चारा घोटाले में आरोपी लालू किताबों में पढ़वाते रहे अपनी जीवनी, फिर हुआ चैप्टर क्लोज
नई दिल्ली। 90 के बाद लालू यादव एक मजबूत राजनेता के रूप में उभरे थे। लेकिन वे अपनी सियासी ताकत को सही दिशा देने में नाकाम रहे थे। उनके आसपास खुशामदी लोगों की भीड़ जमा हो गयी थी। ऐसे लोगों ने लालू यादव को खुश करने के चक्कर में कई गलत काम किये। बाद में लालू यादव को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।। 1994 में सरकारी स्कूल के सिलेबस में लालू यादव की जीवनी को शामिल करना भी एक ऐसा ही विवादास्पद मामला था। बिहार के सरकारी स्कूलों में लालू यादव की जीवनी पढ़ाई जाने लगी थी। लालू यादव को कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री जैसा नेता बताने की कोशिश की गयी। इस पर विवाद खड़ा हो गया। इससे लोगों में यह संदेश गया कि लालू यादव आत्मप्रशंसा के लिए सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग कर रहे हैं। हद तो तब हो गयी जब 1996 में चारा घोटला के आरोप के बाद भी लालू की जीवनी को सिलेबस से नहीं हटाया गया। तब सवाल उठा कि क्या भ्रष्टाचार के आरोपी को बिहार का गौरव माना जाना चाहिए ? क्या उसकी जीवनी, स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को प्रेरित कर पाएगी ? बाद में यह मसला बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। 2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार बनी तब जा कर लालू यादव की जीवनी सिलेबस से हटायी गयी।
क्या था मामला ?
1993 में लालू यादव की हनक पूरे शबाब पर थी। इसी दौर में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रामवचन राय को विधान पार्षद बनाया था। वे हिन्दी के प्रतिष्ठित प्रोफेसर थे। लेकिन तब ये आरोप लगा था कि उनको लालू के स्वजातीय होने का लाभ मिला था। रामवचन राय और बिहार प्रसासनिक सेवा के एक अधिकारी हरिवंश नारायण के सौजन्य से ही लालू की जीवनी सिलेबस में शामिल की गयी थी। बिहार के सरकारी स्कूलों की किताब में क्या कंटेंट छपेगा, इसकी स्वीकृति प्रदान करने के लिए बिहार स्टेट टेक्स्ट बुक कमेटी का संपादक मंडल अधिकृत है। 1993 में इस संपादक मंडल के अध्यक्ष थे हिंदी के लेखक और प्रोफेसर रामवचन राय। बिहार प्रसासनिक सेवा के एक अधिकारी हरिवंश नारायण ने 'मिट्टी के गौरव' के नाम से बिहार के तीन मुख्यमंत्रियों की जीवनी लिखी थी जिसमें कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री और लालू यादव शामिल थे। इस जीवनी को हिंदी की पाठ्यपुस्तक गद्य सोपान में शामिल करने का फैसला किया गया। यह पुस्तक बिहार के सरकारी स्कूलों में आठवी कक्षा के निर्धारित थी। संपादक मंडल ने 'मिट्टी के गौरव' को इस किताब में शामिल करने की स्वीकृति दे दी। इस किताब में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा. फणीश्वर नाथ रेणु जैसे ख्यातिनाम लेखकों की रचनाएं शामिल की गयी थीं। हैरानी की बात ये है कि हरिवंश नारायण जैसे एक अति सामान्य लेखक को भी इस किताब में स्थान दे दिया गया। हरिवंश उस समय एक सरकारी मुलाजिम थे। तब आरोप लगा था कि रामवचन राय और हरिवंश नारायण ने मिलजुल कर लालू को खुश करने के लिए ऐसा किया था।
सिलेबस में लालू की जीवनी पढ़ाने पर विवाद
मुख्यमंत्री रहते आज तक किसी नेता के जीवनवृत को स्कूल की पढ़ाई में शामिल नहीं किया गया था। विपक्ष ने इस फैसले का विरोध किया और कहा कि लालू यादव ऐसी विभूति नहीं हैं कि उनकी जीवनी को सिलेबस में शामिल किया जाए। विधानसभा में कई दिनों तक हंगामा होते रहा। सदन का चलना मुश्किल हो गया था। विपक्ष सरकार को घेरता रहा। उनका कहना था कि लालू को कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री जैसा नेता बताना, बच्चों को धोखा देने के बराबर है। कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री सादगी के प्रतीक थे। खुद गरीबी में रहे, कोई सम्पत्ति नहीं बनायी। उन्होंने अपने पद का कभी फायदा नहीं उठाया। अपने परिवार वालों को कई राजनीति फायदा नहीं पहुंचाया। जब कि लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनते ही अपने लोगों को सियासी रेवड़ी बांटने लगे। इन नेताओ की लालू यादव से तुलना, उनका अपमान है। लालू यादव चाहें तो किसी निजी प्रकाशन से अपनी जीवनी छपवा कर लोगों में बांट दें। लेकिन सरकारी संस्था के माध्यम से ऐसा किया जाना सरासर गलत है। सत्ता के मद में चूर लालू यादव को ये विरोध नागवार गुजरा। जब तक लालू-राबड़ी की सरकार रही, इसे पढ़ाया जाता रहा।
नीतीश की सरकार बनी तब हटी लालू की जीवनी
नवम्बर 2005 में नीतीश कुमार की सरकार बनी। भाजपा और जदयू ने लालू की जीवनी को राजनीतिक मुद्दा बनाया था। लेकिन नीतीश सरकार उस समय चाह कर भी सिलेबस से ये चैप्टर नहीं हटा सकती थी। तब तक लाखों किताबें छप गयीं थीं। इनमें अगर कोई बदलाव होता तो सरकार को बहुत बड़ा नुकासन होता। आखिरकार सरकार ने दिसम्बर 2007 में लालू की जीवनी को हटाने का फैसला मंजूर कर लिया। गद्य सोपान से 'मिट्टी के गौरव' चैप्टर को हटा दिया गया। इसकी जगह महाराष्ट्र के महान समाजसुधारक महात्मा ज्योतिबा फूले की जीवनी को सिलेबस में शामिल किया गया। अप्रैल 2008 में जो नयी किताब छपी उसमें लालू की जीवनी नहीं थी। नीतीश सरकार के इस फैसले का तब राजद ने पुरजोर विरोध किया था।
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