क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

कॉलेजों में कैसे और क्यों होता है दलित-आदिवासी छात्रों से भेदभाव

मुंबई में मेडिकल की छात्रा डॉक्टर पायल तडवी की ख़ुदकुशी और जातिगत उत्पीड़न के आरोपों के सामने आने के बात कॉलेज कैंपसों में जातीय भेदभाव का मुद्दा भी सामने आया है. इस घटना ने तीन अहम मुद्दों पर बहस छेड़ दी है. ये तीन मुद्दे हैंः उच्च शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव, आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले छात्रों की मानसिक और भावनात्मक परेशानियां.

By जान्हवी मुले
Google Oneindia News
जातीय भेदभाव
Getty Images
जातीय भेदभाव

मुंबई में मेडिकल की छात्रा डॉक्टर पायल तडवी की ख़ुदकुशी और जातिगत उत्पीड़न के आरोपों के सामने आने के बात कॉलेज कैंपसों में जातीय भेदभाव का मुद्दा भी सामने आया है. इस घटना ने तीन अहम मुद्दों पर बहस छेड़ दी है.

ये तीन मुद्दे हैंः उच्च शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव, आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले छात्रों की मानसिक और भावनात्मक परेशानियां, छात्रों की इन परेशानियों को लेकर लोगों का उदासीन रवैया.

पायल तडवी मामले के बाद कई छात्रों ने बीबीसी मराठी के साथ अपनी बातें खुलकर साझा कीं.

मुंबई में मेडिकल फ़र्स्ट इयर की छात्रा क्षितिजा ने बताया, "कुछ लोग कहते हैं कि तुम 'कैटेगरी' से हो. वो हमें ताना मारते हैं और कहते हैं कि तुम नीची जाति के हो, तुम्हें आगे बढ़ने का हक़ नहीं है. लेकिन हमें पढ़ने का हक़ है, हमें समुदाय को आगे ले जाने का हक़ है."

महाराष्ट्र के बीड से ताल्लुक रखने वाले धनंजय मुंबई में सामाजिक विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं. धनंजय उन जातिगत पूर्वाग्रहों का ज़िक्र करते हैं जो उन्होंने देखा और अनुभव किया है.

धनंजय कहते हैं, "हमारे समुदाय की गोरी लड़कियों से अक्सर इस तरह के सवाल किए जाते हैं- तुम इतनी सुंदर हो, तुम दलित कैसे हो सकती हो? ये भी जातिगत भेदभाव का एक उदाहरण है. पायल का मामला मुंबई में होने की वजह से चर्चा में आ गया लेकिन ऐसी न जाने कितनी घटनाएं हैं जिन पर लोगों का ध्यान भी नहीं जाता."

छात्र
Getty Images
छात्र

कैंपस में 'कास्टिज़्म' के अलग-अलग रूप

क्या कॉलेज कैंपसों में जातिगत भेदभाव इतना आम है? स्वतंत्र पत्रकार और बहुजन कार्यकर्ता दिव्या कंडुकुरी इसका जवाब 'हां' में देती हैं. वो कहती हैं, "ये हर यूनिवर्सिटी में है. ऐसे सैकड़ों मामले हैं जिनकी कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई जाती या दर्ज नहीं होती."

दिव्या कहती हैं कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में जातिगत भेदभाव अलग-अलग स्तरों पर हो सकता है. मिसाल के तौर पर- छात्रों और छात्रों के बीच, प्रोफ़ेसर और प्रोफ़ेसर के बीच, छात्रों और प्रोफ़ेसर के बीच.

वो कहती हैं, "बड़े कॉलेजों में जाने वाले दलित-आदिवासी छात्र आम तौर पर पहली या दूसरी पीढ़ी के होते हैं. वो बड़ी उम्मीदों के साथ कॉलेज जाते हैं, उन्हें लगता है कि सब कुछ बहुत अच्छा होगा लेकिन वहां जाने के बाद पहली चीज़ जो बाकी लोग उन्हें याद दिलाते हैं वो ये कि आप फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते, आप 'आरक्षित वर्ग' से आते हैं और आप कुछ ख़ास तरह के कपड़े पहनते हैं. लोग ऐसी बातें कहते हैं जिनमें कहीं न कहीं जातिगत पूर्वाग्रह छिपा होता है. इन सबसे छात्रों का मानसिक उत्पीड़न और बढ़ जाता है. मैंने ख़ुद ये सब झेला है."

पायल के माता-पिता का कहना है कि वो भी ऐसे ही तनाव से गुज़र रही थीं.

पायल तडवी को श्रद्धांजलि देते साथी डॉक्टर
CENTRAL MARD
पायल तडवी को श्रद्धांजलि देते साथी डॉक्टर

'ख़त्म होती प्रतिभाएं'

ये पहली बार नहीं है जब दलित-आदिवासी समुदाय के किसी प्रतिभावान युवा को असमय मौत को गले लगाना पड़ा है. अगर पिछले 10-12 वर्षों में कुछ ऐसे ही चर्चित मामलों को खंगालें तो ख़ुदकुशियों की एक लंबी लिस्ट नज़र आती है:

  • 2008 में तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाले सेंथिल कुमार ने अपने हॉस्टल के कमरे में ख़ुद को फांसी लगा ली थी. सेंथिल हैदराबाद में रहकर पढ़ा रहे थे और उनकी आत्महत्या ने पूरे देश को दहला दिया था.
  • 2010 में देश के प्रतिष्ठित मेडिकल संस्थान एम्स में पढ़ाई कर रहे बालमुकुंद भारती ने भी अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर ली थी.
  • 2012 में एम्स के ही एक अन्य छात्र अनिल कुमार मीणा ने अपनी जान दे दी थी.
  • 2013 में हैदराबाद में पीएचडी कर रहे मदरी वेंकटेश ने आत्महत्या कर ली थी.
  • वर्ष 2016 में हैदराबाद एक बार फिर आत्महत्या का केंद्र बना जब पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली.

ये सभी घटनाएं सोचने पर मजबूर करती हैं. वो क्या वजहें हैं जिन्होंने इन युवा छात्रों को आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर किया?

छात्र
Huw Evans picture agency
छात्र

थोरात समिति रिपोर्ट

साल 2007 में एम्स में जातिगत भेदभाव की शिकायतों के बाद भारत सरकार ने तीन सदस्यों वाली एक जांच समिति बनाई. समिति की अगुवाई वरिष्ठ अर्थशास्त्री और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (यूजीसी) के तत्कालीन चेयरपर्सन सुखदेव थोरात ने की.

इस समिति का मक़सद इसकी पड़ताल करना था कि क्या दलित और आदिवासी छात्रों को सचमुच भेदभाव का सामना करना पड़ता है? समिति ने जो रिपोर्ट सौंपी वो शैक्षणिक संस्थानों की आंखें खोलने वाली थी.

अपनी पड़ताल के बाद समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि एम्स के लगभग 72 फ़ीसदी दलित और आदिवासी छात्रों ने किसी न किसी तरह का जातिगत भेदभाव झेला था. वहीं, 85 फ़ीसदी छात्रों का कहना था कि मौखिक और प्रायोगिक परीक्षाओं में परीक्षक ने उनकी जाति के आधार पर भेदभाव किया. आधे से ज़्यादा छात्रों ने कहा कि वो प्रोफ़ेसरों से बातचीत करने में सहज महसूस नहीं करते क्योंकि प्रोफ़ेसर उनके प्रति उदासीन रहते हैं. एक तिहाई छात्रों ने ऐसा महसूस किया कि उनके प्रोफ़ेसर उनकी जाति की वजह से उनकी अनदेखी करते थे.

थोरात समिति ने दलित-आदिवासी समुदाय के 25 छात्रों से अपने अनुभव साझा करने को कहा था. शायद ये पहली बार था जब शैक्षणिक संस्थानों में इस तरह की कोई स्टडी हुई हो.

पायल तडवी
FACEBOOK/PAYAL TADVI
पायल तडवी

बड़े कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में जातीय भेदभाव

प्रोफ़ेसर थोरात कहते हैं, "सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शैक्षणिक संस्थानों में होने वाले भेदभाव पर ज़्यादा ग़ौर नहीं किया. उन्हें लगा कि पढ़े-लिखे लोग जात-पात में यक़ीन नहीं करते लेकिन सच तो ये है कि शैक्षणिक संस्थान बाकी समाज से अलग नहीं हैं."

प्रोफ़ेसर थोरात के मुताबिक़, "पहले सिर्फ़ तथाकथित ऊंची जातियों के लड़के उच्च शिक्षा के बारे में सोच पाते थे लेकिन आज गांवों और पिछड़े इलाक़ों के दलित-आदिवासी और मुस्लिम लड़के-लड़कियां, सब कॉलेज जाते हैं. चूंकि हर तबके और पृष्ठभूमि के छात्र कॉलेज आते हैं वो अपने पुराने विचारों और पूर्वाग्रहों को साथ लेकर आते हैं. इसलिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी ये पूर्वाग्रह साफ़ नज़र आते हैं."

रिटायर्ड प्रोफ़ेसर अंजली आंबेडकर मानती हैं कि कई बार जातिगत भेदभाव स्पष्ट रूप से सामने आता है और कई बार छिपे हुए रूपों में. लेकिन ये चाहे जिस भी रूप में हो, इससे दलित-आदिवासी छात्रों पर तनाव और दबाव बढ़ता है. प्रोफ़ेसर अंजली सामाजिक कार्यकर्ता और डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर की पत्नी हैं.

अंजली कहती हैं, "पायल की ख़ुदकुशी के बाद लोग सोशल मीडिया पर डॉक्टरों पर काम के दबाव के बारे में भी बात कर रहे हैं. वो कह रहे हैं कि हर व्यक्ति तनाव में जी रहा है और ऐसे इस एक मामले को मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है. लेकिन अहम बात ये है कि अगर लोग आपको ताना मारते हुए कहते हैं कि किसी ख़ास जाति से ताल्लुक रखने की वजह से आप योग्य नहीं हैं, तो ऐसे में ये तनाव दस गुना बढ़ जाता है."

कॉलेज
Getty Images
कॉलेज

आरक्षण पर पूर्वाग्रह

डॉक्टर बालचंद्र मुंगेकर मुंबई यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर और योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं. वो कहते हैं, "कॉलेज कैंपसों में अक्सर जातिगत भेदभाव की उपज जाति आधारित आरक्षण को बताया जाता है जबकि कोटा सिस्टम को पिछड़े तबके के छात्रों को बराबर मौके देने के लिए लागू किया गया था."

डॉक्टर मुंगेकर कहते हैं, "आरक्षित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले छात्रों को बाकी लोग कमतर आंकते हैं. मीडिया और बाकी जगहों से भी इसी धारणा को हवा दी जाती है. आरक्षण का लाभ लेने वाले दलित-आदिवासी छात्रों की 'मेरिट' (योग्यता) पर सवाल उठाए जाते हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ प्रतियोगी परीक्षाओं में कम स्कोर करने वाले छात्र मोटे पैसे देकर 'मैनेजमेंट कोटा' के तहत प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में दाखिला ले लेते हैं."

अंजली आंबेडर का मानना है कि आदिवासी और दलित छात्र कोटा के ज़रिए दाखिला ज़रूर पा जाते हैं लेकिन बड़े शिक्षण संस्थानों में उनकी ज़िंदगी आसान नहीं होती.

टीवी एक्ट्रेस रेशमा रामचंद्र ने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा है, "तथाकथित ऊंची जाति कि वो महिलाएं जो पायल या किसी दूसरे दलित छात्र को ताने मारती हैं क्या वो महिला आरक्षण के बारे में भूल गई हैं? जो महिलाएं डॉक्टर या इंजीनियर बनती हैं उनमें से लगभग आधी ऐसी होती हैं जो महिला कोटे की वजह से इस मुकाम तक पहुंच पाती हैं. हमें ये नहीं भूलना चाहिए."

डॉक्टर मुंगेकर आरक्षण के मसले पर 'ईमानदार' चर्चा की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं. वो कहते हैं, "आरक्षण के बारे में कई ग़लतफ़हमियां हैं और इन्हीं ग़लतफ़हमियों की वजह से भेदभाव का जन्म होता है. इस मुद्दों पर ईमानदारी और विस्तार से चर्चा नहीं होती है."

हालांकि डॉक्टर थोरात को लगता है कि सिर्फ़ चर्चा और बातचीत काफ़ी नहीं होगी.

रोहित वेमुला
ROHITH VEMULA FACEBOOK PAGE
रोहित वेमुला

क़ानून और मदद की ज़रूरत

साल 2013 में आंध्र प्रदेश (अविभाजित) हाई कोर्ट ने मीडिया में छात्रों की ख़ुदकुशी की ख़बरें पढ़-सुनकर मामले का स्वत: संज्ञान लिया और इस बारे में कुछ अहम निर्देश दिए. अदालत ने विश्वविद्यालयों से इन आत्महत्याओं के संभावित वजहों का पता लगाने और इन्हें रोकने के लिए ज़रूरी कदम उठाने को कहा. मक़सद था, भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से रोकना लेकिन रोहित वेमुला की आत्महत्या ने ये दिखा दिया कि शायद ये कदम भी काफ़ी नहीं थे.

प्रोफ़ेसर थोरात कहते हैं, "सरकार कुछ प्रावधान तो लाई लेकिन प्रावधानों की अपनी सीमा होती है. प्रावधानों को क़ानून में बदला जाना चाहिए और इनके उल्लंघन को अपराध का दर्जा दिया चाहिए. उदाहरण के तौर पर अगर हम रैगिंग की बात करें तो ये एक बड़ी समस्या थी लेकिन यूजीसी और राज्य सरकारें कड़े क़ानून लेकर आईं और अब आप देख सकते हैं कि ये समस्या बहुत हद तक कम हो गई है."

यूजीसी ने सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को 'इक्वल अपॉर्च्युनिटी सेल' बनाने को कहा है लेकिन बहुत से संस्थानों ने इस पर ध्यान नहीं दिया है.

आईआईटी बॉम्बे ऐसे कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक है जहां साल 2017 में यह ख़ास सेल बनाया गया था. बीबीसी के साथ बातचीत में आईआईटी बॉम्बे के जनसंपर्क अधिकारी ने बताया कि भेदभाव से जुड़े मामलों को उनका संस्थान किस तरह से संभालता है.

जो भी छात्र भेदभाव का शिकार होता है वह अपनी शिक़ायत दर्ज करवा सकता है, उसके बाद संस्थान का वह ख़ास सेल अपनी जांच के दौरान उस छात्र की पहचान सार्वजनिक ना होने की ज़िम्मेदारी रखता है.

आईआईटी बॉम्बे के पीआरओ ने बताया, "एससी-एसटी स्टूडेंट सेल का मकसद छात्रों के एकेडमिक या नॉन एकेडमिक मामलों पर ध्यान देना ही नही हैं. इसके अलावा यह सेल कैम्पस में छात्रों को इसके प्रति भी जागरूक करता है कि संस्थान में विविधता का कितना महत्व है. इसके साथ ही नामांकन के दौरान ही छात्रों को इससे जुड़े लेक्चर भी करवाए जाते हैं."

इसके साथ ही उन्होंने दावा किया कि पिछले साढे तीन साल से उनके संस्थान में जातिगत भेदभाव का किसी तरह का मामला सामने नहीं आया है.

इस तरह के विशेष सेल से इतर कॉलेजों में छात्रों के लिए सपोर्ट सिस्टम तैयार करने की भी ज़रूरत है. इस तरह के सपोर्ट सिस्टम पूरे देश में कई कॉलेजों में नहीं हैं.

दिव्या कंडुकुरी इस विषय में कहती हैं, "एक बड़ी समस्या प्रतिनिधित्व की कमी भी है. कॉलेजों में दलित-आदिवासी समुदाय के बहुत ही कम प्रोफ़ेसर होते हैं जो हमारी समस्याओं को समझ सकें. उनकी पोस्ट अक्सर खाली ही पड़ी रहती हैं. जब प्रोफ़ेसरों के बीच ही हमारा प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो हम छात्र किसकी तरफ मदद के लिए देखेंगे."

छात्र
Getty Images
छात्र

नागरिक शिक्षा की ज़रूरत

प्रोफ़ेसर थोरात इस बात पर ज़ोर देते हैं कि कॉलेज कैंपस में जातिगत भेदभाव के मसलों पर जागरुकता अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है, ऐसे ही कार्यक्रम अमरीका और स्वीडन में चलाए जाते हैं. वो कहते हैं कि भारत को नागरिक शिक्षा के कोर्स की ज़रूरत है जिससे छात्रों को और अधिक सजग और ज़िम्मेदार नागरिक बनाया जा सके.

थोरात कहते हैं, "अमरीका में विविधता की समान समस्या है. वहां भी अलग-अलग समुदायों के लोग पढ़ाई करने आते हैं, जैसे गोरे, काले, लैटिन या महिलाएं. इसलिए वहां के कॉलेजों में इसके लिए क़ानून बनाने के साथ-साथ नागरिक शिक्षा भी शामिल की गई है. कुछ कॉलेजों में यह कोर्स अनिवार्य है. इस तरह के कोर्स में छात्रों को समानता, न्याय और भेदभाव, ग़रीबी, रंगभेद, लिंग भेद जैसी समस्याओं का महत्व बताया जाता है. अलग-अलग पृष्ठभूमि से आने वाले लोग अपने अनुभव साझा करते हैं. इससे छात्रों को अलग-अलग चीजों का बेहतर तरीके से ज्ञान होता है. छात्र इन भिन्नताओं का सम्मान करना सीखते हैं. हम भी इसी तरह की कोशिशें कर सकते हैं, लेकिन कोई भी इस दिशा में काम नहीं कर रहा है."

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
How and why colleges discriminate against Dalit-tribal students
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X