कांग्रेस को बुरे सपने की तरह याद रहेगा 2020, इस साल पार्टी को लगे ये 5 बड़े झटके
नई दिल्ली। Year 2020 for Congress: साल 2020 कांग्रेस पार्टी के लिए किसी बुरे सपने की तरह रहा है। नेतृत्व की कमी से जूझ रही पार्टी को इस साल एक के बाद एक झटके लगे जिसे पार्टी चाहकर भी अगले कई वर्षों तक भूल नहीं पाएगी। इस साल कुछ नेता, जो गांधी परिवार के करीबी थे, बागी बने जिसके चलते एक राज्य में कांग्रेस को सरकार गंवानी पड़ी तो कुछ राज्यों में पार्टी के ऊपर संकट मंडराया रहा। तो कुछ ऐसे जो लम्बे समय से गांधी परिवार के अपने थे उन्होंने परिवार के खिलाफ ही आवाज उठाई। अब जब साल खत्म हो रहा है तो एक बार पार्टी के हाल पर एक नजर डाल लेनी चाहिए।
पार्टी को मध्य प्रदेश में लगा पहला बड़ा झटका
साल का पहला विधानसभा चुनाव दिल्ली में लड़ा गया जिसमें पार्टी ने लगातार दूसरी बार अपना सबसे खराब प्रदर्शन दोहराया। तीन बार दिल्ली की सत्ता में रही पार्टी को दिल्ली विधानसभा में एक भी सीट नहीं मिली।
लेकिन एक महीने बाद पार्टी को सबसे तगड़ा झटका तब लगा जब मध्य प्रदेश में उसके एक दिग्गज नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बगावत कर दी। इस बगावत ने डेढ़ साल पहले ही 2018 में बनी राज्य की कमलनाथ सरकार को गिरा दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद तो भाजपा में गए ही उनके जाने के बाद उनके समर्थन में कांग्रेस के दर्जनों विधायक पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। आखिर में कांग्रेस को अपने 25 जीते हुए विधायकों को नुकसान उठाना पड़ा और कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। इसके बाद एक बार फिर भाजपा के शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
ज्योदिरादित्य का पार्टी से जाना कांग्रेस के लिए ही नहीं बल्कि कांग्रेस की ताकत कहे जाने वाले गांधी परिवार के लिए भी झटका था। ज्योदिरादित्य सिंधिया को राहुल गांधी का करीबी माना जाता था। वे उन नेताओं में थे जो कभी भी राहुल गांधी तक पहुंच सकते थे।
23 नेताओं की पार्टी नेतृत्व को लिखी चिठ्ठी सार्वजनिक
पार्टी एक बार फिर मुश्किल में आई जब अगस्त में पार्टी के दिग्गज और लंबे समय से गांधी परिवार के करीबी रहे 23 नेताओं ने पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चिठ्ठी लिखी जो सार्वजनिक हो गई। इसमें गुलाम नबी आजाद थे जो 1998 में उस समय कांग्रेस के सचिव थे जब पार्टी ने सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था। उस समय केसरी को दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में एक कमरे में बंद कर दिया गया था और उसी दौरान सोनिया गांधी ने ऑफिस संभाल लिया था। अब वहीं आजाद कांग्रेस में सामूहिक नेतृत्व की बात कर रहे थे जिसका कि गांधी परिवार एक अविभाज्य अंग हो। सबसे खास बात यह थी कि यह समूह पार्टी में पूर्ण नेतृत्व की मांग कर रहा था।
इन दिग्गज नेताओं के चिठ्ठी सार्वजनिक होने से इस बात पर मुहर लग गई कि पार्टी के बारे में जैसा बाहर सोचा जा रहा था वैसी ही आवाजें पार्टी के अंदर से भी उठ रही हैं। इसके पहले रामचंद्र गुहा जैसे वरिष्ठ इतिहासकार कहते रहे थे कि पार्टी को गांधी परिवार से बाहर झांकना चाहिए। इस घटना ने इसे और पुख्ता किया हालांकि पार्टी के एक दूसरे वर्ग ने गांधी परिवार में ही आस्था जताई और चिठ्ठी लिखने वाले नेताओं के बारे में बुला-भला यहां तक कि भाजपा के इशारे पर काम करने का आरोप भी लगा दिया गया लेकिन इस चिठ्ठी ने आम जनता के सामने ये जरूर ला दिया कि कांग्रेस में सब ठीक नहीं है।
चुनावी राजनीति में भी पार्टी का प्रदर्शन खराब
एक तरफ जहां पार्टी के अंदर झटके लग रहे थे वहीं पार्टी ने इस साल चुनावी राजनीति में भी खास प्रदर्शन नहीं किया। अक्टूबर नवम्बर में ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें पार्टी ने पिछली बार की अपेक्षा ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने के लिए तो हासिल कर लीं लेकिन उसका प्रदर्शन पिछली बार से भी खराब रहा। पिछली बार जहां पार्टी ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 27 सीटें जीती थीं वहीं इस बार पार्टी के हिस्से में चुनाव लड़ने के लिए 70 सीट आई थीं। लेकिन परिणामों में कांग्रेस सिर्फ 19 सीटों पर ही कब्जा जमा सकी। चुनाव के बाद ये भी कहा जाने लगा कि महागठबंधन में सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस ही रही जबकि वामदलों ने कम सीट पर चुनाव लड़कर ही अच्छा प्रदर्शन किया था।
इसी नवम्बर में मध्य प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए जहां एक बार फिर कांग्रेस को अपनी ताकत दिखाने का मौका था लेकिन पार्टी यहां भी फेल हुई। इनमें 25 सीट तो वही थी जहां से इसके ही विधायक जीते थे और पार्टी बदलकर भाजपा में शामिल हो गए थे। 28 सीटों पर हुए चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 9 सीट जीतने में सफल रही और इस तरह राज्य में वापसी का सपना पूरा नहीं हो सका। वहीं गुजरात और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा।
विपक्ष भी ढूढ़ने लगा अपना नया नेता
एक तरफ पार्टी की चुनावों में हार और दूसरी तरफ संगठन में नेताओं की बगावत, इन सब बातों ने पार्टी में गांधी परिवार की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठने लगे हैं। जो कांग्रेस विपक्षी गठबंधन की धुरी कही जा रही थी वह अब गठबंधन के लिए बोझ नजर आने लगी है। लगातार चुनावों में हार के बाद अब विपक्षी दलों में भी नए नेतृत्व की आवाज उठने लगी हैं।
हाल ही में शिवसेना ने विपक्ष के लिए एक प्रभावी नेतृत्व की मांग रखी थी। इस दौरान राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार को विपक्ष का नेता बनाए जाने की मांग उठने लगी। बिहार में तो राजद ने ये तक कह दिया कि अगर नीतीश तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाएं तो पार्टी 2024 में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए अपना समर्थन देगी।
एक तरफ पार्टी नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। विपक्षी गठबंधन अपने लिए नए नेता की तलाश कर रहा है क्योंकि उसे कांग्रेस में नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है। वहीं देश भर में किसान आंदोलन कर रहे हैं। इस बीच 28 दिसम्बर को कांग्रेस के 136वें स्थापना दिवस पर खबर आई कि राहुल गांधी इसमें शामिल नहीं होंगे क्योंकि वह छुट्टियां मनाने विदेश गए हुए हैं।
अहमद पटेल का जाना
कांग्रेस के लिए एक और बड़ा झटका रहा पार्टी के सबसे बड़े रणनीतिकार का दुनिया से चले जाना। पार्टी में शुरुआत से ही सोनिया गांधी के करीबी रहे कद्दावर नेता और राज्यसभा सांसद अहमद पटेल का कोरोना से निधन हो गया। पटेल को सोनिया गांधी का संकट मोचक कहा जाता था। कई बार कांग्रेस को उन्होंने कुशल प्रबंधन के चलते संकट से उबार लिया था। इनमें राजस्थान में सचिन पायलट के बागी होने का मामला सबसे ताजा है। कहा जाता है कि इस बगावत को शांत करने में अहमद पटेल की सबसे अहम भूमिका थी। गुजरात में राज्यसभा सीट के चुनाव में उनका प्रबंधन तब सबसे ज्यादा चर्चा में रहा जब उन्होंने भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह के दांव को फेल करते हुए उन्होंने सीट निकाल ली थी। लेकिन हर बार मुश्किलों को मात देने वाले पटेल कोरोना महामारी से एक महीने तक लड़ने के बाद 25 नवम्बर को आखिर हार गए और दुनिया को अलविदा कह दिया। पटेल का जाना कांग्रेस पार्टी के साथ ही गांधी परिवार के लिए भी बड़ा झटका था।
Flashback 2020: कश्मीर से केरल तक, 2020 की चुनावी राजनीति में कैसा रहा BJP का सफर ?