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हरियाणा-महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव: मतदाताओं की चुप्पी क्या कहती है ?

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नई दिल्ली- सोमवार को हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के लिए वोट पड़ेंगे। हर चुनाव की तरह इस बार के भी चुनाव में सभी पार्टियों ने प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोंकने की कोशिश की है। लोक-लुभावन वादों में भी कोई किसी से पीछे नहीं दिखा है। प्रचार का शोर भी बहुत हुआ है। इस चुनाव में हर विधानसभा क्षेत्र के प्रत्येक उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा 28 लाख रुपये रखी गई है और ये भी तय है कि अधिकांश उम्मीदवार कम से कम इतनी रकम खर्च कर भी देंगे। लेकिन, इस बार के चुनाव में एक चीज बिल्कुल अलग है कि चुनावी उत्साह से वोटर गायब हैं। दोनों राज्यों में कुल मिलाकर करीब 11 करोड़ मतदाता हैं, लेकिन अंतिम वक्त तक उनमें रहस्यमयी चुप्पी देखी जा रही है। हो सकता है कि 21 अक्टूबर की शाम तक दोनों राज्यों में वोटिंग का रिकॉर्ड पहले रिकॉर्ड को पार भी कर जाए, लेकिन जनता के मन में चुनाव के प्रति उत्साह तो नहीं ही दिख रहा है। ये ऐसी चुप्पी है, जो कई तरह के सवाल खड़े कर रही है।

परेशानियों के बावजूद मौन क्यों हैं मतदाता ?

परेशानियों के बावजूद मौन क्यों हैं मतदाता ?

देश में चौतरफा मंदी की खबरें उड़ रही हैं। लेकिन, जनता फिर भी शांत बैठी है। कहते हैं कि नौकरियों पर तलवारें लटकी हैं, लेकिन चुनाव में उसका असर पड़ता नजर नहीं दिख रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि बीएसएनएल, एमटीएनएल और एयर इंडिया जैसे सरकारी सफेद हाथियों में अगर विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हुई तो करीब 1 लाख लोगों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ सकती है। लेकिन, फिर भी लोगों में कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आती। कुछ जगहों पर तो सैलरी संकट शुरू होने की भी अटकलें हैं। कहा जा रहा है कि ऑटो सेक्टर में महीने के 30 दिन रोजगार मिलना भी मुश्किल हो चुका है, लेकिन भी न कोई आंदोलन दिख रहा है और न ही कोई हंगामा ही नजर आ रहा है। सबसे बड़ी बात ये है कि अगर ऐसा कुछ हो रहा है या होने की आशंका है तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य ही होंगे। लेकिन, फिर वहां के वोटर मौन व्रत धारण क्यों किए हुए हैं?

बाकी सामाजिक मुद्दे भी गायब

बाकी सामाजिक मुद्दे भी गायब

विपक्षी पार्टियों ने इस चुनाव में भी हर बार की तरह किसान और बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश जरूर की है, लेकिन चुनाव पूर्व माहौल को देखकर कहना मुश्किल है कि ईवीएम पर इसका कोई असर होने वाला है। साल दो साल पहले तक जाट और मराठा आरक्षण के जो मुद्दे हरियाणा और महाराष्ट में इतने गर्म हो गए थे कि राष्ट्रीय राजनीति भी झुलसने लगी थी, उनपर भी मानो किसी ने पानी फेर दिया है। नेता और विपक्ष इन सब पर पर छाती जरूर पीट रहे हैं, लेकिन ये बात वोट देने वालों पर असर डाल पाए हैं कि नहीं यह लाख टके का सवाल है। सोचने वाली बात ये है कि किसानों और आरक्षण के मुद्दों पर सड़कों पर उतरकर कोहराम मचा देने वाले आंदोलनकारियों को चुनाव के वक्त सांप क्यों सूंघ गया है। मजे की बात है कि महाराष्ट्र में पांच साल से गैर-मराठा सीएम के हाथ में कमान है और हरियाणा में गैर-जाट लीडरशीप शासन में है, लेकिन इस बार भी उन्हीं के दम पर बीजेपी को बाजी मार लेने का भरोसा है। ऐसे में हैरान होना स्वाभाविक है कि जातीय राजनीति की बदौलत चलने वाली भारतीय सियासत में ये राजनीतिक बदलाव आया कैसे?

सत्ताधारी दल अपने एजेंडे पर कायम

सत्ताधारी दल अपने एजेंडे पर कायम

जनता के जो मुद्दे थे वे आज भी मौजूद हैं। लेकिन, सत्ताधारी बीजेपी ने शायद इन पांच वर्षों में अपना ऐजेंडा जनता के जेहन में सफलतापूर्वक सेट कर दिया है। लोकसभा चुनावों में बालाकोट के बाद एयरस्ट्राइक का जोर चला तो इस चुनाव में पार्टी आर्टिकल-370 और पाकिस्तान के नाम पर जोश से लबरेज है। विपक्ष अपनी ओर से हाय-तोबा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है, लेकिन उससे मतदाताओं पर कुछ असर भी पड़ रहा है, इसका अंदाजा 24 अक्टूबर को ही लग पाएगा। क्योंकि, जमीनी हालात तो एकदम अलग कहानी ही बयां कर रहे हैं। क्योंकि, 288 विधानसभा सीटों और 8.95 करोड़ से ज्यादा वोटरों वाले महाराष्ट्र या 90 विधानसभा सीटों और 1.82 करोड़ मतदाताओं वाले हरियाणा में अगर जनता में सरकार के खिलाफ कोई बड़ी सुगबुगाहट होती तो उसके लक्षण जरूर दिखाई पड़ते। लेकिन, लोकतंत्र के देवता तो मौन धरे बैठे हैं। ऐसे में 24 अक्टूबर को कुछ बड़ा होगा या अभी यथा स्थिति बनी रहेगी कहना बहुत मुश्किल है।
(सभी तस्वीरें प्रतिकात्मक)

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English summary
haryana-maharashtra assembly elections:what does the silence of the voters say?
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