आप ने वहां गठजोड़ करने की कोशिश की थी। लेकिन विधान सभा के चुनाव में वो ख़ुदमुख्तार है और जीत सकती है, इसलिए गठजोड़ करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है।" फ़िलहाल आठ फ़रवरी को दिल्ली विधान सभा चुनाव हैं और देखना होगा कि आम आदमी पार्टी फिर से अपना करिश्मा दोहरा पाएगी, या फिर सत्ता में आने के लिए संघर्ष करती नज़र आएगी।

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