गौर जयंती विशेष: हरिसिंह होने के मायने
सागर। 15 फरवरी सन् 1945 की दोपहर सागर के कटरा बाजार में एक स्थूलकाय लालिमा लिए गोरे रंग का शख्स अपनी मोटरकार खड़ी करता है। जहां आज पटैरिया स्वीट्स की दुकान है, कार देखकर लोग थोड़ा चौंकते हैं और उसमें से उतर रहे शख्स को अचरज से देखने लगते हैं। अंग्रेजों की वेशभूषा में तकरीबन अंग्रेज साहब ही दिख रहा वह व्यक्ति कुछ कदम चल कर बकौली के पेड़ के नीचे खड़ा होता है और कौतुहल से देख रहे लोगों को हाथ के इशारे से अपने पास बुलाता है। कोई दो दर्जन लोग उसके नजदीक जाते हैं। देह में समाये उसके कंठ से एक भारी लरजदार आवाज निकलती है। "हम हरि सिंह गौर आएं।...बैरिस्टर। हम सागर के हैं। सागर में यूनीवर्सिटी खोल रहे हैं!"
...लोगों
के
पल्ले
इतना
पड़ा
कि
यह
आदमी
अनपेक्षित
रूप
से
सगरयाऊ
बुंदेली
में
बोल
रहा
है।
वह
फिर
बोला
और
इसबार
उसने
अपनी
फुलपेंट
से
शर्ट
निकाल
कर
उसको
झोली
का
आकार
दिया
और
सबके
सामने
फैला
दिया।
"...सागर
में
विश्वविद्यालय
खोल
रय
हैं,पैसा
नईं
चाने
आप
सबको
सहयोग
चाने
हैं!"
तब
तक
जमा
हो
चुके
लोगों
की
तादाद
कुछ
और
बढ़
गयी
थी...सबने
सुना
और
लोगों
की
समझ
में
जो
आया
वह
सिर्फ
इतना
था
कि
कोई
हरीसींग
हैं,
पैसा
नहीं
मांग
रहे,
सहयोग
मांग
रहे
हैं
और
सागर
के
ही
हैं
लिहाजा
भीड़
के
अलग
अलग
कोनों
से
आवाज
उठी...
"
हओ...हओ....हओ...!"
लोगों
ने
पाया
कि
यह
सुनकर
उस
शख्स
की
आंखों
में
चमक
सी
दौड़ी
और
दोनों
हाथ
उठा
कर
धन्यवाद
देता
वह
पलट
कर
अपनी
कार
की
ओर
गया,
बैठा
और
चला
गया।
सागर
का
बसस्टेंड
तब
इसी
जगह
कटरा
में
ही
था।
कुछ
तांगेवाले,
मोटर
मैकेनिक,
यात्री
और
गांधीभंडार
नाम
की
पुड़ी
साग
वाली
होटल
ही
वहां
थी।
होली
पास
थी
लिहाजा
कुछ
मृदंग
नगड़िया
बेचने
वाले
देहाती
कारीगर
भी
थे।
बस
ओनर
श्री
दयाशंकर
पांडे
(कांग्रेस
नेता
संतोष
पांडे
के
पिता)
और
श्री
गोपाल
सिंह
राजपूत
(नोटरी
चतुर्भुज
सिंह
राजपूत
के
पिता
)
इस
वाकये
के
प्रत्यक्षदर्शी
थे।
इन्
जानकारों
ने
भीड़
को
बताया
तब
लोगों
को
पता
चला
कि
ये
शनीचरी
वाले
मशहूर
बैरिस्टर
हरिसिंह
गौर
थे
जो
सागर
में
कोई
बहुत
बड़ा
कालेज
जैसा
कुछ
बना
रहे
हैं।
...और एक साल बाद अपनी मेहनत से कमाऐ बीस लाख रूपयों से जो कुछ बनाकर सर हरिसिंह गौर ने दिया सागर को वह सपने में भी नहीं सोचा जा सकता था आजादी के पहले उस दौर में। ...सागर विश्वविद्यालय । महान शाहकार। जिसने बीड़ी बनाने में खो जाने से बचाकर आने वाली सारी पीढ़ियों के सपनों में पंख लगा दिए। सागर की शनीचरी के 'जरियाकाट ठाकुरों' में 1870 में पैदा होने वाला हरिसिंह पंद्रह साल की उम्र में अपनी छात्रवृत्ति के दो रूपये से ऊंटगाड़ी करके ढाई दिनों का सफर तय करके करेली रेलवेस्टेशन गया। वहां से जबलपुर के राबर्टसन कालेज में पढ़ने के लिए। गरीबी और संकल्प ने फिर खाली हाथ वापस नहीं लौटने दिया। ...और यहां जो कुछ छूट गया था उसमें बहुत कुछ ऐसा था फिर कभी वापस नहीं मिला।...उनमें एक थी मोहन। हरी की सबसे लाडली छोटी बहिन ,...जो उस रोज खद्दर की फ्राक पहने ऊंट गाड़ी पर भैया का सामान लदते देख रही थी और छोड़ने के लिए डिप्टी फर्श उतर कर तालाब के तट तक आई थी। ... हरिसिंह गौर 1889 में जब कैंब्रिज में थे यहां कालरा की महामारी मोहन को ले गयी और हरिसिंह गौर के हृदय में ऐसा खालीपन छोड़ गयी जिसे याद कर वे हमेशा कराहे। विदाई के लिए हाथ उठाऐ छोटी बहिन को वे आसमान के तारों, बगीचे के फूलों और गहन मौन में आत्मा से साक्षात्कार करते तलाशते रहे। डा. गौर ने मोहन की स्मृति में सानेट लिखा है जिसमें हम सभी मोहन से मिल सकते हैं-
-स्मृति में-
नहीं
तुम
कब
मरी
हो?
परियों
सी
चमचमाती
तुम
अब
भी
तो
हो
हवाओं
में
लहराते
देवदारों
में
जहां
कोमल
मुस्कानें
उदासियों
में
भी
छेड़
देती
हैं
प्रेम
की
तानें
वे
तुम
ही
तो
हो
पूर्णिमा
की
चांदनी
में
धवल
वस्त्र
पहने
असंख्य
किरणों
सी
टिमटिमाती
तारों
में
आशाओं
से
सजे
मधुरिम
दृश्यों
में
स्नेह
के
आलिंगनों
और
चमकीले
सपनों
में
शोक
के
अधरों
पर
उठे
मौन
के
स्वर
आनंद
की
सत्ता
में
स्थगित
विषाद
शिखरों
-
घाटियों
से
आ
रही
रागनियां
तुम्हारी
आत्मा
के
प्रमाण
हैं
रूह
से
रूह
तक
करूणा
की
तत्वरूप
देह
है
गयी
तो
क्या
कण
कण
में
विद्यमान
...।
भाग दो- गौर जयंती विशेष: पिता का फैसला और भाई का आधार