हार्दिक पटेल भाजपा के लिए सिरदर्द या गुजरात की राजनीति के नायक
हार्दिक पटेल ने एक बार फिर राज्य की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश है. हार्दिक हमेशा कहते रहे हैं कि वो एक नेता नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि वो जो भी करते हैं उसकी चर्चा राजनीतिक गलियारों में होती है.
हार्दिक पटेल ने अपने अनशन से कुछ दिन पहले बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहते हैं. वो शिवसेना के बाला साहेब ठाकरे की तरह बनना चाहते हैं.
साल 2015 की विसनगर की विशाल रैली से लेकर अहमदाबाद में चल रहे अनिश्चितकालीन उपवास तक, हार्दिक पटेल ने ख़ुद को गुजरात की राजनीति में एक अहम चेहरे के रूप में स्थापित किया है.
पिछले चार सालों में एक फ़्रेश कॉलेज पास आउट की गिनती अब राज्य के गिने चुने नेताओं में होने लगी है. उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ इस तरह बढ़ा कि उनके चर्चे राष्ट्रीय राजनीति में भी होने लगे हैं.
विधानसभा चुनावों के दौरान उस छवि का असर भी देखने को मिला. हालांकि सत्ताधारी पार्टी उनकी लोकप्रियता की बात को ख़ारिज करती है और चुनाव में कांग्रेस पार्टी की हार को उसका परिणाम बताती रही है.
तीन साल के सार्वजनिक जीवन में राजद्रोह के आरोप में उन्हें नौ महीने जेल में रहना पड़ा, निर्वासन का सामना करना पड़ा और छह महीने पड़ोसी राज्य में गुज़ारना पड़ा.
गुजरात के विभिन्न थानों में उन पर 56 केस दर्ज हैं. उनके समर्थक ये मानते हैं कि हार्दिक के प्रभाव की वजह से ही भाजपा को अपना मुख्यमंत्री बदलना पड़ा था.
हार्दिक की शुरुआत
राजनीति के जानकार मानते हैं कि हार्दिक की लोकप्रियता जिस तरीके से बढ़ी है, शायद ही किसी नेता ने इतने कम समय में इतनी लोकप्रियता हासिल की हो. वहीं आलोचकों का कहना है कि 2017 के बाद से हार्दिक की लोकप्रियता घटने लगी है.
पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के संस्थापक और संयोजक हार्दिक पटेल की लोकप्रियता की शुरुआत विसनगर रैली से हुई.
पाटीदार आंदोलन के दौरान हार्दिक के क़रीबी रहे मनोज पनारा ने बीबीसी गुजराती से कहा, "उन्होंने पढ़े-लिखे पाटीदार युवाओं के बेहतर जीवन के लिए आवाज़ उठाई. यही वजह है कि उन्हें लोगों का साथ मिला. पूरे राज्य के पाटीदार उन्हें सुनने के लिए अहमदाबाद में हुई रैली में आए थे."
लोकप्रियता घटी या बढ़ी?
इस आंदोलन में उठी आरक्षण की मांग के बाद कई हिस्सों में हिंसा की घटनाएं हुईं जिसके बाद पाटीदार बहुल क्षेत्रों में कर्फ़्यू लगा दिया गया था.
इस दौरान 14 लोगों की मौत हो गई थी. हार्दिक पटेल की लोकप्रियता में उस वक़्त और इज़ाफ़ा हुआ जब उन्हें नौ महीने के लिए देशद्रोह के आरोप में सूरत के लाजपोर जेल भेजा दिया गया था.
हालांकि हिंसा के बाद कई समर्थकों ने अपना समर्थन आंदोलन से वापस ले लिया.
विजपुर के शिक्षक विष्णु पटेल कहते हैं, "2015 में हुई हिंसक घटनाओं में मासूम युवाओं की जान गई जिसके बाद मैंने आंदोलन से ख़ुद को अलग करने का फ़ैसला किया."
आमरण अनशन में अहमदाबाद पहुंचे विष्णु पटेल कहते हैं, "लेकिन अब मेरा मन बदल गया है. मैं यहां आज हार्दिक को समर्थन देने और उन्हें देखने पहुंचा हूं. उनका आंदोलन अब अहिंसक और जायज़ है. पाटीदारों की भलाई के लिए है."
- यह भी पढ़ें | जानिए क्यों बनवानी चाहिए आपको अपनी वसीयत
अनशन के शुरुआती दिनों में हार्दिक पटेल फ़ेसबुक पर लोगों से लाइव बातचीत कर रहे थे और लोगों से समर्थन मांग रहे थे. आलोचकों का कहना है कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उनकी लोकप्रियता घट रही है और उनकी रैलियों और अनशन में लोग जुट नहीं रहे हैं.
अहमदाबाद के बापूनगर में रहने वाले नरेश पटेल कहते हैं, "उन्हें अब लोगों से समर्थन क्यों मांगना पड़ रहा है?"
हार्दिक के घटती लोकप्रियता के सवाल पर मनोज पनारा कहते हैं कि हार्दिक को अभी भी पाटीदारों का समर्थन हासिल है और दिनों दिन यह बढ़ता जा रहा है.
- यह भी पढ़ें | हार्दिक की गेंद के सामने धराशायी हुए इंग्लिश बल्लेबाज़
दूसरी तरफ़ हार्दिक के पुराने साथी पनारा के तर्कों से सहमत नहीं दिखते हैं. हार्दिक पटेल के कभी सहयोगी रहे अतुल पटेल कहते हैं कि वो ज़मीनी स्तर पर अपना जुड़ाव खो चुके हैं और लोगों से अपना संपर्क काट चुके हैं.
वहीं सरदार पटेल ग्रुप के अध्यक्ष लालजी पटेल कहते हैं, "अगर हार्दिक पटेल लोगों के साथ काम करना सीख लें तो वो एक अच्छे नेता हो सकते हैं. हमलोगों ने अपने रास्ते अलग कर लिए हैं क्योंकि वो अकेले फ़ैसले लेते थे."
हालांकि इन आलोचनाओं के बावजूद अतुल और लालजी हार्दिक के अनशन का समर्थन करते हैं और उनसे मिलने उनके घर भी पहुंचे थे.
- यह भी पढ़ें | हार्दिक पटेल से बड़ा कोई देशभक्त नहीं: केजरीवाल
कौन से पटेल का समर्थन- कड़वा या लेउवा
पाटीदार आंदोलनों ने हमेशा कड़वा और लेउवा पाटीदारों का अलग-अलग नेतृत्व देखा है. दोनों पाटीदार हैं पर अलग-अलग देवताओं को पूजते हैं.
अनशन के दौरान कई बार 'जय उमिया-खोदल' के नारे भी सुनने को मिले हैं. कड़वा पाटीदार उमिया भगवान की पूजा करते हैं, वहीं लेउवा पाटीदार खोदियार को अपना भगवान मानते हैं.
मनोज पनारा कहते हैं, "जय उमिया-खोदल का मतलब यह है कि दोनों तरह के पाटीदार अब एक हैं और एक मकसद के लिए लड़ रहे हैं. अब 2015 जैसा मामला नहीं है. कड़वा और लेउवा दोनों साथ हैं."
वो मानते हैं कि दोनों पाटीदारों को साथ लाना ही हार्दिक पटेल की उपलब्धि है.
- यह भी पढ़ें | पटेल आंदोलन को गुजरात सरकार ने कैसे थामा?
हार्दिक पटेल की अहमियत
हार्दिक पटेल ने एक बार फिर राज्य की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश है. हार्दिक हमेशा कहते रहे हैं कि वो एक नेता नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि वो जो भी करते हैं उसकी चर्चा राजनीतिक गलियारों में होती है.
हार्दिक पटेल ने अपने अनशन से कुछ दिन पहले बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि वो सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहते हैं. वो शिवसेना के बाला साहेब ठाकरे की तरह बनना चाहते हैं.
उन्होंने कहा था, "मैं किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ना नहीं चाहता, लेकिन मैं किंग मेकर की भूमिका में रहना चाहता हूं."
जवाहर लाल नेहरू के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक घनश्याम शाह मानते हैं कि हार्दिक पटेल सत्ताधारी भाजपा के लिए असली सिरदर्द हैं.
"उनके अनशन ने खोया समर्थन हासिल किया है. अगर उन्हें कुछ होता है तो उसका परिणाम बुरा हो सकता है." घनश्याम शाह मानते हैं कि हार्दिक का अनशन सही है और कांग्रेस इसका लाभ उठाना चाहती है.
- यह भी पढ़ें | 'चाणक्य ने नहीं, EVM और पैसे ने बीजेपी को जिताया'
गुजरात में पटेलों की संख्या निर्णायक भूमिका में है. राज्य की 39 सीटों पर पाटीदार वोटरों का दबदवा है. राज्य में अभी तक चार पाटीदार मुख्यमंत्री रह चुके हैं.
हार्दिक पटेल पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि पाटीदारों को आरक्षण एससी-एसटी और ओबीसी के आरक्षण को प्रभावित किए बिना दिया जाए.
आंदोलन की शुरुआत 2015 में हुई थी, जिसका असर राज्य की राजनीति और विधानसभा चुनावों के दौरान देखने को मिला. इस आंदोलन के बाद राज्य में कांग्रेस को नई उम्मीद दिखने लगी और यही कारण है कि विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन उम्मीदों से बेहतर रहा, हालांकि वो चुनाव हार गई.
- कांग्रेस दिलाएगी गुजरात के पाटीदारों को आरक्षण?
- 'कांग्रेस और राहुल को इतना इतराने की ज़रूरत नहीं है'
- तोगड़िया की विदाई में छिपा है मोदी को संघ के समर्थन का संकेत
- अल्पेश के फ़ैसले से गुजरात चुनाव हुआ रोमांचक