हार्दिक पटेल: बेरोज़गार युवक से नेता तक का सफ़र
विरमगाम से आने वाले हार्दिक पटेल अब 25 साल के हो गए हैं और साथ ही चुनाव लड़ने के योग्य भी. हालांकि, मेहसाणा के विधायक के दफ़्तर पर तोड़फोड़ के एक मामले में उनकी सजा पर रोक से हाईकोर्ट के इनकार करने के बाद अब वो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सकते.
पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग को लेकर अपने कड़े विरोध प्रदर्शन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी और गुजरात को हिला देने वाले हार्दिक पटेल आखिरकार कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए.
सत्तारूढ़ पार्टी लगातार हार्दिक पटेल को कांग्रेस का एजेंट बताती रही थी.
उन पर एक और आरोप है कि उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए पाटीदारों की भावनाओं का इस्तेमाल किया.
विरमगाम से आने वाले हार्दिक पटेल अब 25 साल के हो गए हैं और साथ ही चुनाव लड़ने के योग्य भी. हालांकि, मेहसाणा के विधायक के दफ़्तर पर तोड़फोड़ के एक मामले में उनकी सजा पर रोक से हाईकोर्ट के इनकार करने के बाद अब वो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ सकते.
इन आरोपों और अब विपक्षी पार्टी के एक सदस्य के नए अवतार पर हार्दिक पटेल कहते हैं, "कांग्रेस में शामिल हुआ हूं तो गद्दार कहा जा रहा है. वहीं, अगर मैं बीजेपी में शामिल होता तो मुझे एक बड़े नेता के रूप में स्थापित किया जाता."
मोदी को चुनौती दी है
हार्दिक पटेल कहते हैं कि देश का सामाजिक और राजनीतिक माहौल कुछ ऐसा हो गया है कि हर सामाजिक आंदोलन को भी शक की नज़र देखा जाता है, मीडिया और राजनेता जन आंदोलन के पीछे भी किसी मंशा को खोजना चाहते हैं.
वो कहते हैं कि अगस्त 2015 को जब उन्होंने आंदोलन किया था तब लाखों की संख्या में लोग ख़ुद उनसे जुड़ने पहुंचे थे.
हार्दिक मानते हैं कि उनकी पीढ़ी ने राज्य में किसी और पार्टी की सरकार नहीं देखी है और इस कारण उनका मोहभंग हो रहा है.
हार्दिक ये कहते नहीं हिचकते कि चूंकि वो बीजेपी से नाराज़ थे और उनकी लड़ाई बीजेपी के ख़िलाफ़ थी तो 2017 के विधानसभा चुनावों में इसका सीधा फायदा कांग्रेस को हुआ. वो कहते हैं कि ऐसा होन स्वाभाविक ही था क्योंकि रज्य में दो ही बड़ी पार्टियां हैं.
हालांकि, वो इस बात से इनकार नहीं करते कि आंदोलन से कम से कम एक मुद्दा तो बना जिस पर बहस शुरु हुई.
आंदोलन में पाटीदारों की भूमिका को स्वीकार करते हुए वो कहते हैं कि 2017 में जिस तरह बारीक अंतर से बीजेपी जीती उससे भरोसा हुआ है कि पाटीदार युवाओं ने एक मजबूत संवाद क़ायम किया जो कोई आर्थिक या राजनीतिक ताक़त नहीं कर सकती. विरोध का ये स्वर सिर्फ पाटीदारों तक सीमित नहीं था, बल्कि उनकी रैलियों में हर समुदाय और हर जाति के युवा शामिल हो रहे थे. 2015 में गुजरात में ऐसा कुछ हो रहा था जिसकी दो महीने पहले तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.
हार्दिक पटेल का ये कहना भी सही है कि चाहे उन पर कितने ही आरोप क्यों न लगाए जाएं गुजरात में कुछ ऐसा तो ज़रूर घट गया था जो पहले कहीं परिदृष्य में था ही नहीं.
उन्होंने न केवल राज्य के भीतर नरेंद्र मोदी की राजनीति और नीतियों पर सवाल खड़े किए और उन्हें सीधे चुनौती दी बल्कि इस मुद्दे को लेकर गुजरात के भीतर और देश के अलग हिस्सों में लोगों का समर्थन हासिल किया और सवाल करना सिखाया.
एक समय ऐसा भी आया जब गुजरात में खुद मोदी से अधिक चर्चा हार्दिक की हो रही थी.
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- कांग्रेस बनाम भाजपा की लड़ाई में गुजरात क्यों है अहम?
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साधारण व्यक्ति से बने नेता
हार्दिक के व्यक्तित्व में कोई ऐसी आश्चर्यजनक बात नहीं थी जिसकी तरफ किसी का ध्यान जाता. लेकिन 25 अगस्त 2015 की विशाल रैली में उन्होंने जिस मुद्दे को उठाया, वो युवाओं की बढ़ती संख्या को तुरंत भा गया.
शायद पाटीदार ऐसे ही किसी व्यक्तित्व का इंतज़ार कर रहे थे, जिसके पास नया विचार और नई ऊर्जा हो और संभवत: हार्दिक ने इसी अहसास को छू लिया था.
उस वक्त वो केवल 'पाटीदार अनामत आंदोलन समिति' के एक नेता हार्दिक पटेल 21 साल के बेरोज़गार थे. पहले भी उन्होंने कई सभाएं की थीं जहाँ पटेलों के आरक्षण की मांग का उन्होंने समर्थन किया था. उनका मानना था कि "आरक्षण से देश 35 वर्ष पिछड़ गया है."
लेकिन रैली के बाद हिंसा हुई और कई लोगों की मौत हुई, कई घायल हो गए. शहर के कुछ हिस्सों में कर्फ़्यू भी लगाया गया. पुलिस ने उन्हें कुछ समय के लिए हिरासत में भी लिया.
इसके कुछ दिन बाद रैली के लिए नवसारी पहुंचे हार्दिक पटेल को पुलिस ने उनके 15 सहयोगियों के साथ हिरासत में ले लिया.
लेकिन, इन सब घटनाओं के अलावा जो हुआ वो था हार्दिक और उनके उठाए मुद्दों का ख़बरों में चर्चा का केंद्र बनना.
इस सबके बीच पाटीदारों, खासकर युवाओं ने उन पर भरोसा किया. शायद वे ऐसे किसी व्यक्ति का इंतज़ार कर रहे थे जो दशकों से वोटबैंक की राजनीति कर रही बीजेपी पर सवाल खड़ा कर सकता हो, समुदाय को इकट्ठा कर सकता हो और वास्तविक बदलाव लाने की बात कर सकता हो.
उस वक्त एक घिसा-पिटा तर्क ये दिया गया कि अधिकांश पाटीदार नेता जो मंत्री थे या हैं, लेकिन कोई इस मुद्दे के साथ नहीं है. असल में हार्दिक ने इसे अपने समुदाय के ख़राब हालात के उल्टे नतीज़े के तौर पर लिया और इससे भिड़ते रहे.
हार्दिक ने इस शांत पड़ी भावना को जगाया क्योंकि वो खुद इस प्रक्रिया का हिस्सा थे न कि कोई बाहरी.
उन्होंने खुद अपनी बहन को देखा, जो बहुत ही ज़हीन छात्रा थी लेकिन एक आरक्षित उम्मीदवार के कारण उसे अपनी सीट गंवानी पड़ी.
नौकरी एक बड़ा कारण बनी
द्वीतीय श्रेणी से स्नातक हार्दिक कहते हैं कि उन्हें आरक्षण के मौजूदा लाभान्वितों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि सदियों से सामाजिक और आर्थिक भेदभाव के चलते ये उनका हक है.
हालांकि, वो कहते हैं कि पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पास) के कारण गुजरात में नई सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सच्चाईयां पैदा हुई, जिसे समझने की ज़रूरत है.
हार्दिक पटेल ने एक पीढ़ी के लिए आवाज़ उठाई थी, जोकि न तो पूरी तरह शहरी है न ही पूरी तरह ग्रामीण, न तो ग़रीब है न अमीर, लेकिन वो एक जटिल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बरमूडा ट्राएंगल में फंसी हुई है. ये पीढ़ी किसी दूसरे के लाभ को छीनना नहीं चाहती बल्कि अपनी जगह चाहती है.
ये गुजरात में 80 के दशक में हुए आरक्षण विरोधी हिंसक प्रदर्शनों से बिल्कुल अलग है, जब पाटीदारों और ऊंची जाति के लोगों ने दलितों और ओबीसी के ख़िलाफ़ हिंसक नफ़रत फैलाई थी. अब पाटीदार खुद ओबीसी का हिस्सा बनना चाहते हैं.
इसे समझने की ज़रूरत है कि 'पास' किसी ख़ास जाति की दावेदारी नहीं है बल्कि ये एक पीढ़ी की दावेदारी है जिसे लगातार नौकरियां ढूंढने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. साथ ही इस पीढ़ी को लगातार महंगी होती शिक्षा के बीच ऐसे हुनर पाने में दिक्कत पेश आ रही है, जो उन्हें शहरी माहौल में जगह दिलाने के लिए ज़रूरी है.
ये तब है जब वो खेती में जाना नहीं चाहते हैं, जो कि गुजरात में पहले ही संकट का सामना कर रही है. वो खेती करने में असमर्थ हैं क्योंकि ये अब फायदे का सौदा नहीं रहा.
पाटीदार आंदोलन में सभी तबके के युवा
हार्दिक पटेल की रैलियों में 20-30 साल के सिर्फ पाटीदार युवाओं की ही नहीं, बल्कि सभी जातियों के युवाओं की भीड़ उमड़ पड़ी थी.
नौकरी ही वो कारण था कि ओबीसी, दलित और पाटीदार युवा एक ही आवाज़ में बोल रहे थे. और ठीक इसी कारण ये ताज्जुब की बात नहीं थी कि प्रखर युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल के साथ एकता जताते हुए उनके साथ आ गए.
और तीसरे युवा तुर्क, ओबीसी एकता मंच के नेता अल्पेश ठाकोर भी इसी कश्ती पर सवार हो गए. और इन तीनों का एक ही दुश्मन था, बीजेपी और उसकी नीतियां.
इस तीन की तिकड़ी का कमाल दिसम्बर 2017 में गुजरात चुनाव के नतीज़े में दिखा जो इस विरोध को मिलते समर्थन का स्पष्ट प्रमाण था.
यही वो संदर्भ है जिसमें कहा जा सकता है कि हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर के कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाने और जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस पार्टी का समर्थन हासिल करने में कोई रहस्य नहीं है. मेवाणी ने तो कांग्रेस के समर्थन से विधानसभा चुनाव लड़ा भी और जीता भी.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं. इसमें शामिल तथ्य और विचार बीबीसी के नहीं हैं और बीबीसी इसकी कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही नहीं लेती है.)