#Go BacK Modi: तमिलों का दर्द साझा करके ही तमिलनाडु में दूर होगी बीजेपी की बाधा
बेंगलुरू। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब-जब दक्षिणी राज्य तमिलनाडु दौरे पर होते हैं 'गो बैक मोदी' के नारों से उनका सामना होता है। एक बार फिर ट्वीटर पर गो बैक मोदी नंबर वन ट्रेंड कर रहा है जब प्रधानमंत्री मोदी भारत यात्रा पर आ रहे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से द्विपक्षीय चर्चा के लिए चेन्नई पहुंचे। चेन्नई में एम्स का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी केरल दौरे पर भी जाएंगे।
तमिलनाडु में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ चेन्नई गो बैक मोदी के पोस्टर लगाए गए हैं और विरोध में काले झंडे के साथ काले गुब्बारे भी छोड़ गए हैं। हालांकि गो बैक मोदी के पीछे क्षेत्रीय राजनीति पार्टियों को एक बारगी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जैसा बीजेपी और उसके कार्यकर्ता अक्सर करते हैं, जो कि सच्चाई से कोसो दूर है। प्रधानमंत्री मोदी के लिए आम तमिलनाडु जनता के मन में भी 'वेलकम बैक मोदी' का मनोभाव कभी उत्पन्न नहीं होते हैं।
इसके पीछे कई कारण है, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि दिल्ली में सत्तासीन अब तक की सरकारों ने कभी तमिलनाडु का दर्द का साझा करने की कोशिश नहीं की। इतिहास खंगालेंगे तो पाएंगे कि तमिलनाडु में प्रधानमंत्री मोदी को ही नहीं, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी को भी तमिल जनता का विरोध सहना पड़ा है और उनके तमिलनाडु दौरों के दौरान विरोध में काले झंडे और काले गुब्बारे दिखाए गए हैं।
दरअसल, तमिलनाडु की जनता दर्द स्वाभाविक है, क्योंकि पिछले 70 वर्षों में दिल्ली में सत्तासीन हुई राजनीतिक दलों द्वारा देश के भू-भागों के विकास में योगदान के लिए राजनीतिक चश्मे का इस्तेमाल किया और विविधता से भरे हिंदुस्तान पर शासन के लिए लोगों को उनके जाति, रंग और धर्म में बांटकर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया। इसके लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी, क्योंकि पिछले 60-65 वर्षों तक हिंदुस्तान पर परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस ने ही शासन किया है।
वोट बैंक पॉलिटिक्स का खामियाजा ही कहेंगे कि दिल्ली में बैठी सरकारों ने उन राज्यों में अधिक सक्रियता दिखाई जहां सत्ता की चाभी छुपी हुई थी, लेकिन उन राज्यों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया जो भौगोलिक रूप से दिल्ली से दूर थी। इनमें दक्षिण भारतीय राज्यों के साथ-साथ नॉर्थ-ईस्ट राज्य का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता हैं, जहां कि मूलभूत समस्याओं को भी एड्रेस करने में भी कई दशक लग गए।
वर्ष 2014 में देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले पीएम नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में देश के विभिन्न हिस्सों में रहे, लेकिन प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद मोदी ने उन राज्यों के विकास के लिए आह्वान किया जो राजनीतिक चश्मे की वजह से देखे जाने के चलते विकास के क्रम में काफी पीछे छूट गए थे।
इनमें नॉर्थ-ईस्ट राज्यों के नाम लिए जा सकते हैं। बांग्लादेश, म्यांमार, चीन और नेपाल से सटे राज्यों के कई राज्यों में दिल्ली की सत्तासीन सरकारों की अनदेखी के चलते विद्रोह के सुर भी उठने लगे। मिजोरम, नागालैंड और असम के उदाहरण लिए जा सकते हैं, जहां फिलहाल विकास की ज्योति की शांति बहाली में बड़ा योगदान किया है।
नॉर्थ-ईस्ट राज्यों की तरह ही दक्षिण भारतीय राज्यों के खिलाफ भी दिल्ली में बैठी सरकारों की अनदेखी करने का आरोप लगता है, जहां नॉर्थ-ईस्ट राज्यों की तरह विकास के नामर पर महज योजनाएं और स्कीमों चलाई गईं। यही कारण है कि दक्षिण भारतीय राज्य की जनता के मन में आज भी केंद्र में सत्तासीन सरकारों के प्रति गुस्सा है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी कई बार तमिलनाडु के दौरे पर जा चुके हैं, जहां हर बार उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा है और ट्वीटर पर उनके खिलाफ गो बैक मोदी कैंपेन ट्रेंड करवाया गया है। इसे पूर्ववर्ती केंद्र की सत्ता में रही सरकारों के दक्षिण भारतीय राज्यों के खिलाफ किए गए सौतलेपन व्यवहार का रिफलेक्शन माना जा सकता है।
हालांकि तमिलनाडु में मोदी विरोध के कई और भी कारण है। इनमें कावेरी पानी विवाद, जलीकट्टू विरोध, बीफ बैन, राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को थोपा जाना प्रमुख हैं। जानिए गो बैक मोदी के लिए जिम्मेदार हैं कौन-कौने से मुद्दे?
यह भी पढ़ें- Pm Modi-Xi Jinping Meet Live Updates: चेन्नई पहुंचें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, तय समय से पहले उतरा एयरक्राफ्ट
पीएम मोदी नहीं सुलझा पाए कावेरी वाटर शेयरिंग विवाद!
वर्तमान में कावेरी वाटर शेयरिंग का मुद्दा तमिलनाडु की जनता के लिए प्रधानमंत्री मोदी के विरोध की सबसे बड़ी वजह है। माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु प्रदेश के पक्ष में किए गए फैसले के बावजूद केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी सरकार ने महज कर्नाटक की राजनीति के लिए कावेरी पानी के बंटवारे के लिए फार्मूले को लागू नहीं किया, जिससे तमिलनाडु की जनता के मन में मोदी के खिलाफ गुस्सा पनपाने में योगदान किया। तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टियों ने इसका फायदा उठाया और कावेरी पानी शेयरिंग को मुद्दे को बीजेपी और मोदी के खिलाफ जमकर इस्तेमाल किया गया।
जलीकट्टू पर प्रतिबंध पर प्रधानमंत्री मोदी ने नहीं लिया स्टैंड!
जलीकट्टू खेल का विरोध और गाय मांस पर प्रतिबंध लगाने से जैसे मुद्दे भी तमिलनाडु की जनता के मन में प्रधानमंत्री मोदी के लिए गुस्सा भड़काने के लिए काफी था। गाय माता का मुद्दा बीजेपी के लिए उत्तर भारत में जहां मलाईदार साबित हुआ, लेकिन तमिलनाडु में हिंदू और हिंदुत्व की राजनीति को वहां की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया, क्योंकि गाय के ऊपर बात करने वाली बीजेपी ने गायों के कल्याण के लिए कुछ ऐसा नहीं किया, जिससे बीजेपी के सिद्धांतों पर लोगों में भरोसा जग सके, जिसे वहां की जनता ने बीजेपी का प्रायोजित राजनीति प्रपंच मान लिया।
तमिलनाडु में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का होता रहा है विरोध
हिंदी भाषा को जबरन पूरे देश थोपने को लेकर भी तमिलनाडु के लोगों में गुस्सा रहता है। हाल ही में हिंदी दिवस पर गृह मंत्री अमित शाह द्वारा दिया गया बयान भी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ गया जब अमित शाह ने एक राष्ट्र और एक भाषा कहकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में बयान दिया। हालांकि विरोध के बाद अमित शाह ने सफाई दी, लेकिन तब तक तीर कमान से छूट चुकी थी। क्षेत्रीय दलों ने अमित शाह के बयान का विरोध किया। लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के बारे में यह राय बनाने में देर नहीं लगाया कि मोदी भी आरएसएस की विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रहे हैं।
PM के हाइड्रो कार्बन योजना पर तमिलनाडु को था एतराज
इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी के हाइड्रो कार्बन और मिथेन योजना पर भी तमिलनाडु ने ऐतराज किया, जिसकी वजह से हजारों एकड़ खेतिहर जमीन के बंजर होने का खतरा था। जबकि मोदी सरकार वैकल्पिक ऊर्जा के लिए तेल और पेट्रोलियम गैस आयात करने के बजाय बॉयोगैस प्लांट के जरिए वैकल्पिक ऊर्जा पैदा कर सकती है, जिससे खेतिहर जमीन को बर्बाद होने से बचाने के साथ शहरों के कचड़ों का प्रोडेक्टिव इस्तेमाल किया जा सकता था।
तमिलनाडु में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर नहीं है क्रेज
तमिलनाडु में प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी की स्वीकार्यता इसलिए भी नहीं बढ़ रही है, क्योंकि दक्षिण भारतीयों में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर वो क्रेज नहीं है, जो उत्तर भारतीयों में हैं। यह अलग बात है कि तमिलनाडु में बहुसंख्यक हिंदू ही है, जहां उनकी जनसंख्या करीब 89 फीसदी है। बावजूद इसके तमिलनाडु के हिंदु बहुसंख्यक कट्टर हिंदुत्व की ओर आस्थावान नहीं है, इसके पीछे तमिलनाडु की शैक्षणिक स्तर और संस्कृति को श्रेय दिया जाता है, क्योंकि तमिल हिंदुत्व के मूल वसुधैव कुटुंबकम को सर्वोपरि मानते हैं।