कैसे बिहार की सियासत में 50% से ज्यादा घटी अगड़ी जातियां ? पिछड़ों ने बढ़ाई सबसे ज्यादा हिस्सेदारी
पटना। बिहार की चुनावी राजनीति में पिछले कई दशकों में ये पहली बार हो रहा है जब जाति की जगह नौकरी और रोजगार प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा है। बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश के नेतृत्व वाला एनडीए हो या फिर तेजस्वी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रहा महागठबंधन, दोनों नौकरी, रोजगार, फैक्ट्री और कारखाने की बात कर रहे हैं। पहले चरण का चुनाव होने में मात्र 4 दिन बाकी हैं और अभी तक कहीं से भी जाति या आरक्षण जैसे मुद्दे पर बयान नहीं आए।
हालांकि चुनाव में जाति कोई मुद्दा (Caste Politics) नहीं है ऐसा भी नहीं है लेकिन ये बात भी सच है कि पिछले कई दशकों में बिहार की राजनीति में अगड़ी जातियों की हिस्सेदारी कम हुई है जबकि पिछड़ों ने सबसे ज्यादा अपनी पैठ बनाई है। राजनीति की इस रस्साकशी में अब पिछड़ी जातियों ने वो जगह हथिया ली है जो कभी अगड़ों के पास हुआ करती थी। 1952 में जिन अगड़ी जातियों की हिस्सेदारी 46 प्रतिशत थी 2015 के चुनाव में वो घटकर 20 प्रतिशत के पास पहुंच गईं। वहीं इस दौर में पिछड़ी जातियों की लोकतांत्रिक संस्थाओं में हिस्सेदारी तेजी से बढ़कर 9 प्रतिशत की जगह 46 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
80
के
दशक
में
पिछड़े
आए
आगे
पिछड़ों
की
हिस्सेदारी
में
ये
बढ़ोतरी
80
के
दशक
के
बाद
शुरू
हुई।
हालांकि
90
के
दशक
तक
इनकी
भागीदारी
30
प्रतिशत
के
नीचे
ही
रही।
1990
में
पहली
बार
पिछड़ों
की
भागीदारी
34
फीसदी
तक
पहुंची।
ये
वही
समय
था
जब
राज्य
की
राजनीति
में
लालू
यादव
की
आरजेडी
ने
सरकार
बनाई।
अगले
चुनाव
1995
में
ये
हिस्सेदारी
बढ़कर
43
फीसदी
पहुंच
गई।
2015
के
विधानसभा
चुनाव
में
पिछड़ी
जाति
की
हिस्सेदारी
46
प्रतिशत
थी।
समाजवादी
राजनीति
ने
बदली
स्थिति
वहीं
अगर
अगड़ी
जातियों
को
देखें
तो
1977
के
पहले
तक
इनकी
भागीदारी
40
फीसदी
के
ऊपर
ही
रही।
इसके
बाद
केंद्र
में
जनता
दल
की
सरकार
के
बाद
समाजवादी
राजनीति
का
दौर
आया
जिसके
बाद
इनकी
हिस्सेदारी
कम
होनी
शुरू
हुई।
1995
में
ये
जातियां
21
फीसदी
तक
पहुंच
गईं
लेकिन
2005
नीतीश
की
जेडीयू
और
भाजपा
के
सत्ता
में
आने
के
साथ
अगड़ी
जातियों
की
हिस्सेदारी
भी
बढ़कर
30
प्रतिशत
तक
पहुंची।
2015
में
समाजवादी
आंदोलन
के
चेहरे
नीतीश
और
लालू
जब
साथ
आए
तो
अगड़ी
जातियों
की
हिस्सेदारी
अब
तक
के
सबसे
कम
20
प्रतिशत
पर
पहुंच
गई।
2010
में
जहां
79
विधायक
अगड़ी
जातियों
से
चुने
गए
थे
वहीं
2015
में
इनकी
संख्या
घटकर
51
रह
गई।
इस
तरह
सिर्फ
5
साल
में
इन
जातियों
को
28
सीटों
का
झटका
लगा
था।
SC
की
भागेदारी
वैसी
की
वैसी
पिछड़े
70
सालों
में
अगड़ों
की
हिस्सेदारी
कम
होने
का
पिछड़ों
ने
लाभ
उठाया
और
अपनी
हिस्सेदारी
बढ़ाई।
वहीं
इस
दौर
में
अनुसूचित
जाति
में
कोई
सुधार
नहीं
देखा
गया।
1952
के
बाद
से
2015
तक
इन
जातियों
की
राजनीति
में
हिस्सेदारी
14
से
17
प्रतिशत
के
बीच
ही
बनी
रही।
1952
में
अनुसूचित
जाति
की
भागीदारी
13.9
फीसदी
थी
वहीं
2015
में
ये
15.6
दर्ज
की
गई।
अनुसूचित
जाति
की
इस
हिस्सेदारी
में
भी
प्रमुख
रूप
से
रविदास
और
पासवान
का
ही
कब्जा
है।
2015
में
अनुसूचित
जाति
के
39
विधायक
जीते
थे।
इनमें
38
सुरक्षित
सीटों
पर
विजयी
हुए
जबकि
एक
सीट
कांटी
से
निर्दलीय
अशोक
कुमार
ने
जीत
दर्ज
की।
39
विधायकों
में
सबसे
ज्यादा
13
विधायक
रविदास
थे
तो
11
सीट
पर
पासवान
जीते
थे।
इस
तरह
61
फीसदी
में
सिर्फ
दो
जातियां
थीं।
इसमें
अगर
पासी
और
मुसहर
की
6-6
सीटों
को
जोड़
दें
तो
4
जातियों
का
अनुसूचित
जाति
की
कुल
हिस्सेदारी
के
92
प्रतिशत
पर
कब्जा
है।
इस
तरह
अनुसूचित
जाति
की
हिस्सेदारी
जहां
कम
है
वहीं
इनमें
प्रतिनिधित्व
भी
कुछ
जातियों
के
हाथ
में
है।
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