किसान आंदोलन: पंजाब की खेती गेहूं, धान और MSP से आबाद हो रही है या बर्बाद?
क्या हरित क्रांति की अपनी कामयाबी के चक्रव्यूह में फँस गया है पंजाब का किसान. जानिए क्या है बाहर निकलने का तरीका.
पंजाब के ज़्यादातर किसान गेहूं और धान की खेती करते हैं. इन दोनों फसलों पर एमएसपी मिलती है और सरकारी ख़रीद की गारंटी भी. जब फसल से कमाई और ख़रीद दोनों सुनिश्चित हो तो भला तीसरी फसल के पीछे किसान क्यों भागेगा?
लेकिन इन दोनों फसलों की कामयाबी ने उसके सामने ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है कि वो चाह कर भी इससे बाहर नहीं निकल पा रहा.
दिल्ली के तमाम बॉर्डर पर पिछले तीन सप्ताह से डटे किसान भी इसकी बातें करते हैं, लेकिन दबी जुबान से.
तीन चेहरे, तीन फसलें, तीनों का दर्द अलग
दिल्ली में पिछले 20 दिन से कड़ाके की ठंड में बैठे हैं तरनतारन से आए मेजर सिंह कसैल. सिंघु बॉर्डर पर उनसे हमारी मुलाकात हुई.
बातों बातों में उन्होंने कहा, "धान और गेहूं के अलावा, दूसरी फसल उगाने के लिए काफ़ी प्रयास किया. एक बार सूरजमुखी लगाया. बाज़ार में एक लीटर तेल की कीमत जब 100 रुपये थी, तब हमारी फसल 1000 रुपये क्विंटल में बिकी थी. जब सरसों की खेती की, तो बाज़ार में एक लीटर सरसों के तेल की कीमत 150 रुपये थी और एक क्विंटल की कीमत हमें 2000 रुपये मिली. एक क्विंटल में से 45 किलो तेल निकलता है. यानी बाज़ार में जिसकी कीमत 6500 रुपये थी, हमारी जेब में आया आधे का भी आधा. हमारी मेहनत की कीमत कोई और खाता है और दूसरी फसल उगा कर हम फंस जाते हैं."
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मेजर सिंह कसैल आज भी गेहूं, धान के अलावा दूसरी फसल उगाने को तैयार है. उनकी खेतों में भूमिगत जलस्तर काफ़ी नीचे चला गया है. आज तरनतारन में पानी 80 फुट पर मिल रहा है. इसी समस्या से निपटने के लिए उन्होंने खेतों में सूरजमुखी लगाने का फैसला किया था. लेकिन जब फसल के भाव सही नहीं मिले तो उन्हें अपने फैसले पर पछतावा हुआ. अब वो दोबारा से गेहूं और धान की खेती कर रहे हैं.
मेजर सिंह कसैल की तरह का दर्द हरियाणा के भिवानी ज़िले से आए राजबीर ख़लीफ़ा का भी है.
मेजर सिंह कसैल से हमारी बातचीत सुन कर वो ख़ुद ही अपना दर्द साझा करने लगे. उन्होंने कहा,"इस बार मैंने गाजर उगाया. लेकिन मुझे मंडी में कीमत मिली 5 रुपये 7 रुपये. उसी मंडी में बड़े किसानों को कीमत मिली 20 रुपये तक."
सुरेंद्र सिंह, हमारी बातचीत को बड़े ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने अपने दर्द को अलग तरीके से समझाया. वो कहते हैं, "कोई दूसरी फसल उगाओ तो उसके पैसे मिलने में महीनों लग जाते हैं. गेहूं और सरसों तो अढ़ातिए सीधे ख़रीद कर पैसे तुरंत दे देता है. आधी रात को उसके पास जाओ या फिर फसल सीज़न के बीच में वो हमेशा मदद के लिए तैयार रहता है. मैंने ख़ुद गाजर उगाने की कोशिश की. बाज़ार में भाव नहीं मिले. कौन रेट तय करता है, कैसे रेट तय करते हैं इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं है."
चाहे मेजर सिंह कसैल हो या फिर राजबीर ख़लीफ़ा या फिर सुरेंद्र सिंह.... ये तीनों तो बस चेहरे हैं. कहानी पंजाब-हरियाणा के ज़्यादातर किसानों की एक सी है. गेहूं धान की खेती के अलावा उन्हें किसी तीसरे फसल की अकसर सही कीमत नहीं मिलती और ना ही उनके बारे में उनके पास बहुत जानकारी है.
2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार, भारत के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या ये वो किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है.
इसलिए सालों से चली आ रही गेहूं-धान जैसी परंपरागत फसलों को उगाते आ रहे हैं, जो हर सीज़न में रिस्क नहीं ले सकते. खेती की इस परंपरागत तरीके को 'मोनोकल्चर' कहा जाता है.
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पंजाब-हरियाणा में गेहूं-धान कीही खेती ज़्यादा क्यों ?
पंजाब में 1970-71 में धान की खेती 3.9 लाख हेक्टेयर में होती थी वो 2018-19 में 31 लाख हेक्टेयर में होने लगी. यानी पाँच दशक में आठ गुणा बढ़ोतरी.
उसी तरह से पंजाब में 1970-71 में 22.99 लाख हेक्टेयर में गेहूं की खेती होती थी. 2018-19 में ये बढ़ कर 35.20 लाख हेक्टेयर में होने लगी. यानी पाँच दशक में डेढ़ गुणा बढ़ोतरी.
ये आँकड़े 'एमर्जिंग वॉटर इनसिक्योरिटी इन इंडिया : लेसन फ़्रॉम एग्रीकल्चरली एडवान्स्ड स्टेट' किताब से हैं. आरआरआईडी चंडीगढ़ में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर आरएस घुमन के ये आँकड़े इस बात को साबित करने के लिए काफी हैं कि पंजाब में गेहूं और धान की खेती सबसे ज़्यादा होती है.
इन दोनों फसलों के मामले में हरियाणा की कहानी भी पंजाब से बहुत अलग नहीं है. हरियाणा के कुछ इलाकों में पानी की समस्या है. धान की खेती में ज़्यादा पानी लगता है, इसलिए पंजाब के मुकाबले हरियाणा में धान की खेती कम होती है. हरियाणा में गन्ने की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है.
इस तरह की सिर्फ़ दो फसलों की खेती को 'मोनोकल्चर' कहा जाता है.
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गेहूं- धान की खेती से नुक़सान?
साल 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक़ 'मोनोकल्चर' की वजह से पंजाब में अब फसलों की पैदावर कम हो रही है, खाद डालने के बाद भी फसलों पर फर्क़ कम पड़ता है, मिट्टी की गुणवत्ता कम हो गई है. इन सब का सीधा असर बाजार और क़ीमतों पर पड़ता है. ऐसे में खेती बहुत मुनाफे का सौदा नहीं रह जाती.
धान की खेती की वजह से पंजाब में भूजल स्तर काफ़ी नीचे चला गया है. 1970-71 में पंजाब में ट्यूब वेल की संख्या 2 लाख थी जो 2018-19 में बढ़ कर 14 लाख हो गई है.
पंजाब के 12 ज़िलो में जहाँ धान की सबसे ज़्यादा खेती होती है वहाँ पिछले तीन दशक में जलस्तर 6.6 मीटर से 20 मीटर तक नीचे चला गया है.
आरएस घुमन कहते हैं, "2017-18 में पंजाब से कुल 88 प्रतिशत धान केंद्र सरकार ने ख़रीदा था. पंजाब का जल स्तर अगर धान की खेती की वजह से नीचे जा रहा है तो इसका मतलब ये हुआ कि पंजाब से केंद्र सरकार धान नहीं भूजल स्तर ख़रीद रही है. जितना धान केंद्र सरकार पंजाब से ख़रीददती है उसे उगाने में तकरीबन 63 हज़ार बिलियन लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है, जिसमें से 70 फीसदी ग्राउंड वॉटर है. पंजाब, धान नहीं अपना वॉटर टेबल केंद्र को बेच रहा है."
ये तो हुई धान की खेती के बुरे असर की बात.
पर ऐसा नहीं की गेहूं की खेती से सब अच्छा ही हो रहा है. प्रोफ़ेसर घुमन कहते हैं कि गेहूं तो पंजाब की परंपरागत फसल रही है. लेकिन अब इसकी फसल भी मिट्टी की क्वालिटी ख़राब कर रही है. प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. गेहूं में खाद और कीटनाशकों का ज़्यादा इस्तेमाल हो रहा है. यूरिया और दूसरे केमिकल स्थानीय लोगों के फूड चेन में भी घुस गए हैं. पंजाब के कुछ इलाके जैसे बठिण्डा, मानसा में ख़राब पानी की वजह से कई तरह की बीमारी की शिकायतें भी आ रही है.
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उपाय क्या है?
इन्हीं शिकायतों की वजह से पंजाब के किसानों को लंबे समय से अपनी खेती में विविधता लाने की सलाह दी जाती रही है, जिसे ''क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन'' भी कहा जाता है.
पंजाब में मुक्तसर के आसपास 2.25 लाख हेक्टेयर खेती का इलाक़ा ऐसा है जहाँ साल में ज़्यादातर समय पानी भरा रहता है. यहाँ केवल धान की फसल ही हो सकती है.
बाकी इलाक़ों में कपास, मक्का, दलहन,ऑयलसीड, शाक-सब्ज़ी की खेती की सलाह जानकार भी देते हैं.
प्रोफ़ेसर घुमन कहते हैं अगर राज्य सरकार और पंजाब के किसानों को ये बात समझ नहीं आई तो 15 से 20 साल में खेती में और मुश्किलें बढ़ जाएँगी.
70 के दशक में पंजाब में केवल तकरीबन 66 फीसदी खेतों में केवल गेहूं और धान की खेती होती थी. बाकी 34 फीसदी में दूसरी फसलें उगाई जाती थी. लेकिन 2020 के दशक आते-आते 90 फीसदी में केवल गेहूं-धान की ही खेती हो रही है.
प्रोफ़ेसर घुमन इसके लिए हरित क्रांति को ज़िम्मेदार बताते हैं. अपनी बात को विस्तार से समझाते हुए वो कहते हैं, " केंद्र और राज्य सरकार ने ऐसे नियम और क़ानून बनाया जिस वजह से पंजाब हरियाणा के किसानों को गेहूं-धान उगाना फ़ायदे का सौदा लगा.
खेतों में फसल अच्छी हो इसके लिए हाई क्वालिटी बीज पर शोध किए गए, एमएसपी के जरिए फसल के दाम सुनिश्चित किए, एफ़सीआई के सरकारी ख़रीद सुनिश्चित की, मंडियों ने इस प्रकिया के लिए अलग जगह सुनिश्चित कर दी, रही सही कसर सिंचाई के लिए सरकारी सुविधा और मुफ़्त बिजली ने पूरी कर दी. ये सुविधाएँ नहीं मिलती तो हर किसान गेहूं और धान नहीं उगाता?"
अब पंजाब का किसान इस चक्रव्यूह में ऐसा फँस गया है कि उससे बाहर निकले तो कैसे?
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पंजाब सरकार की रिपोर्ट
ऐसा नहीं कि पंजाब सरकार को गेहूं-धान की वजह से पर्यावरण के नुक़सान की बात पता ना हो. 1986 और 2002 में पंजाब सरकार ने फसलों में विविधता लाने के लिए दो अलग-अलग कमेटियाँ भी बनाई थी. लेकिन प्रोफ़ेसल एसएस जोहल की अध्यक्षता में बनी इन कमेटियों की रिपोर्ट पर आज तक अमल नहीं हो पाया है.
इन कमेटियों में 20 प्रतिशत खेती में विविधता लाने की सिफारिश की गई थी और उसके लिए सरकार को तक़रीबन 1600 करोड़ रुपए किसानों के नुक़सान की भरपाई के तौर पर देने का प्रस्ताव रखा गया था.
जोहल कमेटी की रिपोर्ट पर पंजाब सरकार ने अमल क्यों नहीं किया? इस बारे में जानने के लिए हमने एसएस जोल से सम्पर्क किया.
उन्होंने बताया, "साल 2002 में भारत दुनिया के दूसरे देशों से तक़रीबन 1500 करोड़ की दालें और ऑयलसीड निर्यात करता था. मैंने सुझाव दिया कि यही पैसा किसानों को दे कर उन्हें दाल और ऑयलसीड उगाने के लिए प्रेरित कर सकती है. इससे भारत को बाहर से दाल नहीं ख़रीदनी पड़ती और नुक़सान की भरपाई होने पर किसान धान छोड़ दाल उगाने का विकल्प ख़ुद चुनेंगे. सिर्फ़ 1600 करोड़ रुपये ख़र्च करने से सरकार उस समय एक मिलियन हेक्टेयर पर धान की खेती कम कर सकती थी. मेरे सुझाव से राज्य सरकार भी इत्तेफ़ाक रखती थी. लेकिन बाद में राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से मामले को आगे नहीं बढ़ाया और वो रिपोर्ट आज तक अमल में नहीं आ पाई."
प्रोफ़ेसर जोहल, फसलों की कीमत तय करने वाली कमेटी सीएसीपी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं.
वो कहते हैं कि पंजाब किसान इस गेहूं-धान के इस चक्रव्यूह में इसलिए फँसे हैं क्योंकि सरकारें वोट बैंक की राजनीति करती आई है. किसानों को बिजली फ्री दे कर, पानी फ्री दे कर सरकारें वोट ले रही हैं और अर्थव्यवस्था को चौपट कर रही हैं.
प्रोफ़ेसर जोहल के मुताबिक़ पंजाब सरकार को 'फ्री बिजली' की वजह से सालाना तक़रीबन 5000 करोड़ का नुक़सान होता है. फ्री बिजली की वजह से पानी निकासी पर कोई रोक नहीं है. इस वजह से भूजल स्तर नीचे जा रहा है और रिचार्ज करने की कोई सुविधा भी सरकार नहीं दे रही.
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तो फिर पंजाब को गेहूं-धान के चक्रव्यूह से आज़ाद करने के लिए उपाय क्या हैं? इसके जवाब में प्रोफ़ेसर जोहल कहते हैं, "फ्री बिजली योजना बंद होनी चाहिए. जितने पैसे सरकार 'फ्री बिजली' के लिए ख़र्च करती हो वो किसानों को सब्सिडी के तौर पर सीधे दो. इससे किसान पानी और बिजली ख़र्च करते समय दो बार सोचेगा और हाथ में आए पैसे को बचाने की कोशिश भी करेगा. फसलें बदल कर ख़ुद ही देखेगा कि किस फसल में इनपुट कॉस्ट कम लगता है और कमाई ज़्यादा होती है."
60 और 70 के दशक में भारत सरकार को दूसरे देशों से अनाज आयात करना पड़ता था. भारत को अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए पंजाब-हरियाणा के किसानों को गेहूं-धान की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया. आज जब पंजाब-हरियाणा के किसानों की वजह से अनाज में भारत आत्मनिर्भर बन गया है तो अब उनको कहा जा रहा है कि फसल में विविधता लाएँ.
क्या ये पंजाब के किसानों के साथ अन्याय नहीं है?
प्रोफ़ेसर घुमन इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि गेहूं और धान उगाना पंजाब के किसानों ने ख़ुद तय नहीं किया था. ये राज्य और केंद्र सरकारों ने तय किया. एमएसपी, एपीएमसी और एफसीआई जैसे नियम बना कर. अगर आज सरकार चाहती है कि पंजाब हरियाणा के किसान बाकी राज्यों की तरह दूसरी फसल उगाएं और फसलों में विविधता लाएँ तो उसके लिए भी सरकार को वैसी ही पॉलिसी लानी पड़ेगी, जैसे हरित क्रांति के समय लेकर आए थे. उसके बिना ये संभव नहीं है. तभी किसान इन फसलों के चक्रव्यूह से निकल पाएँगे.
प्रोफ़ेसर घुमन कहते हैं कि जिस तरह से हरित क्रांति के समय धान के नए वेराइटी के लिए शोध को प्रोत्साहित किया गया, इस समय दूसरी फसलों के लिए वैसा ही किया जाए. पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में गेहूं और धान की बीज़ो की नई वेराइटी पर शोध करने वाले तो 30 से ज़्यादा लोग हैं. लेकिन दाल और ऑयलसीड की वेराइटी पर शोध करने के लिए एक प्रोफ़ेसर है.
दूसरा तरीका है दूसरे फसलों के लिए एमएसपी और फसलों की ख़रीद को भी सरकार को किसी ना किसी तरह से किसानों के हक़ में सुनिश्चित करना पड़ेगा. इसके लिए ज़रूरी नहीं की सरकार ख़रीदे, कई और माध्यम हैं जिनके ज़रिए सरकार ऐसा कर सकती है.
नई फसलों के लिए बाज़ार नहीं होता तो ज़्यादा मात्रा में फसल होने पर उनके दाम गिर जाते हैं और फिर अगली बार किसान नहीं उगाते.
फसल विविधता में कर्नाटक है सबसे आगे
केंद्र सरकार ने साल 2014 में राज्यों की फसल विविधता रिपोर्ट जारी की थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ कर्नाटक राज्य फसल विविधता में भारत में सबसे आगे है. दूसरे और तीसरे स्थान पर महाराष्ट्र और गुजरात का नंबर आता है.
यानी पंजाब के किसान और सरकार, फसल में विविधता लाने के लिए कर्नाटक से बहुत कुछ सीख सकते हैं. इसलिए बीबीसी ने बात की कर्नाटक के कृषि विशेषज्ञ टीएन प्रकाश काम्मराडी से. उनके मुताबिक़ पिछले कुछ सालों से कर्नाटक के किसानों और राज्य सरकार की पहल की वजह से ये संभव हो पाया है. वो इसके पीछे तीन मुख्य कारण गिनाते हैं -
पहला - कर्नाटक भारत का इकलौता राज्य है जिसको 10 एग्रो- इकोलॉजिकल ज़ोन में बांटा गया है. यानी किस इलाके के लिए कौन सी फसल, मौसम के अनुकूल है - ये 'एग्रो- इकोलॉजिकल' ज़ोन से तय होता है.
दूसरा - कर्नाटक में कृषि संबंधित शोध के लिए 4 अलग विश्वविद्यालय हैं. हॉर्टिकल्चर के लिए भी अलग से यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है. ये सभी सुनिश्चित करते हैं धान की खेती कहाँ ठीक रहेगी, बाजरा कहाँ लगेगा, कॉफी के लिए कौन सा इलाका ठीक रहेगा. साथ साथ फसल के बीज पर भी शोध चलता रहता है.
तीसरा- हॉर्टिकल्चर में कर्नाटक भारत में बहुत आगे हैं. कॉफी और तरह तरह के मसालों यहाँ के किसान काफ़ी उगाते हैं.
चौथा - वेस्टर्न घाट की वजह से कर्नाटक में दो फसलों वाली 'मोनोकल्चर' नहीं चल सकती. वहाँ अलग अलग तरह की फसलें उगानी पड़ती है.
इन वजहों से कर्नाटक में फसलों की विविधता देखने को मिलती है.
लेकिन ऐसे में सवाल उठता है कि फसलों में विविधता लाने से किसानों की आय नहीं बढ़ती? पंजाब के किसान दो फसल उगा कर कर्नाटक के किसान से समृद्ध कैसे हो जाते हैं?
इस पर टीएन प्रकाश कहते हैं कि कृषि क्षेत्र में भूमि सुधार और शोध और दूसरे क्षेत्रों में काफी सुधार हुआ है. लेकिन सिंचाई के लिए आज भी पानी कर्नाटक के किसानों के लिए बड़ी समस्या है. इस वजह से फसलों में विविधता के बावजूद कर्नाटक के किसान की आर्थिक स्थिति पंजाब के किसानों से बेहतर नहीं है.
पंजाब-हरियाणा के किसान कर्नाटक से क्या सीख सकते हैं?
इस सवाल के जवाब में कर्नाटक के पूर्व में कृषि मंत्री रहे कृष्ण बाइरी गोड़ा कहते हैं, "पंजाब सरकार छोटे जोत वाले किसानों को धीरे-धीरे बाजरा और दूसरे ऑयलसीड्स उगाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है. इसके लिए सरकार को किसानों के लिए बाजार भी सुनिश्चित करना होगा, ऐसे किसानों को चिन्हित करना होगा, उनके लिए जागरुकता अभियान चला कर, नई फसलों के फायदे गिना कर सरकार पाँच से दस साल का प्लान तैयार कर सकती है. ये रातों रातों नहीं किया जा सकता. लेकिन लंबे अंतराल में इसके फ़ायदे मिलेंगे."
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महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश से सीख
कृषि नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के सचिव प्रमोद कुमार जोशी कहते हैं कि पंजाब और हरियाणा के किसान महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के किसानों से भी सीख सकते हैं और गेहूं-धान के चक्रव्यूह से निकल सकते हैं. लेकिन इसके लिए उन्हें एमएसपी का मोह छोड़ना होगा.
महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि इन राज्यों ने कई ऐसे क़दम उठाए, जिसकी वजह से आज वहाँ के किसान अपनी फसल बाहर निर्यात कर रहे हैं.
पहला - आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में किसानों ने अपनी अलग 'फ़ॉर्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन' बनाई है. यानी इन राज्यों में किसानों ने मिल कर अपनी एक अलग संस्था बनाई. ये किसान एक ही फसल की खेती करते हैं और अपनी फसल बेचने के लिए सीधे फसल खरीददारों से डील फाइनल करती है.
दूसरा - इन राज्यों ने कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को अपनाया है. इससे फसलों की गुणवत्ता और पैदावर दोनों सुनिश्चित हो जाती है. जो व्यापारी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कराता है वही बीज भी देता है, ताकि एक जैसी फसल हो. इससे फसल भी अच्छी होती है और खेती के नए तरीके और तकनीक का पता चलता है.
तीसरा - इन राज्यों ने अपनाया है 'एक ज़िला एक फसल' पद्दति. केंद्र सरकार की ये स्कीम है जिसे राज्य सरकारों ने अपनाया है. प्राइवेट में ख़रीददारों को फसल बड़ी मात्रा में चाहिए होती है. अक़सर ये राज्य नई फसलों को एक पूरे ज़िले में उगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, ताकि पैदावार ज़्यादा हो और एक साथ बिक भी जाए.
इसलिए गेहूं-धान के बने चक्रव्यूह से पंजाब के किसानों को निकलना है तो समाधान एमएसपी में नहीं बल्कि 'क्रॉप डाइवर्सिफिकेशन' यानी फसलों में विविधता में खोजना होगा. ये कृषि से जुड़े जानकारों की राय है.