नक्सलियों के बीच डेढ़ साल रहीं लंदन की प्रोफ़ेसर का अनुभव
भारत के आदिवासी इलाक़ों में अब सड़कें और बिजली के तार पहुंचने लगे हैं. नए इन्फ़्रास्ट्रक्चर ने सुरक्षाबलों के आने-जाने को आसान कर दिया है.
साउथ एशिया टेररिस्ट पोर्टल के मुताबिक पिछले 6 सालों में क़रीब 6 हज़ार तथाकथित नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है. लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ इनमें से बहुत से लोग आदिवासी थे जिन्हें पुलिस ने जबरन नक्सली साबित किया.
भारत और माओवादी गुरिल्लाओं के बीच संघर्ष में दसियों हज़ार जानें जा चुकी हैं. माओवादी गुरिल्लाओं ने लोकतंत्र को ठुकराकर हथियारों का रास्ता क्यों चुना, यह समझने के लिए अल्पा शाह माओवादी गढ़ कहे जाने वाले एक इलाक़े में आदिवासियों के बीच डेढ़ साल तक रही हैं. पढ़िए उनका नज़रिया:-
भारी पलकों के साथ हम धान के खेतों के बीच से जंगल के सुरक्षित इलाक़े की ओर बढ़ रहे थे. मैं किसी भी तरह अपनी आंखें खुली रखने की कोशिश कर रही थी. हमारे पास रोशनी के नाम पर एक टॉर्च तक नहीं थी.
मैं भारत के माओवादी गुरिल्लाओं की एक टुकड़ी के साथ थी. ये लोग दावा करते हैं कि वे आदिवासियों और ग्रामीण ग़रीबों के हक़ के लिए लड़ रहे हैं. यह इन गुरिल्लाओं के साथ मेरी सातवीं रात थी. हम साथ में हर रात 30 किलोमीटर चलते हुए आ रहे थे. वे अंधेरा होने के बाद अपनी जगह बदल रहे थे क्योंकि सुरक्षा बलों ने दिन के समय गश्त बढ़ा दी थी.
मेरा शरीर थकान से चूर था. मेरे अपने कंधे मुझे एक भारी-भरकम बोझ मालूम हो रहे थे. पांव सुन्न थे. मेरी गर्दन में झटका लग चुका था. चलते-चलते मेरी आंख लग गई थी और एक झटके से मेरी नींद टूट गई थी. मेरा दिमाग़ मेरे पांव में हो रही हरक़तों से बिल्कुल बेख़बर था. मेरे पांव लड़खड़ा गए और मेरी गर्दन में फिर झटका लगा.
गुरिल्ला इसे 'नींद में चलना' कहते हैं. मैंने पाया कि वे सभी इसमें सक्षम हैं. एक मानवविज्ञानी के तौर पर बीते डेढ़ साल से मैं झारखंड में आदिवासियों के बीच रह रही थी.
मैं यह समझने की कोशिश करना चाहती थी कि क्यों भारत के कुछ ग़रीबों ने सबसे बड़े लोकतंत्र को ठुकराकर एक बेहतर समाज बनाने के लिए हथियारों का रास्ता चुना है. यह फ़रवरी 2010 की बात है, जब मेरा शोध ख़त्म हुआ था और मैं इस नाइटमार्च में शामिल हुई.
जल्दी ही मैं लंदन लौटने वाली थी, लेकिन इन लोगों की मुश्किल ज़िंदग़ी इसी तरह चलती रहने वाली थी. सुरक्षा बलों से बचने के लिए साल-दर-साल वे जगह बदलते रहते और जंगल के किसी हिस्से में कुछ दिन से ज़्यादा नहीं सोते.
'साम्यवादी समाज' की स्थापना का संघर्ष
बीते 50 वर्षों से माओवादी गुरिल्ला साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए भारत के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं. इस संघर्ष में अब तक 40 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. 1967 में नक्सलबाड़ी नाम के गांव से शुरू हुए वामपंथी आंदोलन की वजह से इन गुरिल्लाओं को नक्सली भी कहा जाता है.
हालांकि यह आंदोलन कुछ समय बाद ख़त्म हो गया था. लेकिन माओवादियों ने फिर गुट बनाए और मध्य और पूर्वी भारत के कुछ इलाक़ों पर नियंत्रण स्थापित किया.
इस आंदोलन में मार्क्सवादी विचारकों से लेकर, ग़रीब, पिछड़ी जातियों के लोग और आदिवासी लड़ाके शामिल हैं और वे सब मिलकर उस व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहते हैं, जिसे वे 'अर्द्धसामंती व्यवस्था' कहते हैं. लेकिन भारत सरकार उन्हें 'अतिवादी गुट' मानती है.
2010 में हम बिहार के जंगलों में हुई एक अंडरग्राउंड गुरिल्ला कॉन्फ्रेंस से झारखंड में होने वाली एक कॉन्फ्रेंस के लिए जा रहे थे.
भारतीय शहरों की गगनचुंबी और चमकदार इमारतों के मुक़ाबले कॉन्फ्रेंस के कैंप बिल्कुल अलग थे, पर प्रभावित करते थे. उन पगडंडियों से होकर जिन पर इंद्रधनुष नुमायां हो रहा था, हम कैंप तक पहुंचे. वहां गुरिल्लाओं के लिए कमरे थे, एक कॉन्फ्रेंस रूम था. एक मेडिकल टेंट, एक टेलर टेंट, एक कंप्यूटर रूम और एक रसोई थी.
शौचालय चारों तरफ से ढंके हुए थे, जबकि आस-पास के गांवों में शौचालय भी नहीं थे. ऐसे ख़ुफ़िया शहर बिना निशान छोड़े दो घंटे के भीतर ग़ायब किए जा सकते थे.
जाति और वर्ग विहीन समाज की झांकी
गुरिल्ला सेनाओं में जीवन भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक वर्गीकरण से अलग था. एक छोटी-सी जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया थी, जैसा आदर्शवादी समाज वह बनाना चाहते हैं.
मतभेद मिटाना अपेक्षित था. लैंगिक असमानता को दूर करना था, मानसिक और दस्ती मज़दूरी के बीच भेद मिटाया जाना था. प्रत्येक व्यक्ति 'कॉमरेड' था और उसने अपनी जातिगत और वर्गीय पहचान से अलग एक नए नाम के साथ दोबारा जन्म लिया था.
खाना बनाने की ड्यूटी पुरुष और महिलाओं दोनों की लगती थी. निचले स्तर के काडर को सीखने के लिए छोड़ दिया जाता था और बड़े नेता शौचालय का गड्ढा खोदते थे.
लेकिन समय के साथ ये माओवादी एक औसत सेना बनकर रह गए. उन्होंने स्वयं को जीवित रखने के लिए सैन्य रणनीति पर ज़ोर दिया और सामाजिक न्याय की लड़ाई ताक पर रख दी गई.
आज गुरिल्लाओं के गढ़ वाले इलाके सुरक्षाबलों की ऐसी टीमों से घिरे हैं जिनके झारखंड जगुआर्स, कोबरा और ग्रेहाउंड्स जैसे नाम हैं. उन्हें गुरिल्लाओं से जंगल में लड़ाई के लिए ही ख़ास तौर से प्रशिक्षित किया गया है.
मानवाधिकार कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि सुरक्षा बलों के इन अभियानों का मक़सद वहां से आदिवासी लड़ाकों को हटाना है ताकि निजी कंपनियों के लिए कोयला, लोहा और बॉक्साइट के खनन का रास्ता साफ़ किया जा सके.
कई भारतीय और मल्टीनेशनल कंपनियों को खनन और बाक़ी लाइसेंस दिए गए हैं. लेकिन जंगलों की रक्षा करने वाले पुराने क़ानून और आदिवासियों की ज़मीनें उनकी राह में बाधा बने हुए हैं.
गुरिल्ला पुलिस से चुराई गई बंदूकों और बारूदी सुरंगों के बल पर वेअपना नियंत्रण बचाए हुए हैं. वे कैमरे के फ्लैश के इस्तेमाल से डेटोनेटर और गोमूत्र से विस्फोटक बनाने का दावा करते हैं.
लेकिन वे अब संख्या में दस हज़ार से भी कम हैं और वे भारत सरकार के सुरक्षा तंत्र की ताक़त की ताप झेल रहे हैं. इसलिए उनकी गतिविधियां बहुत सीमित रह गई हैं.
भारत के आदिवासी इलाक़ों में अब सड़कें और बिजली के तार पहुंचने लगे हैं. नए इन्फ़्रास्ट्रक्चर ने सुरक्षाबलों के आने-जाने को आसान कर दिया है.
साउथ एशिया टेररिस्ट पोर्टल के मुताबिक पिछले 6 सालों में क़रीब 6 हज़ार तथाकथित नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है. लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ इनमें से बहुत से लोग आदिवासी थे जिन्हें पुलिस ने जबरन नक्सली साबित किया.
अकेले झारखंड में ही क़रीब 4000 आदिवासियों पर नक्सली होने के आरोप लगे हैं, ये आदिवासी बिना किसी सुनवाई के सालों से जेल में बंद हैं.
इन तमाम मुश्किलों के बावजूद नक्सली आंदोलन चलता रहा और जब-जब सरकार ने सोचा कि यह ख़त्म हो गया है तब-तब यह दोबारा उभर कर सामने आया.
(अल्पा शाह लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स में प्रोफ़ेसर हैं. उन्होंने हाल ही में आदिवासियों पर एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक है, नाइटमार्चः अमंग इंडियाज़ रिवोल्यूशनरी गुरिल्ला)
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