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अच्छे जीवाणु: मां के वजाइना का ये तरल पदार्थ 'रामबाण'

क़ुदरत ने इंसान को हर तरह के हालात और माहौल से लड़ने की ताक़त दी है. मां के पेट से बाहर आने के साथ ही बच्चा माहौल से लड़ने लगता है.

बच्चे के जन्म के समय मां की योनि या वजाइना से तरल पदार्थ निकलता है, जिसमें ऐसे बैक्टीरिया होते हैं, जो बच्चे में बीमारियों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाते हैं.

लेकिन जो बच्चे ऑपरेशन के ज़रिए पेट से निकाले जाते हैं

By BBC News हिन्दी
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फ़ाइल फोटो
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क़ुदरत ने इंसान को हर तरह के हालात और माहौल से लड़ने की ताक़त दी है. मां के पेट से बाहर आने के साथ ही बच्चा माहौल से लड़ने लगता है.

बच्चे के जन्म के समय मां की योनि या वजाइना से तरल पदार्थ निकलता है, जिसमें ऐसे बैक्टीरिया होते हैं, जो बच्चे में बीमारियों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाते हैं.

लेकिन जो बच्चे ऑपरेशन के ज़रिए पेट से निकाले जाते हैं, उन्हें मां से ये नेमत हासिल नहीं होती.

तो, क्या ऐसे बच्चों में रोगों से लड़ने की ताक़त बढ़ाने के लिए मां के वजाइना से ये तरल पदार्थ निकाल कर बच्चे पर लेप कर देना चाहिए.

क्या वज़ाइनल सीडिंग स्थाई उपाय है?

हालांकि, आज वजाइनल सीडिंग का चलन बहुत बढ़ गया है. लेकिन, ये स्थायी उपाय नहीं है. वजाइनल सीडिंग का मक़सद है, बच्चे को वो सारी ज़रूरी चीज़ें मुहैया कराना, जो उसे पैदाइश के समय नहीं मिलीं.

यानी बच्चे को मां से मिलने वाले तमाम अच्छे बैक्टीरिया मुहैया कराना, ताकि बच्चे में बीमारियों से लड़ने की ताक़त पैदा हो सके. पैदाइश के समय बच्चे का इन बैक्टीरिया से संपर्क में होना बहुत ज़रूरी है.

ये बैक्टीरिया बच्चे के लिए कितने ज़रूरी हैं, ये जानने के लिए ब्रिटेन से लेकर कनाडा में तमाम शोध चल रहे हैं.

ऐसा ही एक प्रयोग ब्रिटेन की बर्मिंगम यूनिवर्सिटी में किया गया. क़ुदरती तौर पर योनि से निकलने वाले इस लिक्विड और वजाइनल सीडिंग से पैदा किए गए लिक्विड की तुलना की गई. देखा गया कि दोनों में बहुत फ़र्क़ था.

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बच्चे की नॉर्मल डिलिवरी के वक़्त वजाइना से निकलने वाला लिक्विड बच्चे को कम से कम एक साल तक रोगों से लड़ने की ताक़त देता है, जबकि ऑपरेशन से पैदा होने वाले बच्चों में इसकी कमी रह जाती है.

नॉर्मल और सिज़ेरियन डिलीवरी

सामान्य पैदाइश के वक़्त नवजात बच्चे का कीटाणुओं से पहला सामना उस वक़्त होता है, जब वो मां की योनि और आंतों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से मुख़ातिब होता है.

वहीं सिज़ेरियन डिलिवरी वाले बच्चे का बैक्टीरिया से पहला सामना त्वचा पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया से होता है. दोनों में बहुत फ़र्क़ होता है.

बर्मिंघम यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर पीटर ब्रोकेलहर्स्ट के मुताबिक़ ऑपरेशन से पैदा होने वाले बच्चों में सांस की तकलीफ़ ज़्यादा जल्दी पनपती है.

इसके साथ ही ऐसे बच्चे किसी भी तरह की एलर्जी का शिकार भी जल्दी हो जाते हैं.

इसकी वजह ये है कि उसे बैक्टीरिया से लड़ने की जो ताक़त मां की योनि में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से मिलती है, वो मिल नहीं पाती.

किसी भी शरीर की बुनियाद कोशिकाएं होती हैं. और कोशिकाओं से मिलकर बनता है जीनोम यानि जीन.

अगर हम इंसान के शरीर में पायी जाने वाली कोशिकाओं को बैक्टीरिया, वायरस और सिंगल सेल वाले जीव आर्किया में न बांटें, तो नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं.

किसी भी इंसान के शरीर में मौजूद कुल कोशिकाओं में महज़ 43 फ़ीसदी ही इंसान की अपनी सेल्स होती हैं. बाक़ी सेल या कोशिकाएं, ऐसे ही एक कोशिका वाले जीवों की होती हैं. इनमें फफूंद से लेकर बैक्टीरिया, वायरस और आर्किया कोशिकाएं शामिल हैं.

इंसान की किसी भी कोशिका में 20 हज़ार के आस-पास जीनोम होता है, जिससे किसी इंसान की बनावट तय होती है.

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सांकेतिक तस्वीर
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मगर हम इंसान के शरीर में पाये जाने वाले बैक्टीरिया वग़ैरह के जीनोम को जोड़ दें, तो हमारे शरीर में क़रीब दो करोड़ छोटे जीवों के जीन होते हैं.

ये किसी भी इंसान का का दूसरा जीनोम यानी बायोडेटा कहा जाता है. इसी से हमारी बीमारियां जैसे एलर्जी, मोटापा, डिप्रेशन या भूल जाने की आदत और यहां तक कि बीमारियों पर दवाओं का कितना असर होगा, ये भी तय होता है.

इंसान की रोगों के लड़ने की ताक़त और कीटाणुओं का पहला आमना-सामना काफ़ी अहम होता है.

जब बच्चा अपनी मां की योनि से बाहर रहा होता है, तब पहली बार उसका सामना मां की योनि और खाने की नली के रास्ते में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से होता है.

तभी उसकी रोगों से लड़ने की क़ुव्वत का पहला इम्तिहान होता है.

ये नए जीव और कीटाणुओं के बीच होने वाला टकराव भर नहीं है, बल्कि ये दोनों के बीच संघर्ष के गहरे रिश्ते की निशानी है.

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माइक्रोबायोम बच्चों के लिए कितने अहम?

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रोफ़ेसर ग्राहम रूक कहते हैं कि ये माइक्रोबायोम बच्चों के लिए इस तरह अहम हैं क्योंकि ये बच्चों के शरीर को इस बात का तजुर्बा कराते हैं कि बीमारियों का हमला होने पर उसे किस तरह अपना बचाव करना है.

माइक्रोब्स यानी कीटाणु और वायरस वग़ैरह, कई तरह के केमिकल छोड़ते हैं जो हमारे इम्यून सिस्टम यानी बीमारियों से लड़ने की ताक़त को सारी उम्र के लिए मज़बूत बनाते हैं.

बच्चे में पैदाइश के पहले हफ़्ते या महीने तक इम्यून सिस्टम तेज़ी से मज़बूत होता है. अगर इस समय बच्चे को एंटी-बायोटिक ज़्यादा दी जाती हैं, तो, वो माइक्रोबायोटा को अपना काम करने से रोकती हैं. नतीजतन बच्चे का इम्यून सिस्टम कमज़ोर रह जाता है.

उसको बीमारियां जल्द पकड़ लेती हैं. इसीलिए बच्चों को तंदरुस्त रखने के लिए ही आज वजाइनल सीडिंग का चलन बढ़ रहा है.

सांकेतिक तस्वीर
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बच्चे का इम्यून सिस्टम कितना मज़बूत होगा, ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि पैदाइश के बाद बच्चे को किस तरह के घर में रखा जा रहा है.

रिसर्च से साबित होता है कि जिन घरों में कुत्ते पल रहे होते हैं, वहां बच्चों को सांस की तकलीफ़ कम होती है. तर्क है कि पालतू कुत्ते घर के बाहर जाते हैं और अपने पैरों में तरह-तरह की मिट्टी लपेट लाते हैं.

इन्हीं मिट्टी भरे पैरों के साथ वो पूरे घर में घूमते हैं. इस मिट्टी में कई तरह के कीटाणु, वायरस और आर्किया होते हैं. ये बच्चे में बीमारियों से लड़ने की क्षमता मज़बूत करते हैं.

अच्छे बैक्टीरिया की दो क़िस्में आम तौर पर पाई जाती हैं. एक है ओसिलोस्पिरा, जिसका ताल्लुक़ इम्यून सिस्टम की मज़बूती से है. दूसरे अच्छे बैक्टीरिया का नाम है रूमिनोकोकस, जो बच्चों को किसी भी तरह की एलर्जी से लड़ने की ताक़त देता है.

जब मां बच्चों को दूध पिलाती हैं, तो भी बहुत तरह के बैक्टीरिया मां से बच्चे में दाखिल होते हैं. इसके लिए क़रीब 80 हज़ार बच्चों के मल का परीक्षण किया जा रहा है. बेबी बायोम स्टडी के ज़रिए रिसर्चर ये पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कौन से कीटाणु शरीर के साथ सबसे पहले जुड़ते हैं. और समय गुज़रने के साथ उनका क्या काम रह जाता है.

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बाइफ़िडोबैक्टीरिया

रिसर्चरों के मुताबिक़ बाइफ़िडोबैक्टीरिया बच्चों में सबसे ज़्यादा कारगर होते हैं. ये बच्चे के शरीर में पहले दिन से घर कर लेते हैं. माना जाता है कि ये बैक्टीरिया मां के दूध की चीनी खा जाता है. ये बैक्टीरिया मां से ही बच्चे में दाख़िल होता है.

दुनिया भर से जो 80 हज़ार बच्चों का मल इकट्ठा किया जा रहा है, वो कैम्ब्रिज के वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट में पढ़ा जाएगा. इसकी लैब में काम करने वाले वैज्ञानिक डॉक्टर ट्रेवर लॉले ये पता लगाने की कोशिश में हैं कि नवजात में कितनी तरह के बैक्टीरिया अपना घर बनाते हैं. और आगे ज़िंदगी में इनका क्या असर होता है.

फिर लैब में ऐसे बैक्टीरिया तैयार करके सिज़ेरियन से पैदा होने वाले बच्चों के शरीर में डाले जाएंगे, ताकि वो रोगों से लड़ने की ताक़त हासिल कर सकें.

हालांकि नई तरह की तकनीक के सहारे मां से बच्चे को मिलने वाले कीटाणु आर्टिफ़िशियल तरीक़े से बच्चे को दिए जा सकते हैं, जो बच्चे के लिए ज़रूरी हैं.

लेकिन इसके साथ बीमारियों वाले कीटाणु भी शरीर में दाखिल होने का ख़तरा बना रहता है. इसीलिए, अभी इस रिसर्च को दुधारी तलवार ही कहा जा रहा है. जो फ़ायदेमंद भी हो सकती है, और नुक़सानदेह भी.

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