'अर्थव्यवस्था आंकने का बेतुका पैमाना है जीडीपी'
कुछ पर्यवेक्षकों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि ये महज कुछ दशकों की बात है जब जापान दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और तीसरा सुपरपावर बन जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.
इसके बजाय 1990 में जापान के स्टॉक मार्केट और प्रॉपर्टी मार्केट दोनों धराशायी हो गए. करीब तीन दशक के बाद भी अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है.
डेविड पिलिंग के मुताबिक वो वहां ऐसे कई लोगों से मिले जिन्होंने उनसे कहा, ''अगर यह मंदी है तो मुझे यह पसंद है.''
ब्रिटेन के इतिहास में 2016 में सबसे बड़ी मात्रा में कोकीन बरामद की गई. एक अंतरराष्ट्रीय ऑपरेशन के बाद स्कॉटलैंड में 3.2 टन कोकीन जब्त की गई.
तब उसकी कीमत 7200 लाख अमरीकी डॉलर बताई गई थी.
ब्रिटिश सरकार के लिए ये यकीनन एक अच्छी ख़बर थी. लेकिन ब्रिटिश राष्ट्रीय सांख्यिकी के उप राष्ट्रीय सांख्यिकीविद और आर्थिक सांख्यिकी के महानिदेशक जोनाथन एथो कहते हैं कि ये ब्रिटिश सरकार के लिए अच्छी ख़बर है मगर जीडीपी के लिहाज से नहीं.
वो कहते हैं, '' दिलचस्प ये है कि ड्रग्स की तस्करी को आर्थिक उत्पादन मापने में शामिल किया जाता है.''
वास्तव में ब्रिटेन एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो ऐसा करता है. लेकिन क्यों?
वो कहते हैं, ''जीडीपी अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रदर्शन का एक बुनियादी माप है जो अंतरराष्ट्रीय मानकों पर आधारित है और अलग-अलग देशों में अलग-अलग ड्रग्स को क़ानूनी मान्यता प्राप्त है. उन देशों के बीच ऐसी स्थिति से बचने के लिए कि हम उन ड्रग्स की ग़िनती करते हैं जो अवैध हैं.''
ब्रिटेन के फ़ाइनेंशियल टाइम्स के एसोसिएट प्रोफेसर डेविड पिलिंग कहते हैं, ''जीडीपी अच्छी आर्थिक गतिविधियों और ख़राब आर्थिक गतिविधियों के बीच अंतर नहीं करता है. उदाहरण के लिए जीडीपी में बच्चों के जीवन को बचाने वाली गोलियां और उन्हें मारने वाली गोलियों के उत्पादन के बीच फ़र्क नहीं किया जाता.''
यह जीडीपी की विलक्षणताओं में से एक है.
जीडीपी मापने का सिद्धांत और बहस
जीडीपी एक निश्चित अवधि के दौरान किसी देश में वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कुल क़ीमत है और इसे उस देश की संपत्ति को दर्शाने के इंडिकेटर के रूप में लिया जाता है.
एथो कहते हैं, ''इससे ये जानने में मदद मिलती है कि सरकार को टैक्स के रूप में कितना धन मिलेगा और वो ये तय कर सकेगी कि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाओं पर कितना खर्च कर सकती है.''
ये बात समझने के लिए कि जीडीपी किस चीज़ के लिए उपयोगी है और ये हमें क्या कुछ नहीं बताती, हमें 1930 के दशक में जाना होगा.
ये वो दशक था जब अमरीका सबसे बड़ी मंदी के दौर से गुजर रहा था.
न्यूयॉर्क में अर्थशास्त्री साइमन कुज़नेत्स अर्थव्यवस्था को समग्र तौर पर मापने का तरीका खोजना चाहते थे ताकि देश को मंदी से उबारा जा सके.
'जीडीपीः ए ब्रीफ़ बट अफेक्शनेट स्टोरी' के लेखक और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डेयान कॉयल ने बीबीसी को बताया, ''साइमन ने सही मायने में उन सभी चीज़ों को मापने की कोशिश की जिससे अच्छा होना शुरू हो गया."
तब तक कई आंकड़े तैयार हो चुके थे. मसलन, कितनी किलोमीटर रेलवे लाइन बनी और लोहे का उत्पादन कितना हुआ. लेकिन इससे पहले किसी ने भी उन्हें जोड़ने की कोशिश नहीं की थी.
कॉयल बताते हैं, "लेकिन तब तक दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया और एक बेहद प्रभावशाली ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स ने कहा कि मुझे ये जानने की ज़रूरत नहीं है कि वहां कितनी समृद्धि है क्योंकि अभी युद्ध चल रहा है जो खुशहाली के लिए अच्छा नहीं है, मैं ये जानना चाहता हूं कि अर्थव्यवस्था में पैदावार कितनी होगी और लोगों के उपभोग के लिए ज़रूरी न्यूनतम आवश्यकताएं क्या हैं, ताकि यह जान सकूं कि युद्ध के लिए कितना अर्थ बचा है."
तब तोपखाने जैसी चीज़ों की तत्काल ज़रूरत थी. ऐसे में एक अन्य प्रकार की गणना की आवश्यकता थी. युद्ध के बीच में, जीत सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी, इसलिए उस पैमाने का फ़ोकस ही बदल गया.
युद्ध के बाद अमरीका के लिए पता करना जरूरी था कि पुनर्निर्माण के लिए मदद पाने वालों की स्थिति कैसी है, इसके लिए सभी ने जीडीपी का इस्तेमाल करना शुरू किया.
खुशहाली बनाम आर्थिक गतिविधि
कॉयल कहते हैं, ''इस एंग्लो-अमरीकी पहल को संयुक्त राष्ट्र की सराहना मिली और फिर यह एक वैश्विक मानक बन गया. हालांकि, साइमन कुज़नेत्स अपनी इस रचना से बहुत खुश नहीं थे.''
कॉयल कहते हैं, ''मैं सहमत नहीं हूं और इसे लेकर बहुत स्पष्ट भी नहीं. जीडीपी अपने मूल इरादे से बहुत अलग हो गया. अर्थव्यवस्था की खुशहाली के पैमाने की जगह यह अर्थव्यवस्था की गतिविधियों का पैमाना बन गया.''
अंतर ये है कि इसमें कई चीज़ें ऐसी होती हैं जो समाज के लिए अच्छी नहीं हैं लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी हैं. उदाहरण के लिए- यदि अपराध बढ़ता है तो वकीलों और पुलिस को अधिक तनख्वाह मिलेगी और यह जीडीपी में गिना जाएगा.
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विसंगतियों के बावजूद जीडीपी आर्थिक गतिविधियों को मापने का नंबर-1 तरीका बन गया.
तब से ही सकल घरेलू उत्पाद के अनुसार दुनिया के सबसे अमीर देशों की सूचियां बनती हैं. हालांकि, ये सभी मानव गतिविधियों का नंबर के रूप में एक कुल योग है, जिसमें आर्थिक फायदे या नुकसान के बंटवारे पर कुछ नहीं कहा गया है.
अर्थशास्त्रियों के बीच एक चुटकुला प्रतलित है:
बिल गेट्स एक बार में जाते हैं जहां सभी अरबपति हैं. यह अर्थशास्त्रियों का मजाक है इसलिए हंसी तो नहीं आ रही होगी, लेकिन इससे ये पता नहीं चलता कि बार में जो दूसरे ग्राहक आ रहे हैं उनके पास कितनी संपत्ति है, ये केवल आपको बिल गेट्स की आय के बारे में कुछ बताता है.
उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि अमरीका के घरों की औसत आय 1980 के दशक के स्तर पर ही स्थिर है. इसलिए जीडीपी में वृद्धि का एक बड़ा भाग समाज के एक खास वर्ग को ही जाता है, जो वहां की आबादी का 1 फ़ीसदी या महद 0.1 फ़ीसदी है. समाज के लिए इसमें क्या अच्छा है?
'अगर ये मंदी है तो मुझे यही चाहिए!'
हो सकता है कि आज राजनेता खुश हैं यदि उनके देश की जीडीपी बढ़ रही है, क्योंकि वो ये कह सकते हैं कि उनकी अर्थव्यवस्था बढ़ रही है.
यह बेंचमार्क है और इसे नंबर के तौर पर पेश किया जाता है. ये उस अमुक देश की आर्थिक दशा को बतलाता है.
लेकिन डेविड पिलिंग जब 2002 में फाइनेंशियल टाइम्स के संवाददाता के रूप में काम करने टोक्यो गये तो उन्होंने खुद पाया कि इन तीन अक्षरों के पीछे के अंक यानी जीडीपी का प्रतिशत किसी देश के बारे में कितनी वास्तविकता बतलाता है.
जापान वो देश है जिसकी एक वक्त पूरी दुनिया में धाक थी. जापान में उत्पादन कई गुना बढ़ गया था और ऐसा लगता था कि उन्नत तकनीक के मामले में जापान ने अमरीका को पछाड़ दिया है.
कुछ पर्यवेक्षकों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि ये महज कुछ दशकों की बात है जब जापान दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और तीसरा सुपरपावर बन जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं.
इसके बजाय 1990 में जापान के स्टॉक मार्केट और प्रॉपर्टी मार्केट दोनों धराशायी हो गए. करीब तीन दशक के बाद भी अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है.
डेविड पिलिंग के मुताबिक वो वहां ऐसे कई लोगों से मिले जिन्होंने उनसे कहा, ''अगर यह मंदी है तो मुझे यह पसंद है.''
पिलिंग कहते हैं, ''मैं यह नहीं कहता जापान में सब कुछ सही था लेकिन यदि आप जीडीपी के लिहाज से देखें तो यह वास्तविकता को बिल्कुल भी नहीं दर्शाता. मात्रा या परिमाण में बेहद उत्कृष्ट होने के बावजूद जीडीपी के पैमाने बहुत कमज़ोर हैं.''
जीडीपी और जापान
जापान में चीज़ों की गुणवत्ता अविश्वसनीय है, खाने की गुणवत्ता, सेवाएं... उनकी बुलेट ट्रेनें इसका एक उदाहरण हैं, वो कितनी पाबंद हैं इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वो सेकेंड के चौथाई भाग के बराबर भी देरी से नहीं चलतीं.
उनके समय को देखकर घड़ी मिलाई जा सकती है. जापान की बुलेट ट्रेन का मतलब ही है पैसे की बचत क्योंकि एक अनुमान के मुताबिक इससे सालाना 40 करोड़ घंटे की बचत होती है और इससे जापान की अर्थव्यवस्था को पांच हज़ार करोड़ येन का फ़ायदा होता है. यानी जापानी बुलेट ट्रेन की गुणवत्ता का कोई सानी नहीं है.
पिलिंग सवाल करते हैं, ''क्या जापान की बुलेट ट्रेन की तुलना ब्रिटेन की उन ट्रेनों से की जा सकती हैं जो लगातार लेट होती रहती हैं. ब्रिटेन की ट्रेनें लोगों के जीवन में क्या गुणवत्ता जोड़ रही हैं और यही तरीका सभी आयामों पर भी लागू होता है.''
पिलिंग के मुताबिक, ''यदि आप ऐसी कारें बनाएंगे जो हर साल क्षतिग्रस्त हों जिससे आपको दूसरी ख़रीदनी पड़े, यह जीडीपी के लिए अच्छा है. अगर हम अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचाना चाहते तो रिसाइकिल जीडीपी के लिए ख़राब है. इसलिए अर्थव्यवस्था में वृद्धि हो इसके लिए हम अधिक उत्पादन करते हैं और अधिक उपभोग करते हैं.''
लेकिन अर्थव्यवस्था हम ही हैं, अर्थव्यवस्था वैसी ही है जैसा कि हमने चुना है. अच्छी अर्थव्यवस्था का मतलब अधिक अवकाश, एक लंबा जीवन, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और शुद्ध हवा, लेकिन तभी जब हम उन चीज़ों को माप नहीं लेते. हम तो काल्पनिक सफ़लता के जोखिमों की अवहेलना करते हुए उसके साथ चलना जारी रखते हैं.
फाइनेशियल टाइम्स के एसोसिएट एडिटर कहते हैं, ''आपको यह मापना होगा कि हमारे लिए क्या ज़रूरी है. अगर आप कुछ माप नहीं सकते, बहुत संभव है कि सार्वजनिक नीतियों में इसे अनदेखा कर दिया जाएगा, सरकार विभिन्न पैमानों को माप कर उनकी मदद से नीतियां बनाती हैं. मान लीजिए कि ये एक ऐसा पैमाना तैयार करें जिससे आपकी आयु बढ़ जाए, तभी इस बात की संभावना है कि वो (सरकार) देश के लोगों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए अधिक संसाधनों का आवंटन करेगी.''
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