गिलानी ने छोड़ा हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का साथ, क्या कश्मीर घाटी पर पकड़ खोते जा रहे हैं अलगाववादी?
श्रीनगर। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के संस्थापक और कश्मीर घाटी के कट्टर अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी ने अब पार्टी छोड़ दी है। उन्होंने हुर्रियत को क्यों अलविदा कहा, इस बारे में तो कोई जानकारी सामने नहीं आई है मगर कहा जा रहा है कि गिलानी ने खराब स्वास्थ्य के चलते यह फैसला लिया। उनका जाना यह बताने के लिए काफी है कि पार्टी बड़े स्तर पर अब प्रभावहीन साबित हो रही है। जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटे एक साल होने को हैं। पांच अगस्त को एक साल पूरा हो जाएगा जब केंद्र सरकार ने एतिहासिक फैसला लिया और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया।
यह भी पढ़ें-अनंतनाग: जम्मू जोन का डोडा जिला Terrorist Free
केंद्र शासित राज्य बनने के बाद कमजोर पड़ी राजनीति
जम्मू कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित राज्य बनने के बाद कहीं न कहीं हुर्रियत की राजनीति भी कमजोर हुई। वह जिस एजेंडे को आगे बढ़ा रही थी, वह 370 के हटने के साथ ही शायद पीछे रह गया है। गिलानी के इस्तीफ से इस बात का इशारा मिलता है। गिलानी घाटी के एक ऐसे अलगाववादी नेता हैं जो जबसे सक्रिय हैं तब से ही भारत विरोधी बातें करते आ रहे हैं। उनका कद घाटी में कितना बड़ा है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उनकी एक अपील पर घाटी के युवा पत्थरबाजी को आगे आ जाते थे। गिलानी की अपील पर घाटी में बंद होता और फिर युवा श्रीनगर में इकट्ठा होकर सुरक्षाबलों पर जमकर पत्थर बरसाते। कुछ विशेषज्ञ यह भी कहते हैं घाटी का पढ़ा-लिखा युवा भी अब बंदूक उठा रहा है। यह चलन बताने के लिए काफी है कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस पर से युवाओं का भरोसा खत्म हो रहा है और उनका धैयै अब जवाब दे रहा है।
इस बार नहीं आया हुर्रियत का कैलेंडर
हुर्रियत की तरफ से हर साल घाटी में कार्यक्रमों या यूं कहें कि विरोध प्रदर्शनों का कैलेंडर रिलीज किया जाता था। इस बार वह कैलेंडर नदारद है। आर्टिकल 370 के हटने के बाद घाटी में पत्थरबाजी की घटनाएं तो हुईं लेकिन अभी तक एक या दो घटनाओं को छोड़कर पत्थरबाजी की खबरें नहीं आई हैं। इसके साथ ही अब घाटी में अगर कोई आतंकी ढेर होता है तो लोगों का हुजूम जनाते में शामिल नहीं हो पाता। कहीं न कहीं साफ है कि अलगाववादी संगठन हुर्रियत घाटी के युवाओं पर अपनी पकड़ खोता जा रहा है। 13 जुलाई 1993 को कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को राजनीतिक रंग देने के मकसद से ऑल पार्टीज हुर्रियत कांफ्रेंस (एपीएससी) का गठन हुआ। यह संगठन उन तमाम पार्टियों का एक समूह था जिसने वर्ष 1987 में हुए चुनावों में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन के खिलाफ आए थे।
युवाओं का भरोसा खो रही है हुर्रियत
विशेषज्ञ मानते हैं कि कश्मीर के युवा अब पार्टी की विचाराधारा पर भी ज्यादा यकीन नहीं रखते हैं। अलग-अलग विचारधारा वाले इस संगठन में शामिल लोग जम्मू कश्मीर पर एक ही राय रखते थे। सभी मानते थे कि जम्मू कश्मीर भारत के अधीन है और सबकी मांग थी कि लोगों की इच्छा के मुताबिक इस विवाद का एक निर्धारित नतीजा निकाला जाए। घाटी में जब आतंकवाद चरम पर था इस संगठन ने घाटी में पनप रहे आतंकी आंदोलन को राजनीतिक चेहरा दिया और दावा किया कि वे लोगों की इच्छाओं को ही सबके सामने रख रहे हैं।इस संगठन ने दो अलग-अलग लेकिन मजबूत विचारधाराओं को एक साथ रखा। एक विचारधारा के लोग वे थे जो जम्मू कश्मीर की भारत और पाकिस्तान दोनों से आजादी की मांग करते थे तो दूसरी विचारधारा के लोग वे थे जो चाहते थे कि जम्मू कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाए।
आर्टिकल 370 हटने के बाद बड़े नेताओं पर रोक नहीं
आर्टिकल 370 हटने के बाद घाटी के मुख्य धारा में शामिल माने जाने वाले शीर्ष राजनेताओं को या तो हिरासत में रखा गया या फिर उन्हें घरों में ही नजरबंद किया गया। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अधिकतर नेताओं पर ऐसी कोई रोक सरकार की तरफ से नहीं लगाई गई थी। इसकी जगह खास अलगाववादी नेता जैसे यासीन मलिक, शब्बीर शाह, आसिया अंद्राबी को आर्टिकल 370 हटने से बहुत पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था। गिलानी यूं तो आधिकारिक तौर पर घर में नजरबंद नहीं थे लेकिन उन्हें मीडिया से बात करने की भी मंजूरी नहीं थी। हालांकि कुछ समय बाद खबर आई थी कि गिलानी को घर में नजरबंद किया गया है। हुर्रियत के टॉप नेता माने जाने वाले मीरवाइज उमर फारूक भी किसी तरह की हिरासत में नहीं रखे गए।