हिमाचलः धूमल पर कैसे भारी पड़ गए जय राम ठाकुर?
हिमाचल में जब धूमल को सीएम कैंडिडेट घोषित किया गया तो नड्डा चर्चा से बाहर हो गए. लेकिन धूमल हारे तो सियासी तानाबाना फिर नड्डा के आसपास बुना जाने लगा था.
जयराम ठाकुर की घोषणा के साथ एक सप्ताह का सियासी सस्पेंस खत्म हुआ. इस सियासी पिक्चर में ट्रेजडी, इमोशन और थोड़े बहुत ड्रामे की लोकेशन तो हिमाचल में ही थी लेकिन सस्पेंस सारा का सारा दिल्ली के हिस्से का था.
ट्रेजडी यह थी कि भाजपा के सीएम पद के प्रत्याशी प्रेम कुमार धूमल अपने ही गृह जिले की सुजानपुर सीट से चुनाव हार गए.
उन्हीं के ही ख़ासमख़ास रहे राजेंद्र राणा उनसे ज़्यादा सुजान निकले. ट्रेजडी बड़ी थी सो भाजपा 68 में से 44 सीटें जीतने के बावजूद भी वैसा जश्न नहीं मना सकी.
ट्रेजडी से ही इमोशन निकले और तीन विधायकों ने तो धूमल के लिए अपनी सीट तक खाली करने की पेशकश कर दी ताकि धूमल वहां से चुनाव लड़ सकें.
18 तारीख़ को नतीजे आने के बाद और भी कई इमोशनल सीन दिखे. उसके बाद ड्रामा यह चला कि धूमल को किसी भी तरह सीएम बनाना है.
समर्थकों की नहीं चली
उनके समर्थकों ने लॉबिंग शुरू कर दी. तमाम तरह के तर्क उनके पक्ष में दिए गए. यहां तक कि केंद्रीय पर्यवेक्षक और काबीना मंत्री निर्मला सीतारमण और नरेंद्र सिंह तोमर के सामने धूमल के पक्ष में ज़ोरदार नारेबाज़ी भी हुई.
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हालांकि अपनी सीट सहित गृह जिले हमीरपुर की पांच में से तीन सीटें हारने के बाद उनके पक्ष वाले सभी तर्क ख़ारिज होने ही थे. सो उनके समर्थकों की चली नहीं.
वैसे जयराम की घोषणा से एक दिन पहले प्रेम कुमार धूमल ने एक प्रेस नोट के जरिये यह बता भी दिया कि नतीजों के बाद वे किसी पद की रेस में नहीं थे.
अब रहा सस्पेंस तो वह सारा का सारा दिल्ली ने बनाया. कुछ इस क़दर कि आज जयराम ठाकुर का नाम फ़ाइनल, तो अगले दिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगतप्रकाश नड्डा पर मुहर.
यहां तक कि शुक्रवार को जयराम का नाम तय माना गया तो शनिवार शाम तक हर ओर नड्डा का शोर हो गया.
रविवार सुबह फिर जयराम आगे आ गए और आख़िरकार दिन में सस्पेंस खत्म हो गया. जयराम की जय हुई.
सस्पेंस
असल में सस्पेंस महज इसी बात का था कि जेपी नड्डा और जयराम ठाकुर में से किसे चुना जाना है. बतौर सीएम प्रत्याशी हार के बाद धूमल को तो सीएम बनाने की बात सिरे से ख़ारिज कर दी गई थी लिहाजा बात नड्डा-जयराम में ही थी.
जैसा कि पहले से ही कहा जा रहा था कि जनता द्वारा चुने गए विधायक में से ही सीएम बनाया जाना है तो नड्डा उसमें फिट नहीं बैठ रहे थे.
नड़्डा का विरोध हुआ हो, ऐसा कहीं सामने नहीं आया. उनका नाम कई महीने पहले से ही सीएम पद के लिए चर्चा में था.
जब प्रत्याशियों की घोषणा के बाद भी आलाकमान ने सीएम प्रत्याशी के लिए किसी को आगे नहीं किया तो शक बराबर बना रहा कि जीतने पर वे भी सीएम हो सकते हैं.
हालांकि मतदान से नौ दिन पहले धूमल को सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया गया तो नड्डा चर्चा से बाहर निकल गए. लेकिन धूमल हारे तो सियासी तानाबाना फिर नड्डा के आसपास बुना जाने लगा.
उनका नाम जयराम की घोषणा से कुछ घंटे पहले तक बराबर बना हुआ था. यहां आकर फिर वही फॉर्मूला अहम हो गया कि सीएम चुने हुए विधायकों में से ही होगा. संघ का भी कुछ हस्तक्षेप रहा और फिर सारे किंतु-परंतु एक तरफ रखते हुए जयराम ठाकुर पर ही आख़िरी सहमति बन गई.
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विरोध
पार्टी में जिस प्रकार आलाकमान का शिकंजा है, उसमें किसी विरोध आदि की गुंजाइश वैसे भी नहीं थी. टिकटों के बंटवारे के समय ही साफ हो गया था.
दिल्ली ने जो फरमान जारी किया, उसमें किसी ने भी ज़रा विरोध नहीं किया. बगावत भी न के बराबर हुई. उसके बाद मसला था सीएम प्रत्याशी का चेहरा घोषित करने का.
लेकिन यहां भी किसी नेता ने खुलकर ऐसी आवाज नहीं उठाई कि नाम घोषित करो. दबी ज़ुबान से कुछेक ने कहा ज़रूर लेकिन ज़्यादातर ने आलाकमान के सुर में ही सुर मिलाया गया.
बाद में इधर-उधर से दबाव या कथित फ़ीडबैक के कारण मतदान से कुछ दिन पहले धूमल को चेहरा घोषित किया गया. तब भी कहीं विरोध का एक स्वर नहीं सुनाई दिया जबकि ऐसे प्रत्याशियों की तादाद भी ठीकठाक थी जिन्हें धूमल समर्थक नहीं माना जाता है.
कहने का मतलब यह कि आला कमान को आंखें दिखाने वाली स्थिति कहीं नहीं थी. उसके बाद जब धूमल खुद ही चुनाव हार गए तो विरोध का या किसी लॉबिंग के सिरे चढ़ने का सवाल ही नहीं उठता था.
विकल्प नहीं थे
जयराम ठाकुर का कहीं कोई नाम नहीं था. नतीजों के बाद हालात कुछ ऐसे बने तो पार्टी के पास जयराम ठाकुर के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. मौजूदा भाजपा विधायकों में से उनसे वरिष्ठ महेंद्र सिंह ठाकुर हैं.
महेंद्र सिंह चुनाव के मामले में एक रिकॉर्डधारी नेता है और अलग-अलग चुनाव चिह्नों पर लगातार चुनाव लड़ते व जीतते हुए करीबन एक दशक पहले ही भाजपा के रंग में रंगे हैं.
भाजपा में अभी वे ज़्यादा पुराने नहीं हैं सो उनका ज़िक्र तक नहीं हुआ. जयराम पांच बार लगातार चुनाव जीते हैं, एबीवीपी में सक्रिय हैं, संघ में पैठ है, भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहे हैं तो कैबिनेट मंत्री भी रहे हैं.
छवि भी एकदम बेदाग है. उन्हें सीएम बनाने के संबंध में असली बात तो यही है कि धूमल के बाद चुने हुए विधायकों में वे एकमात्र उपयुक्त नेता थे.
कुछ जातीय समीकरणों की भी बात कही जा रही है लेकिन उसका यहां कोई मतलब नहीं दिखता. कारण, यह तब कहा जा सकता था यदि किसी अन्य जाति विशेष का नेता उनसे वरिष्ठ होता, उसका पार्टी में जयराम से बेहतर सफर होता, यंग होता और फिर भी उसे दरकिनार कर दिया होता.
ऐसा कुछ नहीं था. सो यही सबसे महत्वपूर्ण वजह है. वैसे गिनने को और भी हैं.
मसलन मंडी जिला जहां से जयराम जीते हैं. इस जिले से दस में से भाजपा ने 9 सीटें जीती हैं. इस लिहाज से भी मंडी का हक़ बनता था.
खैर, पहली बार मंडी को मुख्यमंत्री पद मिला है अन्यथा पंडित सुखराम जैसे नेता तो कोशिश करते ही रह गए.
बहरहाल, इस सारे बदलाव के बाद यहां भाजपा का एक नया युग शुरू हुआ है सो अभी बहुत सी पिक्चर बाकी है.