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ग्राउंड रिपोर्ट: 'कैंप में रहने से बेहतर है ज़हर खाकर मर जाएं'

गुलाम अहमद बट उसी गांव के रहने वाले हैं जहां बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी. वो कहते हैं कि गावों के कई लोगों ने तो अपने मकान बनाए लेकिन 36 परिवार ऐसे हैं जिनके मकान आज तक नहीं बन पाए.

गुलाम अहमद मुझे उस जगह पर ले गए जहां ये 36 परिवार रहते थे जिनके मकान अभी तक बने नहीं हैं.

"यहां पर सब मकान थे. लेकिन अब आप देख रहे हैं कि यहां पत्थर ही पत्थर हैं. यहां कैसे माकन बनाए जा सकते हैं."

कुलगाम के डिप्टी कमिश्नर डॉक्टर शमीम अहमद वाणी का कहना है कि वो इस मामले में काम कर रहे हैं.

By BBC News हिन्दी
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ग्राउंड रिपोर्ट: कैंप में रहने से बेहतर है ज़हर खाकर मर जाएं

दक्षिणी कश्मीर के कुलगाम ज़िले के कैलम में सरकार की ओर से बनाए गए राहत शिविर में तारिक़ अहमद मालिक टीन के बने शेड में बीते चार सालों से अपनी ज़िंदगी के मुश्किल दिन गुज़ार रहे हैं.

तारिक़ और उनके जैसे अन्य पंद्रह परिवारों की ज़िंदगी साल 2014 में आई बाढ़ के बाद अभी तक बदली नहीं है.

तारिक़ के परिवार के पांच लोग कैंप के एक कमरे में सोते भी हैं और खाते भी हैं.

इस कैंप में रहने वाले लोगों की तादाद 100 के करीब है.

7 सितम्बर 2014 को जम्मू-कश्मीर में आई भयानक बाढ़ ने हज़ारों लोगों की ज़िंदगियों को प्रभावित किया था.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ 2014 में आई बाढ़ में 200 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी. बाढ़ की वजह से राज्य में भारी आर्थिक नुकसान भी हुआ था.

घर गया, अब टूट रहे हैं रिश्ते

कैलम के इस कैंप में रहने वाले सोलह परिवारों के घर कश्मीर घाटी में वर्ष 2014 में आई बाढ़ में तबाह हो गए. बाढ़ का पानी इनके परिवारों के गावों को बहाकर ले गया था.

बाढ़ पड़ितों के घर कैंप से महज़ दो किलोमीटर की दूरी पर गुंड इलाके में आबाद थे. लेकिन, अब वहां कोई घर नज़र नहीं आता है. बल्कि वो जगह अब खंडहर में तब्दील हो गई है.

तारिक़ अहमद का कहना है कि बाढ़ के बाद सरकार ने हमें इस कैंप में छह महीने तक रहने के लिए कहा था.

वो कहते हैं, "अब चार साल भी गुज़रने को हैं, लेकिन हमें यहां से शिफ्ट नहीं किया जा रहा है. सरकरी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर हम थक चुके हैं. हर बार यही कहा जाता है कि बस आपके मकानों के लिए ज़मीन देखी गई है और बहुत जल्द आप लोगों को यहां से शिफ्ट किया जाएगा लेकिन ऐसा आज तक हुआ नहीं."

"यहां हम इन टीन शेड में गर्मी से झुलस रहे हैं. हमारे बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित हो रही है. एक ही कमरे में परिवार के सभी पांच लोगों को सोना पड़ता है. हमारे यहां अब कोई मेहमान भी नहीं आता है. मेहमान आएगा तो बैठेगा कहां?"

तारिक़ अहमद बताते हैं कि घर न होने की वजह से कई लड़कियों के रिश्ते भी टूट चुके हैं.

उन्होंने कहा, "कोई रिश्ता तब ही कर सकता है जब हमारे पास अपने घर हों. अपने घर न होने की वजह से हमारी तीन लड़कियों के रिश्ते भी टूट चुके हैं."

रिश्तेदारों ने मुंह मोड़ा

तारिक़ का कहना था कि जब सरकार उन्हें इस कैंप में लायी थी तो सरकार की तरफ से उन्हें तीन महीने तक मुफ़्त राशन दिया गया था. उसके बाद मुफ़्त राशन मिलना बंद हो गया. तारिक़ का ये भी कहना था कि सरकार ने अब तक उन्हें पौने चार लाख का मुआवजा दिया है.

तारिक़ की पत्नी हसीना अपने उस घर को याद करती हैं जिसे साल 2014 में बाढ़ बहा कर ले गई.

वो कहती हैं, "रात का समय था जब बाढ़ का पानी हमारे गावों को तिनके की तरह बहा कर ले गया. हमने बाढ़ आने से डेढ़ साल पहले वो मकान बनाया था. सारी पूंजी उसमें लगा दी थी. इतनी भी मुहलत न मिली कि हम अपने घर से कुछ निकाल लेते. बस जिस्म पर जो कपड़े थे वही बचा पाए. हम अपनी आंखों से अपने मकानों को बहता देख रहे थे. तब से लेकर आज तक हम बेबसी की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं."

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कैंप की ज़िंदगी को लेकर हसीना कहती हैं, "हम इन टीन के शेडों में सुबह का खाना शाम को नहीं खा पाते हैं. कोई मेहमान आता है तो वो अंदर आने से डरता है. रिश्तेदार भी कभी-कभार ही यहां हमारे पास आते हैं. ऐसा लगता है कि बाढ़ आने के बाद हम अकेले हो गए हैं. इस कैंप के इर्द गिर्द इतनी गंदगी है कि कोई दूसरा यहां ठहर नहीं पाता है."

तारिक़ की बेटी मुस्कान छठी क्लास की छात्रा हैं.

मुस्कान कहती हैं, "यहां हम बिलकुल नहीं पढ़ पाते हैं. मैं चाहती हूं कि मैं पहली पोजीशन लाऊं लेकिन ऐसा नहीं कर पा रही हूं. इस कैंप में हमारे पास एक ही कमरा है. इस एक कमरे में घर के सब लोग बैठे रहते हैं. ऐसे में कैसे पढ़ाई हो सकती है. मैं अपने घर में रहती थी तो वहां मैं पहली पोजीशन लाती थी लेकिन जबसे इस कैंप में आ गए तब से में तीसरी पोजीशन ला रही हूं. यहां गर्मी भी बहुत रहती है. हर समय बदबू रहती है. पीने के लिए साफ़ पानी नहीं है."

ख़त्म नहीं हो रही मुश्किल

65 वर्ष के अब्दुल रहमान कहते हैं, "मैं ज़ोर-ज़ोर से रोना चाहता हूं लेकिन क्या करूं?"

वो कहते हैं कि कैंप में रहने से बेहतर है कि ज़हर खाकर मर जाएं."

अब्दुल कहते हैं, "हमें ऐसा पानी पीना पड़ता है कि हम सोचते हैं कि हमने पानी नहीं बल्कि ज़हर पिया है. यहां इतना गंदा पानी है. सरकार ने कहा था कि आपकी देखरेख की जाएगी लेकिन अभी तक वो सब झूठ साबित हो रहा है. अब हम सरकार से कह रहे हैं कि ऐसा कुछ करो कि हम सब को मार दो. हम को कोई शिकायत नहीं होगी. अब ठंड का मौसम आने वाला है. जब हम सर्दियों में सोते हैं तो सुबह हमारे बिस्तर पर पानी का ढेर होता है."

अब्दुल रहमान पूछते हैं कि सरकार ने मुआवजे का जो पैसा दिया उस पैसे से क्या मकान बन सकता है?

वो कहते हैं, "हम एक मकान में तीन परिवार रहते थे तो उन तीन परिवारों को पौने चार लाख दिया गया. तीन परिवारवालों में पौने चार लाख तक़सीम करके एक परिवार को क्या मिला होगा? बाढ़ के बाद हम बीमार हो गए थे. हमारे पास कुछ नहीं बचा. उन पैसों से कुछ ज़रूरी सामान खरीदना पड़ा. दफ्तरों के चक्कर काटने में बहुत पैसा खर्च हुआ. हम दिन भर मज़दूरी करने वाले लोग हैं. सोलह परिवारों में से सिर्फ एक परिवार सरकारी मुलाज़िम है. अब हम कैसे गुज़ारा करते होंगे, आप समझ सकते हैं"

हलीमा कहती हैं कि उन्हें सब्ज़ी लाने के लिए कैंप से कई किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है. वो कहती हैं कि मेरे दो बेटे हैं जिनको पड़ोसियों के शेड में सोने के लिए भेजना पड़ता है.

वो कहती हैं, "जब बाढ़ आई थी तो हम सात दिनों तक भूखे रहे. अब हमारी सेहत भी ख़राब हो गई है. हमारा अपना मकान होता तो मैं अपने बच्चों को क्यों दूसरों के शेड में सोने के लिए भेजती? मैं अपने बेटों की शादी करती लेकिन बहुओं को कहा रखूंगी?"

तिनका-तिनका बह गया

शरीफा जान पूरा ज़ोर लगाकर अपनी परेशानियों को सामने रखना चाहती हैं. वो कहती हैं,"हम आज भी अपने गांवों में वापस चले जाते लेकिन वहां तो कुछ रहा ही नहीं."

वो कहती हैं, "आप खुद आकर उस जगह को देख सकते हैं जहां हम बाढ़ आने से पहले रहते थे. वहां आज भी दरिया बह रहा है. हम वहां कैसे अपने माकन बना सकते हैं? सरकार ने जो पैसा दिया वो घर को फिर से बसाने के काम आ गया. हमारा तो एक तिनका भी नहीं बच पाया. हम तो अब सिर्फ ये कहते हैं कि हमें सिर्फ किसी जगह ज़मीन दे दी जाए, वो भी नहीं दी जा रही है."

ज़मीन की तलाश जारी

गुलाम अहमद बट उसी गांव के रहने वाले हैं जहां बाढ़ ने भारी तबाही मचाई थी. वो कहते हैं कि गावों के कई लोगों ने तो अपने मकान बनाए लेकिन 36 परिवार ऐसे हैं जिनके मकान आज तक नहीं बन पाए.

गुलाम अहमद मुझे उस जगह पर ले गए जहां ये 36 परिवार रहते थे जिनके मकान अभी तक बने नहीं हैं.

"यहां पर सब मकान थे. लेकिन अब आप देख रहे हैं कि यहां पत्थर ही पत्थर हैं. यहां कैसे माकन बनाए जा सकते हैं."

कुलगाम के डिप्टी कमिश्नर डॉक्टर शमीम अहमद वाणी का कहना है कि वो इस मामले में काम कर रहे हैं.

उन्होने कहा, "ये बात सच है कि कैलाम में सोलह परिवार अभी तक सरकारी कैंप में रह रहे हैं. उनके लिए हम ज़मीन देख रहे हैं. उनकी ज़मीन ढूंढ़ने में कुछ मुश्किलें आ रही हैं. मुझे उम्मीद है कि अगले पंद्रह दिनों में इनका मसला हल हो जाएगा."

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English summary
Ground Report Better to take poison than living in camp
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