MP:राज्यसभा की 3 सीटों में से 2 पर भाजपा की जीत लगभग पक्की, कांग्रेस से जीतेगा कौन ?
नई दिल्ली- कोरोना वायरस और लॉकडाउन के चलते राज्यसभा की जिन 18 सीटों के लिए वोटिंग टालनी पड़ी थी, उसके लिए अब चुनाव आयोग ने 19 जून को मतदान कराने की घोषणा कर दी है। इसके अलावा उसी दिन 6 और सीटों के लिए भी चुनाव होंगे। जिन सीटों के लिए मतदान टाला गया था, उनमें से मध्य प्रदेश की भी 3 सीटें शामिल हैं। इन तीनों सीटों के लिए सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी कांग्रेस दोनों की ओर से दो-दो प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। मतलब, इन 4 उम्मीदवारों में से सिर्फ 3 ही उच्च सदन में कदम रख पाएंगे और चौथे की चुनावी बत्ती गुल होनी पहले से ही तय है।
विधानसभा का गणित
राज्यसभा के चुनावों में विधानसभा के सदस्य वोटर होते हैं और इसमें वोटिंग मतपत्र पर वरीयता के हिसाब से की जाती है। इसलिए वहां के मौजूदा चुनावी समीकरण को समझने से पहले विधानसभा के आंकड़ों का गणित समझ लेना बहुत जरूरी है। इस समय मध्य प्रदेश विधानसभा में भाजपा के पास अपने 107 विधायक हैं। जबकि, कांग्रेस के पास सिर्फ 92 विधायक। एमपी में इस समय विधानसभा की 24 सीटें खाली हैं, जिसपर आगे चलकर उपचुनाव होने हैं। बीजेपी और कांग्रेस के अलावा 2 विधायक बसपा के, 1 समाजवादी पार्टी के और 4 निर्दलीय विधायकों को भी राज्यसभा के चुनाव में मतदान करना है। कुल मिलाकर इन 7 विधायकों का इस चुनाव में तीसरे उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने में रोल बहुत ही अहम रहने वाला है।
चुनावी समीकरण में तीसरी सीट पर पिछड़ सकती है कांग्रेस
अब प्रदेश के चुनावी समीकरण को समझना जरूरी है। मध्य प्रदेश विधानसभा की जो अभी 24 सीटें खाली हैं, उनमें से 22 सीटें वो हैं, जो कांग्रेस के बागी विधायकों के इस्तीफे की वजह से खाली हुई हैं, और सारे के सारे ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक हैं और आज के वक्त में बीजेपी का झंडा बुलंद कर रहे हैं। बीजेपी ने इस चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को उम्मीदवार के नामांकन में प्रथम परीयता में रखा है और आदिवासी समाज से आने वाले सुमेर सिंह सोलंकी को दूसरी वरीयता पर। जबकि, दिग्विजय सिंह कांग्रेस की ओर से प्रथम वरीयता वाले उम्मीदवार हैं और दलित नेता फूल सिंह बरैया दूसरे पर। 22 विधायकों की बगावत से यहीं पर कांग्रेस का खेल बिगड़ता नजर आ रहा है और उसके लिए दूसरी सीट जीतना भाजपा के मुकाबले कहीं ज्यादा मुश्किल लग रहा है। जबकि, भाजपा के लिए सोलंकी की सीट भी निकाल लेना कहीं ज्यादा आसान है, क्योंकि सत्ता में होने की वजह से निर्दलीय और बाकी ज्यादातर गैर-कांग्रेसी विधायकों का भी प्रथम वरीयता मत सोलंकी के खाते में जाने की उम्मीद है। क्योंकि, सिंधिया की सीट तो भाजपा के अपने वोट से ही पक्की है।
कांग्रेस के अंदर भी फंस रहा है पेंच
पेंच कांग्रेस में ही फंस रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पार्टी की ओर से पहले नंबर के उम्मीदवार जरूर हैं, लेकिन कमलनाथ सरकार जाने के बाद से राज्य में कांग्रेस के अंदरूनी समीकरण में बहुत बड़ा बदलाव नजर आ रहा है। इसलिए, अब कांग्रेस नेतृत्व को फैसला करना है कि पार्टी के विधायक अपने प्रथम वरीयता का वोट दिग्विजय सिंह को दें या फूल सिंह बरैया को। इसके लिए पार्टी के भीतर एक मुहिम सरकार गिरने के बाद से ही चल रही है। दलील ये दी जा रही है कि बदले राजनीतिक माहौल में दिग्विजय पर दांव लगाना ठीक होगा या दलित चेहरे बरैया पर? क्योंकि, सोलंकी को उतारकर भाजपा पहले ही अपना राजनीतिक कदम आगे बढ़ा चुकी है। ऊपर से मायावती भी इन दिनों भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर हमलावर नजर आ रही हैं और इसलिए बसपा विधायक का सोलंकी के साथ जाना लगभग तय ही माना जा रहा है।
दिग्वजिय या दलित? कांग्रेस की चिंता
कांग्रेस का दिग्विजय विरोधी खेमा बरैया की वकालत इसलिए भी कर रहा है, क्योंकि वो चंबल-ग्वालियर अंचल में दलितों के बड़े नेता माने जाते हैं और इसी अंचल में ही सबसे ज्यादा 16 विधानसभा सीटों के लिए उप चुनाव होना है, जिसमें कांग्रेस उम्मीदवारों को पार्टी के ही बागियों का सामना करना है। फिलहाल पार्टी आलाकमान इस तोलमोल में लगा है कि बरैया को विधानसभा उपचुनाव में लड़ाने पर ज्यादा फायदा होगा या राज्यसभा भेजने पर। पार्टी के लिए ये निर्णय लेना इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि दूसरा नाम दिग्विजय सिंह का है जिन्हें आलाकमान किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहेगा। लेकिन, पार्टी एमपी की राजनीति से यूपी को भी साधने की कोशिश कर सकती है, जहां प्रियंका गांधी वाड्रा मायावती से दलित वोट बैंक हड़पने की जुगाड़ में लगी हुई हैं।
दिग्विजय-कमलनाथ में भी पहले वाली बात नहीं
प्रदेश में कांग्रेस की दिक्कत इतनी ही नहीं है। कमलनाथ सरकार के मुश्किलों में घिरने और सरकार गिरने के पीछे दिग्विजय सिंह की भूमिका को लेकर पार्टी में लोग अब खुल कर बोलने लगे हैं। ऐसे में पार्टी में राय बन रही है कि पहली प्राथमिकता पर बरैया को रखा जाए, क्योंकि, दिग्विजय में क्षमता होगी तो वह अपनी सीट निकाल ही लेंगे। यही नहीं सिंधिया के रहते पूर्व सीएम कमलनाथ और दिग्विजय सिंह एक साथ जरूर दिख रहे थे, लेकिन अब अपनी अगली पीढ़ी को लेकर दोनों के बीच अंदर ही अंदर खुलकर खींचतान चलने लगी है। एक ओर दिग्गी अपने बेटे जयवर्द्धन को कांग्रेस में आगे बढ़ाने के दांव चलते जा रहे हैं तो दूसरी ओर कमलनाथ भी अपने बेटे और छिंदवाड़ा से सांसद नकुल नाथ को प्रदेश की राजनीति में आगे बढ़ाना चाहते हैं। कमलनाथ तो अपनी सरकार गिरने को लेकर भी दिग्विजय सिंह पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लेने जैसी बातें कह चुके हैं।
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