पैसा बचा रहे थर्मल पावर प्लांट, कीमत चुका रहे लोग
बेंगलुरु। हाल ही में वनइंडिया ने कोरबा पर कुछ रिपोर्ट प्रकाशित की थीं, जिसमें हमने बताया था कि किस तरह थर्मल पावर प्लांट यानी ऊष्मीय विद्युत संयंत्रों से निकलने वाला धुआं व फ्लाई ऐश लोगों के फेफड़ों को छलनी कर रही है। देश हर उन जगहों पर जहां थर्मल पावर प्लांट हैं, वहां ट्यूबरक्लोसिस के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। बिजली बनाने के लिये कोयला जलाया जाता है, जिससे लाखों टन राखड़ निकलती है और अपने साथ घातक रासायनिक तत्व लेकर लोगों के फेफड़ों में प्रवेश करती है। सरकार ने पावर प्लांट से फैलने वाले प्रदूषण को रोकने के लिये तमाम एडवाइजरी तो जारी कर दीं, लेकिन प्रदूषण रोकने में नाकाम विद्युत संयंत्रों पर कोई ठोस ऐक्शन नहीं लिया।
ग्लोबल सब्सिडीज इनीशियेटिव (जीएसआई) ने मंगलवार को एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें बताया कि चार साल पहले बनाये गये सरकारी कानूनों को पूर्ण रूप से लागू करने में कितना खर्च आयेगा। इस ताजा अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि सेहत के लिये बेहद हानिकारक तत्वों - सल्फर डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर को रोकने के लिये प्रौद्योगिकी संयंत्र लगाने में कुल खर्च 86,135 करोड़ रुपये रुपए आयेगा। वहीं अगर 2027 में रिटायर होने वाले पावर प्लांट में अगर ये संयंत्र नहीं लगायें तो कुल खर्च 73,176 रुपए आयेगा।
इस रिपोर्ट के आंकड़े और बुलेट ट्रेन की लागत की तुलना करें तो आप यही कहेंगे कि हमें बुलेट ट्रेन नहीं, नई टेक्नोलॉजी चाहिये। बुलेट ट्रेन की प्रस्तावित कीमत 1.1 लाख करोड़ है। जबकि प्रदूषण रोकने वाले संयंत्र की कीमत 86 हजार करोड़। यानी अगर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन की कीमत का 75 फीसदी भी पावर प्लांट पर खर्च कर देती, तो शायद आने वाली जैनरेशन प्रदूषण की मार से बच पाती।
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) के ग्लोबल सब्सिडीज इनीशियेटिव (जीएसआई) और काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरमेंट एण्ड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा किये गये इस अध्ययन में शामिल सीनियर एनर्जी इकोनॉमिस्ट विभूति गर्ग ने बताया कि हवा में घुल रहे प्रदूषण का खामियाजा हमारे समाज को भुगतना पड़ रहा है, जबकि थर्मल पॉवर उत्पादक जरूरी उपकरण को लगाने की बहुत अधिक लागत की दुहाई देकर इस काम को करने में देर कर रहे हैं।
कोरबा: फेफड़ों को छलनी कर रही लाखों टन राखड़
शोध में पाया गया है कि पूंजी निवेश और संचालनात्मक लागतों से कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की बिजली की कीमत में 32 से 72 पैसे प्रति किलोवॉट की बढ़ोत्तरी होगी। यह 9 से 21 प्रतिशत के बीच की वृद्धि मानी जाएगी। मगर, रिपोर्ट के मुताबिक बिजली संयंत्रों में प्रदूषण रोधी उपकरण न लगाने की ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी होगी और इससे देश के करोड़ों लोगों पर बुरा असर पड़ेगा।
हो सकती हैं 3 लाख असामयिक मौतें
गर्ग ने कहा "इस कीमत में प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों के इलाज की लागत के साथ-साथ बीमारी और असमय मौतों के कारण उत्पादकता पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव भी शामिल हैं। हालांकि प्रदूषण के कुछ नुकसान ऐसे भी हैं जो सेहत से जुड़े नहीं हैं। वायु प्रदूषण सभी प्रकार के अन्य मूलभूत ढांचों के लिये दीमक की तरह है। यह कृषि उत्पादकता पर बुरा असर डालता है, जलमार्गों को नुकसान पहुंचाता है और अंतर्गामी पर्यटन पर दुष्प्रभाव डालता है।
भारत में कोयला बिजलीघरों से भारी मात्रा में नुकसानदेह गैसें और पार्टिकुलेट मैटर हवा में घुलता है। यह फेफड़ों में गहराई तक घुसकर सांस तथा हृदय सम्बन्धी तंत्र को प्रभावित करते हैं। वायु प्रदूषण को लेकर हाल में किये गये अध्ययनों से पता चलता है कि वायु प्रदूषण सम्बन्धी नियमों का पालन न किये जाने से अब से लेकर वर्ष 2030 तक सांस सम्बन्धी बीमारियों से 3 से 3.2 लाख असामयिक मौतें होंगी और 5.1 करोड़ लोग अस्पताल में भर्ती होंगे। प्रदूषण नियंत्रण सम्बन्धी मौजूदा प्रौद्योगिकियों की मदद से बिजली संयंत्रों से निकलने वाली 90 से 99.6 प्रतिशत हानिकारक गैसों और कणों को खत्म किया जा सकता है।
कोरबा की हवा में ज़हर, बढ़ रही टीबी के मरीजों की संख्या
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरमेंट एण्ड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) में शोधकर्ता कार्तिक गणेशन ने कहा कि "सरकार द्वारा प्रदूषण नियंत्रण सम्बन्धी नियमों का अनुपालन शुरू करने की आखिरी तारीख वर्ष 2022 तक बढ़ाये जाने से बिजली उत्पादकों को बेवजह की राहत मिल गयी है। साथ ही नियामक को लेकर व्याप्त अनिश्चितता की वजह से अनेक निजी बिजली कम्पनियां भी अपने बिजलीघरों में प्रदूषण नियंत्रण करने की प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने में ढिलाई बरतेंगी।
अक्षय ऊर्जा ही एक मात्र विकल्प
विभूति गर्ग ने कहा कि "सरकार को फंडिंग के बारे में साफ निर्देश देने चाहिये। सब्सिडी किसी समस्या का हल नहीं है। इन प्रदूषण फैलाने वालों को सार्वजनिक रियायत क्यों दी जानी चाहिये? कोयले को कुछ कम प्रदूषण फैलाने वाला बनाने के बजाय सब्सिडी का फायदा अब अक्षय ऊर्जा जैसी स्वच्छ बिजली उत्पादन प्रौद्योगिकी को दिया जाना चाहिये।
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि कोयले से बनने वाली बिजली की लागत से प्रदूषण नियंत्रण प्रौद्योगिकी लगाने की लागत का पता चलता है। इसका असर यह होगा कि उपभोक्ताओं को कोयले से बनी बिजली के दाम चुकाने के लिये जेब ज्यादा ढीली करनी पड़ेगी। साथ ही इसका यह भी मतलब होगा कि जिन बिजलीघरों को अपने यहां यह प्रौद्योगिकी लगवाना काफी महंगा महसूस होगा, उन्हें या तो संयमित तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा, या फिर उन्हें चरणबद्ध ढंग से खत्म कर दिया जाएगा। उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिये खुदरा मूल्य सब्सिडी उन लोगों को दी जानी चाहिये, जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है। यानी गरीब और जोखिम से घिरे लोग।
क्या हैं सुझाव
ऊर्जा मंत्रालय को सलाह दी गयी है कि वह प्रदूषण सम्बन्धी नियम-निर्देशों का पालन नहीं कर रहे सभी बिजली संयंत्रों में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण लगाने की सम्भावनाओं और उसकी स्थापना में होने वाले खर्च का स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने के लिये एक कोष बनाये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि खासकर निजी बिजली उत्पादक कम्पनियां नियमों का पालन न करने और अपने यहां प्रदूषण रोधी उपकरण न लगाने के लिये चूहे-बिल्ली का खेल न खेल सकें।
कार्तिक गणेशन का कहना है कि "वायु प्रदूषण की बढ़ती दिक्कत और उसकी वजह से सेहत पर पड़ने वाले नुकसानदेह और स्थायी प्रभावों को देखते हुए सरकार को इस मामले पर जीरो-टॉलरेंस की नीति अपनानी चाहिये। साथ ही प्रदूषण सम्बन्धी मानकों का पालन नहीं कर रहे बिजलीघरों पर भारी जुर्माना लगाना चाहिये। बिजली संयंत्रों के अंदर लगे प्रदूषण निगरानी उपकरणों से मिलने वाले आंकड़े आम लोगों को भी उपलब्ध कराने की जरूरत है। साथ ही उन आंकड़ों को बिजली नियामक के सामने भी रखा जाना चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बिजली की दरें पर्याप्त जांच-पड़ताल के बाद ही बढ़ायी गयी हैं और इसके लिये सभी मानकों को भी पूरा किया गया है।"