Gujarat Assembly Election 2017: गैरों पर करम अपनों पर सितम......ले डूबा राहुल गांधी को...
नई दिल्ली। एक बार फिर से गुजरात में भगवा रंग चढ़ा है, भले ही फिर से राज्य में 'कमल' खिला है लेकिन जिस तरह से इस संग्राम में कांग्रेस उभरकर सामने आई है उसने सबको चौंका दिया है, शायद इसी जोश की उम्मीद कब से कांग्रेसी कर रहे थे और इसी वजह से कांग्रेस ने आज राज्म में मजबूत विपक्ष की नींव रख दी है, ये चुनाव भाजपा के लिए जितनी अहमियत रखता है, उससे कहीं ज्यादा ये कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए अहम था, फिलहाल राहुल गांधी की ताजपोशी का असर गुजरात के चुनाव में दिखा है इसलिए इस चुनाव से कांग्रेस को सबक लेना चाहिए और उसे अपना आंकलन करना चाहिए कि वो किन-किन मु्द्दों पर कमजोर पड़े, जिसकी वजह से वो जीतते-जीतते हार गए।
शंकर सिंह वाघेला
इन्हीं सारे मुद्दों में से एक हैं कांग्रेस के पास राज्य का कोई कद्दावर लीडर का ना होना, राजनीति पंडितों का मानना है कि पुराने कांग्रेसी नेता शंकर सिंह वाघेला का साथ कांग्रेस के साथ होते तो आज पंजा खाली नहीं होता।
स्टार गुजरात में हार गए
इस हार के लिए वाघेला ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ही जिम्मेदार ठहराया है, उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस अपनी गलतियों की वजह से गुजरात में जीतते-जीतते हार गई, ताज्जुब ये है कि कांग्रेस जिन नेताओं के दम पर जीत का दावे कर रही थी, उसके वो ही स्टार गुजरात में हार गए।
जनता के गुस्से को वोट में तब्दील नहीं कर पाए
वाघेला की जगह राहुल ने राजस्थानी अशोक गहलोत पर भरोसा किया, जिन्होंने उन्हें फायदा को पहुंचाया लेकिन बीजेपी के खिलाफ जनता के गुस्से को वोट में तब्दील नहीं कर पाए, कांग्रेस के अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी, अर्जुन मोढवाडिया और शक्तिसिंह गोहिल वो नहीं कर पाए, जो शायद शंकर सिंह वाघेला कर सकते थे और इसी वजह से अब कांग्रेस को फिर से पांच साल तक इंतजार करना होगा।
गैरों पर ज्यादा भरोसा
आपको बता दें कि शंकर सिंह वाघेला ने इसी साल की जुलाई में पार्टी नेतृत्व से नाराजगी के बाद कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी। कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी पर बहुत अधिक भरोसा किया, जबकि वाघेला जैसे गुजराती नेता पर नहीं और यही उसे ले डूबे।
पार्टी की संभावनाएं प्रभावित हुईं
राहुल गांधी को ये समझना होगा कि जब तक संगठन मजबूत नहीं होगा, तब तक आप कहीं नहीं जीत सकते और संगठन मजबूत ग्राउंड लेवल नेता से होता है, उधार के लोगों से नहीं। मालूम हो कि अल्पेश ने चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की थी जबकि जिग्नेश निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान पर थे जिन्हें कांग्रेस ने समर्थन दिया था। टिकट वितरण में इन नेताओं के समर्थकों को तरजीह मिलने से कांग्रेस कार्यकर्ता में नाराजगी आई जिससे पार्टी की संभावनाएं प्रभावित हुईं।
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