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हरियाणा विधानसभा चुनाव: BJP क्यों कह रही है, अबकी बार 70 पार ? जानिए

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नई दिल्ली- हरियाणा विधानसभा चुनाव में जमीनी माहौल लगभग वही है, जो मई में लोकसभा चुनाव के दौरान था। बल्कि, इसमें आर्टिकल-370 के असर से राष्ट्रवाद का मसाला और ज्यादा घुल चुका है। ऊपर से कांग्रेस में मची गलाकाट सियासी घमासान ने भाजपा के हौसले को और भी सातवें आसमान पर पहुंचा रखा है। इसके अलावा भी कई सारे फैक्टर हैं कि पांच साल तक सत्ता में रहने के बावजूद खट्टर सरकार एंटी-इन्कंबेंसी के डर पर जीत हासिल करके सत्ता में दोबारा और वो भी भारी बहुमत से वापसी की उम्मीद लगाए बैठी है। आइए जानने की कोशिश कर सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के अति आत्मविश्वास के पीछे क्या-क्या फैक्टर का कर रहे हैं?

आर्टिकल-370 हटने से राष्ट्रवाद की भावना चरम पर

आर्टिकल-370 हटने से राष्ट्रवाद की भावना चरम पर

हरियाणा के 1.83 करोड़ मतदाताओं में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो किसी न किसी रूप से सीधे सेना या अर्द्धसैनिक बलों से जुड़े हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों में हरियाणा में बालाकोट एयरस्ट्राइक की गहरी छाप दिखी थी। इसमें कोई दो राय नहीं की राज्य की 10 की 10 लोकसभा सीटों में जीत पर उसका बहुत बड़ा प्रभाव था। इसबार पार्टी को उम्मीद है कि जम्मू-कश्मीर से विशेषाधिकार खत्म (आर्टिकल-370) करना ही उसके पास ऐसा दांव है, जो विपक्ष पर कहीं भारी पड़ेगा। यही वजह है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्मंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा में ही पार्टी लाइन से किनारा करके बीजेपी सरकार का समर्थन कर चुके हैं और फिर भी पार्टी उनके लिए अशोक तंवर जैसे दलित चेहरे को इस्तीफा देने तक से नहीं रोक सकी है।

मुख्यमंत्री खट्टर की साफ छवि

मुख्यमंत्री खट्टर की साफ छवि

इसबार विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा हरियाणा में 'अब की बार 70 पार' का नारा लगा रही है तो उसमें राष्ट्रवाद के मजबूत आधार पर पिछले पांच वर्षों में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की बनी साफ छवि भी है। वैसे तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने हरियाणा के लिए कार्यकर्ताओं को 75 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। अगर पार्टी को भरोसा है कि वह 2014 की 46 सीटों में 25 से ज्यादा सीटें बढ़ा लेगी तो उसके पीछे खुद सीएम खट्टर भी हैं, जो प्रदेश में पार्टी के मुख्य चेहरे हैं। वे पीएम मोदी की तरह परिवार के बंधनों से दूर हैं। जानकार मानते हैं कि खट्टर हरियाणा की राजनीति में 'पर्ची और खर्ची' की परंपरा को तोड़ने में नाकाम रहे हैं और पहले के मुकाबले प्रदेश की राजनीति की छवि को थोड़ी बेहतर कर पाने में भी सफल रहे हैं।

परिवारवादी पार्टियों और नेताओं की छवी का लाभ

परिवारवादी पार्टियों और नेताओं की छवी का लाभ

बीजेपी के लिए मनमोहर लाल खट्टर की व्यक्तिगत छवि के साथ ही पार्टी को विरोधी दलों के नेताओं की परिवारवादी छवि के प्रति जनता की बेरुखी का भी फायदा मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस जहां हुड्डाबिश्वनोई परिवार के भार से दबी पड़ी है, वहीं इंडियन नेशनल लोकदल और जननायक जनता पार्टी चौटालाओं के नाम से नहीं उबर पाई है। बिश्नोई परिवार ने अबतक अपना एक अलग प्रभाव कायम कर रखा था। लेकिन, खट्टर का नाम हरियाणा के किसी सियासी घराने से जुड़ा हुआ नहीं है। उनके पास अपने परिवार का सदस्य नहीं है, जिन्हें वे राजनीति में आगे बढ़ा सकें। भारतीय जनता पार्टी को इस स्थिति का लाभ मिलने का भी पूरा भरोसा है। अगर हरियाणा के वोटरों का मूड जानना हो तो लोकसभा चुनाव के परिणामों पर नजर डाल सकते हैं, जिसमें परिवारवादी उम्मीदवारों में सिर्फ बीजेपी के तत्कालीन केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह के बेटे ब्रिजेंद्र सिंह को ही जीत मिल पाई थी। वरना, पिता-पुत्र हुड्डा, पूर्व मंत्री कुलीद बिश्नोई के बेटे भव्य और पूर्व सीएम ओमप्रकाश चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला तक चुनाव हार गए थे।

जातिवादी राजनीति में अहम बदलाव

जातिवादी राजनीति में अहम बदलाव

हरियाणा में अबतक जाट राजनीति का ही दबदबा रहता था। इसकी वजह ये रही कि वे प्रदेश की जनसंख्या में करीब 25 फीसदी की हिस्सेदारी निभाते हैं। लेकिन, खट्टर पहले ऐसे गैर-जाट सीएम हैं, जिन्होंने राज्य की राजनीति में गैर-जाटों का दबदबा कायम किया है। वे पंजाबी खत्री हैं। वैसे बीजेपी हरियाणा में जाटों का दबदबा घटने की बात से इनकार करती है। लेकिन, प्रदेश में गैर-जाट राजनीति के प्रभाव के महत्त्व को इसी से समझा जा सकता है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे दिग्गज जाट नेताओं के सुर भी बदलने लगे हैं। अब वे भी कहने लगे हैं कि वे सिर्फ जाटों के नेता नहीं, बल्कि सभी जनता के नेता हैं।

विपक्षी दलों में फूट

विपक्षी दलों में फूट

हरिणाया में बीजेपी अपने दम पर अगर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है तो उसे विपक्ष के अंदर मचे आपसी घमासान से और भी ज्यादा हौसला मिला है। मसलन, कांग्रेस को ही ले लीजिए। हुड्डा और प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा गुट और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर के गुट में ऐसा बवाल काटा गया कि तंवर ने पार्टी से इस्तीफा तक दे दिया। तंवर राहुल गांधी के पसंद थे, लेकिन टिकट बंटवारे में हुड्डा ने उन्हें जरा भी भाव नहीं दिया। तंवर दलित हैं और मतदान के मुहाने पर 20 फीसदी दलित आबादी वाले राज्य में एक दलित नेता का पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में ही गहरे मतभेद को उजागर करके जाने से सत्ताधारी बीजेपी की ही राह आसान बनी है। कांग्रेस के अंदर के लोग भी ये मान रहे हैं कि लगता है कि पार्टी ये लड़ाई जीतने के लिए तो लड़ ही नहीं रही है। उधर चौटाला परिवार में तो अपने घर में ही तकरार है। इसके ठीक उलट बीजेपी को जो थोड़ी-बहुत एंटी-इन्कंबेसी का डर सता रहा था, उसको भी उसने दो मंत्रियों और आधे दर्जन विधायकों के टिकट काटकर दूर करने की कोशिश की है।

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English summary
Haryana election 2019: Why BJP hopes to win, this time more than 70 seats?
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