गिरीश कर्नाड जब 'मैं भी शहरी नक्सल' का बोर्ड उठाकर चल दिए थे
कई लोग उनके निधन के बाद भी सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों में उनके लिए सख़्त लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले कुछ सालों में विभिन्न मसलों पर उन्होंने अपना अलग रुख़ रखा, फिर चाहे वो अठारहवीं सदी के शासक टीपू सुल्तान का मुद्दा रहा हो या फिर नोबेल विजेता साहित्यकार वीएस नायपॉल का या फिर शहरी नक्सल का मुद्दा.
गिरीश कर्नाड की पहचान नाटककार, लेखक और निर्देशक के रूप में रही है. लेकिन, कई मायनों में उन्हें न सिर्फ़ कर्नाटक बल्कि देश में 'अंतरात्मा की आवाज़ सुनने' वाले के रूप में जाना जाता रहा है.
कई लोग उनके निधन के बाद भी सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों में उनके लिए सख़्त लफ़्ज़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले कुछ सालों में विभिन्न मसलों पर उन्होंने अपना अलग रुख़ रखा, फिर चाहे वो अठारहवीं सदी के शासक टीपू सुल्तान का मुद्दा रहा हो या फिर नोबेल विजेता साहित्यकार वीएस नायपॉल का या फिर शहरी नक्सल का मुद्दा.
लेकिन सच्चाई यही है कि कर्नाड सही मायने में ऐसे बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने किसी को नहीं बख्शा. वह अपने विचारों को व्यक्त करने में क़त्तई नहीं हिचकिचाते थे और वो भी अपने अंदाज़ में, फिर चाहे सत्ता में कांग्रेस की सरकार रही हो, या फिर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन.
आपातकाल का विरोध
गिरीश कर्नाड ने पहली मर्तबा सख़्त रुख़ 44 साल पहले तब अपनाया था जब वो भारतीय फ़िल्म टेलीविज़न संस्थान यानी एफ़टीआईआई के निदेशक थे. इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल का विरोध करते हुए उन्होंने एफ़टीआईआई के निदेशक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था.
आपातकाल लागू करने के तुरंत बाद सरकार ने उन्हें तत्कालीन सरकार के प्रमुख नेताओं की प्रशंसा में फ़िल्में बनाने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने इससे इनकार करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था.
17 साल बाद, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता पर अयोध्या में एक सम्मेलन आयोजित किया था. ऐसा उन्होंने तब किया था, जब वो व्यक्तिगत तौर पर वाजपेयी और रथयात्रा का नेतृत्व करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को जानते थे.
जाने-माने कन्नड़ लेखक और कर्नाटक नाटक अकादमी के पूर्व चेयरमैन के मारुलासिद्धप्पा ने बीबीसी हिंदी को बताया, "उस समय नफ़रत का ऐसा माहौल नहीं था, जैसा अब है. वह कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष में नहीं रहे. अलबत्ता वो सांप्रदायिक सौहार्द के तगड़े पैरोकार थे."
कर्नाड की सांप्रदायिक सौहार्द को लेकर प्रतिबद्धता बड़े पैमाने पर इतिहास के उनके गहन अध्ययन का विस्तार थी, जहाँ उन्होंने चिंतन किया और तुगलक़, द ड्रीम्स ऑफ़ टीपू सुल्तान (मूल रूप से बीबीसी रेडियो के लिए) ताले डंडा जैसे नाटक लिखे.
रंगमंच में क्रांति
कन्नड़ लेखक मल्लिका घांटी कहते हैं, "उन्होंने अपने नाटकों के लिए इतिहास और पौराणिक कथाओं का विषय के रूप में इस्तेमाल किया और रंगमंच में एक क्रांति पैदा की. लेकिन आज की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अलग हैं, जिन्हें उन्होंने देखा था, इसलिए आवाज़ उठाने वालों की संख्या में कमी आई. हालांकि कर्नाड एक ऐतिहासिक शख्सियत हैं, हमेशा समकालीन और उनके आलोचक भी इससे सहमत होंगे. उन्होंने कर्नाटक की आत्मा के रूप में काम किया."
इस तरह उन्होंने साल 2003 में कर्नाटक के चिगमंगलूर ज़िले में लेखकों के एक समूह का नेतृत्व किया, जिसने बांबाबुदंगिरी पहाड़ियों पर पहाड़ी के ऊपर बने तीर्थस्थल पर दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करने के संघ परिवार के प्रयासों का विरोध किया था.
श्री गुरु दत्तात्रेय बाबाबुदन स्वामी दरगाह के समकालिक मंदिर में मुस्लिम और हिंदू दोनों मज़हबों के लोग प्रार्थना किया करते हैं, लेकिन संघ परिवार का दावा था कि यह एक हिंदू मंदिर है और वो यहां दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करना चाहता था.
केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए कर्नाड की डॉक्यूमेंट्री को प्रोड्यूस करने वाले फ़िल्म निर्माता चैतन्य केएम कहते हैं, "हमने महसूस किया कि तब तत्कालीन (कांग्रेस) सरकार ठीक से काम नहीं कर रही थी. हमने वहाँ जाने का फ़ैसला किया. जब हम वहाँ पहुँचे तो पुलिस ने हमें बताया कि किसी को जाने नहीं दिया जाएगा. तब कर्नाड ने पुलिस से कहा कि वो हमें गिरफ़्तार कर सकते हैं."
चैतन्य ने कहा, "मैंने बाद में उनसे पूछा कि वह गिरफ्तारी देने के लिए क्यों राज़ी हुए. उन्होंने मुझे बताया कि हमारे प्रदर्शन का मूल आधार ही ये था कि हम क़ानून का सम्मान करते हैं. जो लोग धर्मस्थल को लेकर उपद्रव मचा रहे हैं, वो क़ानून का सम्मान नहीं कर रहे. इसी तरह, हमें उन्हें ये बताने की ज़रूरत है कि देश के क़ानून का सम्मान किया जाना चाहिए."
लेखक रेहमत तारिकेरे कहते हैं, "वह पारंपरिक सांचे में ढले व्यक्ति नहीं थे. मौलिक रूप से, कर्नाड समाज की ऐसी शख़्सियत थे जो जीवंत लोकतंत्र में यक़ीन करता था. वो हर उस शासन का विरोध करते थे जो प्रतिगामी था."
कर्नाटक सांप्रदायिक सदभाव मंच के सदस्य प्रोफ़ेसर वीएस श्रीधर कहते हैं, "उन्होंने समाज में जो कुछ चल रहा है, हमेशा उसका जवाब दिया. वह निश्चित तौर पर समाज के हिंदूकरण के ख़िलाफ़ थे."
नायपॉल का विरोध
लेकिन वो सिर्फ़ मौजूदा शासन व्यवस्था के ही ख़िलाफ़ नहीं थे. कुछ साल पहले मुंबई के साहित्य सम्मेलन में उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल को लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार सम्मान दिए जाने के लिए आयोजकों की आलोचना की थी.
तब कर्नाड के हवाले से कहा गया था, "वह (नायपॉल) निश्चित रूप में हमारी पीढ़ी के महान अंग्रेज़ी लेखकों में से हैं. लेकिन इंडिया- ए वुंडेड सिविलाइजेशन किताब लिखने से लेकर उन्होंने कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ा जब वो मुसलमानों के ख़िलाफ़ न दिखे हों और मुसलमानों पर पाँच शताब्दियों तक भारत में बर्बारता करने का आरोप न लगाया हो."
2014 के लोकसभा चुनावों के ठीक बाद एक ऑनलाइन वेबसाइट को दिए एक इंटरव्यू में कर्नाड ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार चलाने में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'कमज़ोर दिलवाला' बताया था.
पिछले साल, गौरी लंकेश की पहली बरसी पर कर्नाड ने मौन प्रदर्शन किया था. इस दौरान वो एक प्लेकार्ड पहने दिखाई दिए थे, जिसमें लिखा था '#Metoo Urban Naxal यानी मैं भी शहरी नक्सल.'
उनका तर्क एकदम स्पष्ट था. "अगर ख़िलाफ़ बोलने का मतलब नक्सल है, तो मैं शहरी नक्सल हूँ."
चैतन्य कहते हैं, "एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी के रूप में उन्होंने किसी भी राजनीतिक दल का पक्ष नहीं लिया. जो भी सत्ता में था उन्होंने उसकी आलोचना करने में वो पीछे नहीं रहे."
Actor and playwright Girish Karnad arrived at the event commemorating Gauri Lankesh's first death anniversary wearing a board saying "Me too Urban Naxal". #GauriLankesh #GauriDay pic.twitter.com/j18gjWUY5f
— Arun Dev (@ArunDev1) 5 September 2018
रहमत का कहना है कि कर्नाड पिछले कुछ वर्षों से यूआर अनंतमूर्ति और पी लंकेश जैसे लेखकों की मौत के बाद वो खुलकर लोगों के सामने आने लगे थे. "उन्होंने उनकी जगह भरी, लेकिन कभी भी राजनीतिक रूप से किसी के पक्ष में झुकने की कोशिश कभी नहीं की."
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