ग्राउडं रिपोर्ट: 'अल्लाह गरीबी दे दे, लेकिन बीमारी ना दें'
बिहार की राजधानी पटना से सटे फुलवारीशऱीफ का मुर्गियाचक गांव पहली नज़र में एक शांत सा गांव लगता है, लेकिन मुस्लिम बहुल इस गांव की आबादी से थोड़ी देर बातचीत के बाद ही उनकी बेचैनी और जीवन में उथल-पुथल का अंदाज़ा लग जाता है.
मुर्गियाचक वो गांव है जहां से पटना एम्स महज़ 7 किलोमीटर दूर है और प्रखंड स्वास्थ्य केन्द्र 12 किलोमीटर की दूरी पर.
बिहार की राजधानी पटना से सटे फुलवारीशऱीफ का मुर्गियाचक गांव पहली नज़र में एक शांत सा गांव लगता है, लेकिन मुस्लिम बहुल इस गांव की आबादी से थोड़ी देर बातचीत के बाद ही उनकी बेचैनी और जीवन में उथल-पुथल का अंदाज़ा लग जाता है.
मुर्गियाचक वो गांव है जहां से पटना एम्स महज़ 7 किलोमीटर दूर है और प्रखंड स्वास्थ्य केन्द्र 12 किलोमीटर की दूरी पर. लेकिन फिर भी गांव में जिस घर में बीमारी है वो कर्ज़ मे डूबा हुआ है.
शहनाज़ बानो और मोहम्मद नसीम ऐसी ही एक दंपति है, उन पर 1 लाख 80 हज़ार रुपए का कर्ज़ है, ये कर्ज़ा दंपति ने नसीम की लकवे की बीमारी और शहनाज़ के पेट के ऑपरेशन के लिए लिया था.
40 साल की शहनाज़ कहती हैं, "पीएमसीएच (बिहार का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल) गए, एम्स गए, सारे डॉक्टर बाहर से दवाई लिख देते हैं, महीने में 3 हज़ार रुपये बड़ा लड़का कमा कर भेजता है और 1500 रूपये दवाई में खर्च हो जाते हैं, जब बाहर से ही दवाई खरीदनी है तो सरकार अस्पताल क्यों खोल कर बैठी है?"
खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवाएं
नीति आयोग ने हाल ही में राज्यों के 'हैल्थ स्टेटस' पर जो रिपोर्ट जारी की है वो बताती है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवाएं बेहद खराब हालत में हैं.
इसके अलावा राज्य में जन स्वास्थ्य अभियान नाम के संगठन ने बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं में असमानता विषय पर हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च 2047 रुपये है. इसमें से सरकार महज़ 338 रुपये खर्च कर रही है जबकि व्यक्ति अपनी जेब से 1685 रुपये यानी 82 फीसदी खर्च कर रहा है.
नेशनल हेल्थ अकाउंट एस्टीमेट, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के आधार पर ये रिपोर्ट कहती है कि सरकार का ये 338 रू का खर्च देश के 20 राज्यों (जिनके आंकड़े उपलब्ध है) में सबसे कम है.
देश के औसत की बात करें तो प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्च का 37 फीसदी सरकार खर्च करती है.
25 साल की जायेदा भी मुर्गियाचक गांव की निवासी हैं. उनके दोनों पैरों का ऑपरेशन हुआ है. अपने एक्स-रे दिखाते हुए वो बताती है कि उनकी कमर के पास का मांस निकालकर डॉक्टर ने उनके घुटनों के नीचे लगाया है. ऑपरेशन हुए साल भर हो गया है लेकिन अभी भी उन्हें चलने में तकलीफ है.
जाएदा के पिता मोहम्मद इलियास ने बेटी के इलाज के लिए डेढ लाख रूपए का कर्ज़ा लिया है. ये कर्ज़ प्रति 100 रूपए पर 10 रूपए के सूद के हिसाब से है.
जाएदा कहती हैं, "अल्लाह गरीबी दे दे, लेकिन बीमारी ना दें, अब पैसा तो कर्ज़ा चुकाने में लग जाता है, क्या खाए, क्या जिए ? सरकारी में जाओ तो दवाई नहीं मिलती और बाहर से दवाई कर दो तो कर्ज़ का बोझ."
दवाइयों पर अधिक खर्च
बिहार के 14 ज़िलों के 15 प्रखंड में किए गए सर्वे पर तैयार जन स्वास्थ्य अभियान की रिपोर्ट दवाइयों पर इसी खर्च को बहुत गंभीरता से रेखांकित करती है.
रिपोर्ट के मुताबिक लोग अपने स्वास्थ्य पर जो पैसा खर्च करते है उसमें से 60 फीसदी सिर्फ़ दवाइयों पर खर्च होता है. बिहार सरकार के 2015-16 के बजट की समीक्षा से भी पता चलता है कि सरकार एक व्यक्ति पर साल भर में महज़ 14 रूपए दवाई पर खर्च कर रही है.
गौरतलब है कि मई 2017 में राज्य में स्वास्थ्य के मसले पर काम कर रहे संगठनों ने बाकायदा '14 से 40 की करें जोर आजमाइश' नाम से एक कैम्पेन चलाया था.
जन स्वास्थय अभियान से जुड़े डॉ शकील बताते है, "हमारी सरकार से ये मांग है कि दवाइयों पर अपना खर्च 14 से बढ़ाकर 40 करें, यदि सरकार ऐसा करती है तो सभी को दवाएं उपलब्ध हो पाएगी जो बड़ी राहत होगी, खासतौर पर दलितों और मुस्लिम समाज को जिन्हें स्वास्थ्य की मूलभूत सरकारी सुविधा बहुत मुश्किल से मिल पाती है."
जन स्वास्थय अभियान की रिपोर्ट में भी देखें तो दलित और मुसलमान हाशिए पर है. सर्वे बताता है कि सामान्य जाति के 72 फीसदी, दलित 76 फ़ीसदी और मुस्लिम समाज की सिर्फ़ 56 फ़ीसदी आबादी सरकारी अस्पताल में प्रसव के लिए जाते हैं. सर्वे में शामिल 74 फीसदी दलित और 40 फ़ीसदी मुसलमान स्वास्थ्य खर्चों के चलते कर्ज की ज़द में चले गए है.
समस्तीपुर के फुलेश्वर राम का परिवार भी कर्ज़ में डूबा है. उनके परिवार में 6 लोगों की मौत हो चुकी है. मौत की वजह है किडनी का फेल होना. इसी किडनी की बीमारी से फुलेश्वर भी गुजर रहे हैं.
फुलेश्वर डायलेसिस पर चल रहे है. वो बताते हैं, "इलाज के चलते ज़मीन तक बिक गई इलाज में, गले तक कर्ज़ में डूबे हैं, ज़िंदगी घसीट रहे है जब तक चल रही है."
ठोस बदलाव की ज़रूरत
गौरतलब है कि बिहार में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति लोगों का विश्वास इतना कम है कि सिर्फ 14 फीसदी लोग ही ओपीडी में जाते हैं. डा शकील कहते हैं, "बहुत बड़े और ठोस बदलाव की ज़रूरत है, नहीं तो तस्वीर बहुत भयावह होगी."
इस बीच राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय स्वीकारते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बिगड़ा है लेकिन विभाग की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद उन्होंने कई मोर्चो पर काम किया है.
बीबीसी से बातचीत मे उन्होंने कहा, ''बीते 6 माह मे दवाई की आपूर्ति, अस्पतालों की साफ़ सफाई, टीकाकरण, गर्भवती महिलाओं की देखभाल पर खास ध्यान दिया गया है.''
''इसके अलावा राज्य मे नए मेडिकल कॉलेज खोलने, नर्सेज ट्रेनिंग, 7000 ANM (दाई) की नियुक्ति के मामले संबंधी नीतिगत मसलों पर भी अच्छी प्रगति हुई है.''
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