क्या उम्मीदवारों, पार्टियों को चुनाव आयोग की परवाह है?
बीबीसी से बातचीत में कुछ चुनाव आयुक्तों का कहना था कि आयोग के अप्रसन्नता जताने और निंदा करने से स्थानीय मीडिया मुद्दे को कवर करता है जिसका असर उम्मीदवार के वोटरों पर पड़ता है, और कोई भी उम्मीदवार नहीं चाहेगा कि उसके वोटर उससे दूर हों.
चुनाव आयोग पर देश में चुनाव करवाने की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है लेकिन 2019 आम चुनाव के पहले आदर्श आचार संहिता के इतने कथित उल्लंघन हुए हैं कि सवाल पूछे जा रहे हैं कि आखिर आयोग कहां है और क्या उसका हाल किसी ऐसी अप्रभावी संस्था या बिना दांत के शेर जैसा तो नहीं है जिसकी किसी को परवाह नहीं?
वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर पूछा है- "चुनाव आयोग (नरेंद्र) मोदी पर (कथित) प्रोपोगैंडा मूवी की इजाज़त देता है, उन्हें दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर एंटी सैटेलाइट मिसाइल पर चुनावी भाषण देने की इजाज़त देता है, उन्हें रेलवे के दुरुपयोग की इजाज़त देता है लेकिन रफ़ाल पर किताब पर पाबंदी लगा दी जाती है और उसकी कॉपीज़ को अपने कब्ज़े में ले लिया जाता है."
कहानियां कई हैं इसलिए एक-एक कर उनकी बात करते हैं. ऐसे वक़्त जब आदर्श आचार संहिता लागू है, नरेंद्र मोदी का महिमामंडन करने वाली एक फिल्म रिलीज़ के लिए तैयार है.
31 मार्च को भाजपा की ओर से "प्रोपोगैंडा टीवी चैनल" नमो टीवी लांच किया गया लेकिन चैनल की कानूनी स्थिति, इसके लाइसेंस पर गंभीर सवाल हैं. केबल ऑपरेटर टाटा स्काई ने कहा आप इस चैनल को अपने चुने हुए चैनलों के ग्रुप से डिलीट भी नहीं कर सकते.
EC bans book on Rafale scam & seizes copies, citing Model Code of Conduct! EC allows propaganda movie on Modi, allows Modi to use AIR&DD for election speech on Anti satellite missile, allows misuse of of Railways&advertisement money by govt for elections, but bans book on Rafale! https://t.co/ePz5KL2Nta
— Prashant Bhushan (@pbhushan1) 2 April 2019
राजस्थान के चुरू में नरेंद्र मोदी की रैली में उनके पीछे पुलवामा में मारे गए लोगों की तस्वीरें थीं जिससे मृत सैनिकों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल पर विवाद शुरू हो गया.
पाकिस्तान में पकड़े गए भारतीय जवान अभिनंदन की तस्वीरों का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया गया.
राजस्थान के राज्यपाल की कुर्सी पर बैठने वाले कल्याण सिंह ने किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े कार्यकर्ता की भाषा बोलते हुए कहा, "हम सब चाहेंगे कि मोदी जी ही प्रधानमंत्री बनें."
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक भाषण में 'मोदी जी की सेना' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया.
उदाहरण कई हैं लेकिन चुनाव आयोग ने क्या किया- नोटिस जारी किए, चिट्ठियां लिखीं. रिपोर्टों के मुताबिक चुनाव आयोग ने कल्याण सिंह को आचार संहिता भंग करने का दोषी माना और राष्ट्रपति कोविंद की चिट्ठी लिखी.
क्या किसी को चुनाव आयोग की परवाह है?
आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर आयोग उम्मीदवार से अप्रसन्नता व्यक्त कर सकता है, उसकी निंदा (सेंशर) कर सकता है, और अगर मामला आपराधिक हो तो उचित अधिकारी से एफ़आईआर दर्ज करने को कह सकता है.
लेकिन आज के राजनीतिक माहौल में जब चुनावी जीत के लिए कुछ भी करना कई जगह जायज़ बताया या माना जाता है, चुनाव आयुक्त के अप्रसन्नता जताने और निंदा करने से किसी को क्या फर्क पड़ता है?
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी के मुताबिक, "ये निर्भर करता है कि आपमें कितनी शर्म है."
बीबीसी से बातचीत में कुछ चुनाव आयुक्तों का कहना था कि आयोग के अप्रसन्नता जताने और निंदा करने से स्थानीय मीडिया मुद्दे को कवर करता है जिसका असर उम्मीदवार के वोटरों पर पड़ता है, और कोई भी उम्मीदवार नहीं चाहेगा कि उसके वोटर उससे दूर हों.
पूछने पर पता चला कि चुनाव आयोग के कदमों का कितना असर उम्मीदवार या पार्टी के वोटरों पर पड़ता है, इस पर कभी कोई रिसर्च नहीं हुई.
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रिसर्च इंस्टिट्यूट सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक चुनाव आयोग के कदमों से उम्मीदवारों को कोई फर्क नहीं पड़ता.
भारतीय जनता पार्टी के साक्षी महाराज के मुताबिक "निर्वाचन आयोग जो कुछ करता है अच्छा ही करता है," लेकिन "वोट पर तो कोई असर नहीं पड़ता."
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक साल 2017 में मेरठ में दिए एक भाषण में साक्षी महाराज ने कहा था जनसंख्या के लिए "हिंदू ज़िम्मेदार नहीं हैं. जिम्मेदार तो वो हैं जो चार बीवी और 40 बच्चों की बातें करते हैं."
चुनाव आयोग ने उनके इस बयान पर उनकी आलोचना की थी. लेकिन पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत मानते हैं कि आयोग चाहे तो मज़बूत तरीके से कदम उठा सकता है. उनके कार्यकाल में ही साल 2014 के आम चुनाव संपन्न हुए थे.
ये उनका कार्यकाल ही था जब 2014 में भाजपा नेता अमित शाह और समाजवादी पार्टी नेता आज़म खान के विवादास्पद भाषणों के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश में रैली, रोड शो या आम सभा करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था. उस वक्त अमित शाह उत्तर प्रदेश में पार्टी के इंचार्ज भी थे.
अमित शाह ने शामली और बिजनौर में कथित तौर पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले भाषण दिए थे जबकि आज़म खान ने कहा था कि कारगिल लड़ाई मुसलमान सैनिकों ने जीती न कि हिंदू सैनिकों ने.
उस वक्त की एक पीटीआई रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव आयुक्त ने अधिकारियों से दोनो नेताओं के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज करने को भी कहा था.
अचार संहिता का उल्लंघन
संपत बताते हैं कि अमित शाह ने चुनाव आयोग को दिए अपने हलफ़नामें में माफ़ी मांगी जिसके आधार पर उन्हें दोबारा मौका दिया गया जबकि आज़म खान पूरे चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में कोई सभा नहीं कर सके.
संपत कहते हैं, "चुनाव के दौरान एक राजनीतिज्ञ के लिए जनसभा करना बेहद महत्वपूर्ण होता है... हमने आर्टिकल 324 में दिए गए अधिकारों का इस्तेमाल किया और ये कदम उठाया... ऐसा नहीं है कि चुनाव आयोग असहाय है. अगर आप चाहें तो आप कार्रवाई कर सकते हैं."
वो कहते हैं, "ज़रूरी नहीं कि हर कोई (पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन सेशन) सेशन बन जाए. बिना सेशन बने भी आप कार्रवाई कर सकते हैं."
याद रहे कि उसी दौरान उस वक्त के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई थी.
नरेंद्र मोदी पर आरोप था कि मत डालने के बाद उन्होंने मतदान केंद्र से बाहर आकर भाजपा का चुनाव चिह्न कमल दिखाया और प्रेस कान्फ्रेंस की जिससे जनप्रतिनिधित्व कानून की धाराओं का उल्लंघन हुआ.
अपनी प्रतिक्रिया में नरेंद्र मोदी ने कहा था, "मेरी पूरी उमर में मेरे पर आज तक एक भी एफ़आईआर नहीं हुई है. रॉंग साइड स्कूटर चलाने का भी कभी केस नहीं हुआ है.... और आज अचानक 30 अप्रेल मैं ज़िंदगी में कभी भूलूंगा नहीं."
बाद में गुजरात क्राइम ब्रांच ने नरेंद्र मोदी को 'क्लीन चिट' दे दी थी और हाई कोर्ट ने इस 'क्लीन चिट' को बरकरार रखा था.
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालास्वामी कहते हैं, "दरअसल चुनाव खत्म होने के बाद चुनाव आयोग मामले पिक्चर से बाहर हो जाता है और राज्य की पुलिस मामले की जांच करती है. वो ठीक से जांच करती है या नहीं ये एक बात है. दूसरी बात कई सौ आपराधिक मामलों में चुनाव आयोग के लिए हर केस को फॉलो करना संभव नहीं हो पाता."
गोपालास्वामी के मुताबिक चुनाव खत्म होने के बाद भी चुनाव आयोग कुछ प्रमुख मामलों को फॉलो कर सकता है. साथ ही आयोग ये भी कह सकता है कि बिना उससे विचार-विमर्श किए इन मामलों को वापस न लिए जाए क्योंकि आयोग के कहने पर भी इन आपराधिक मामलों की शुरुआत हुई थी.
क्या है चुनाव आचार संहिता?
चुनाव की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लागू हो जाती है. आचार संहिता यानि चुनाव में पार्टियों और उम्मीदवार किस तरह व्यवहार करेंगे.
राजनीतिक दलों से बातचीत और सहमति से ही आचार संहिता से जुड़ा दस्तावेज़ तैयार हुआ था और इसके इतिहास की शुरुआत 1960 से केरल के विधानसभा चुनाव से हुई जहां पार्टियों और उम्मीदवारों ने तय किया कि वो किन नियमों का पालन करेंगे.
चुनावी आचार संहिता किसी कानून का हिस्सा नहीं है हालांकि आदर्श आचार संहिता के कुछ प्रावधान आईपीसी की धारों के आधार पर भी लागू करवाए जाते हैं.
रिपोर्टों के मुताबिक 1962 के आम चुनाव के बाद 1967 के लोक सभा और विधानसभा चुनावों में भी आचार संहिता का पालन हुआ और बाद में उसमें एक के बाद एक बातें जोड़ी गईं.
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आदर्श आचार संहिता को कानूनी शक्ल?
चुनावी सुधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि आदर्श आचार संहिता को जनप्रतिनिधित्व कानून का हिस्सा बना दिया जाए लेकिन पूर्व चुनाव आयुक्त इससे सहमत नहीं.
उनका मानना है कि अगर इसे कानून का हिस्सा बना दिया गया तो मामले अदालत में चले जाएंगे और वो सालों तक खिंच जाएंगे जो कि सही नहीं है.
तो फिर क्या किया जाए जिससे उम्मीदवारों, पार्टियों में ये भावना जगे ताकि वो आदर्श आचार संहिता का पालन करें.
एक पूर्व चुनाव आयुक्त के मुताबिक ज़रूरी है कि चुनाव आयोग एक या दो महत्वपूर्ण नेताओं के खिलाफ़ कड़ी कार्रवाई करे ताकि ये संदेश हर जगह जाए कि आदर्श आचार संहिता को गंभीरता से लेना ज़रूरी है.
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति कहते हैं, "हमारी कुछ सीमाएं हैं. हमने कई बदलाव प्रस्तावित किए हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल की उसमें रुचि नहीं. किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में चुनाव सुधार तक का ज़िक्र नहीं किया है. आप पूरी तरह से चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते क्योंकि उसकी सीमाएं हैं."
कृष्णमूर्ति कहते हैं, "चुनाव आयोग के पास उम्मीदवार को अयोग्य ठहराने की, उस पर फाइन करने का अधिकार होना चाहिए लेकिन राजनीतिक दल इस पर बहुत ध्यान नहीं देते."
चुनाव आयोग के पूर्व कानूनी सलाहकार एसके मेंदीरत्ता भी मानते हैं कि राजनीतिक दल चुनावी सुधार को लेकर कुछ नहीं करने वाले.
वो कहते हैं, "राजनीतिक दलों के खर्चे की कोई सीमा नहीं है, उम्मीदवार के खर्च पर सीमा है. एक राजनीतिक दल 500 करोड़ खर्च करे और दूसरी करे 50 करोड़ तो फ़र्क तो पड़ता है. वो चुनावी सुधार होगा.चुनावी बांड्स पर पारदर्शिता आ जाए तो वो एक और चुनावी सुधार होगा."
हमने चुनाव आयुक्त के समक्ष आचार संहिता के विषय पर साक्षात्कार का निवेदन भेजा हुआ है. जवाब का इंतज़ार है.