#KarnatakaAssemblyElections2018: कांग्रेस को इस राजनीतिक "त्याग" के होंगे ये पांच फायदे
नई दिल्ली। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा होने के बाद एक बार फिर से तमाम राजनीतिक दलों की सियासी उठापटक शुरू हो गई है। एक तरफ जहां प्रदेश में भाजपा जहां सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है तो कांग्रेस को पूर्ण बहुमत के आंकड़े के से काफी दूर रह गई है। लेकिन क्षेत्रीय दल जेडीएस कर्नाटक के चुनाव में सबसे बड़े किरदार के रूप में सामने आई है और अब वह सरकार बनाने की स्थिति में नजर आ रही है। खुद कांग्रेस ने आगे आते हुए जेडीएस को इस बात की पेशकश की है कि वह प्रदेश में सरकार बनाएं, वह उसे समर्थन देने को तैयार है। जेडीएस ने पहले ही इस बात का ऐलान कर दिया था कि जो भी पार्टी एचडी देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए राजी होगी वह उसके साथ जाने को तैयार है।
कांग्रेस-जेडीएस साथ
कांग्रेस ने कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए त्याग का रास्ता अपनाया है और जेडीएस के उम्मीदवार को मुख्यमंत्री बनाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। कांग्रेस के इस त्याग की सबसे बड़ी वजह माना जा रहा है कि वह कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से दूर रखना चाहती है और किसी भी तरह से सरकार से बाहर नहीं होना चाहती है। लेकिन कांग्रेस की इस रणनीति के पीछे कई और सियासी मायने भी हैं, आईए डालते हैं कांग्रेस के इस त्याग के 5 बड़े फायदे
1. बीजेपी के अश्वमेघ को रोकना
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के एक के बाद कई राज्यों में हार का सामना करना पड़ा है। भाजपा के चुनावी रणनीतिकार कहे जाने वाले अमित शाह के आगे कांग्रेस की तमाम सियासी चालें विफल होती नजर आ रही है। भाजपा ने देश में 20 से अधिक राज्यों में अकेले दम पर या फिर गठबंधन की सरकार बाने में सफलता हासिल की है। कई ऐसे राज्य जिन्हें कांग्रेस का गढ़ माना जाता है वहां भी भाजपा को जीत हासिल हुई है। असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, मणिपुर, उत्तर प्रदेश सहति कई राज्यों में लगातार भाजपा को जीत हासिल हुई है। ऐसे में भाजपा के इस अश्वमेघ घोड़े को रोकने में कांग्रेस को कर्नाटक के इस कदम से बड़ी सफलता मिल सकती है।
2. बीजेपी पर दबाव बनाने में कामयाबी
कांग्रेस को कई राज्यों के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद भी सियासी लचरबाजी के चलते सत्ता से दूर होना पड़ा। गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी बावजूद इसके उसे सत्ता से दूर होना पड़ा और भाजपा दोनों ही राज्यों में सरकार बनाने में सफल हुई। ऐसे में कर्नाटक में दूसरे नंबर की पार्टी रहने के बाद भी पहली बार कांग्रेस भाजपा के सियासी दांवपेच से आगे निकलती नजर आई और उसने प्रदेश में जेडीएस को सरकार बनाने में समर्थन का ऐलान कर दिया। कांग्रेस के इस सियासी दांव के बाद भाजपा पहली बार दबाव महसूस कर रही है और उसे अन्य विकल्प की तलाश करनी पड़ रही है।
3. हार के बावजूद विचारधारा की नैतिक जीत के तौर पर दिखाना
कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और कांग्रेस को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। लेकिन हार के बाद भी जिस तरह से बमुश्किल 40 सीटें जीतने वाली जेडीएस को समर्थन देने का ऐलान किया उसके बाद पार्टी यह संदेश देने में भी सफल रही है कि वह सत्ता की भूखी नहीं है। कांग्रेस पहले ही यह कह चुकी है कि सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए वह कोई भी त्याग करने को तैयार है। लिहाजा जेडीएस से राजनीतिक विचारधारा के विपरीत पार्टी ने उसके सहयोग का ऐलान किया है।
4. विपक्ष की लामबंदी-2019 से पहले
2019 के लोकसभा चूनाव की उल्टी गिनती लगभग शुरू हो गई है, अब चुनाव में एक साल से भी कम का समय बचा है। लिहाजा तमाम विपक्षी दल एकजुट होकर भाजपा को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में अगर कर्नाटक में सबसे बड़े दल होने के बाद भी अगर भाजपा सत्ता से दूर रहती है तो विपक्षी एकता की यह एक बड़ी जीत मानी जाएगी। बहरहाल देखने वाली बात यह है कि विपक्षी दल कर्नाटक के नतीजों के बाद किस तरह से एक साथ आते हैं।
5. ना खाएंगे ना खाने देंगे की रणनीति- सत्ता के संदर्भ में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता में आने के बाद लगातार ना खाउंगा ना खाने दुंगा का नारा देते आए हैं। लेकिन जिस तरह से मेघालय, मणिपुर और गोवा में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी ना होने के बाद भी सत्ता में काबिज हुई है उसके बाद आखिरकार कांग्रेस ने कर्नाटक में इस नारे को सियासी परिपेक्ष्य में इस्तेमाल किया है। कांग्रेस ने कर्नाटक में इस नारे को सियासी परिपेक्ष्य में इस्तेमाल करते हुए भाजपा को सत्ता से दूर रखने में पूरी ताकत झोंक दी।