Delhi Elections:लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत से BJP को ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, जानिए क्यों?
नई दिल्ली- पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने दिल्ली की सातों पर जीते के सारे रिकॉर्ड पीछे छोड़ दिए थे। वह सभी सीटों पर तो जीती ही थी, उसके उम्मीदवारों ने हर सीट 55 से 60 फीसदी तक वोट बटोरे थे। उस चुनाव में तो यही लगा कि दिल्ली के मतदाताओं के सामने जब नरेंद्र मोदी का चेहरा होता है तो फिर उसे कुछ नजर ही नहीं आता है। वह सिर्फ कमल निशान देखकर वोटिंग कर देता है। अगर दिल्ली में बीजेपी के मैनेजर इस भरोसे 8 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हुए हैं तो उन्हें ज्यादा खुशफहमी में रहने की जरूरत नहीं है। हम आपको पिछले कुछ विधानसभा और लोकसभा चुनावों के विश्लेषण के आधार पर बताते हैं कि कैसे आज का मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग तरह से वोटिंग कर रहा है।
लोकसभा चुनाव, 2019 में भाजपा का प्रदर्शन
2019 में हुए लोकसभा चुनाव में दिल्ली में बीजेपी को 2014 के लोकसभा चुनाव से भी 10% से भी ज्यादा वोट मिले। पिछले साल उसे दिल्ली में 56.6% वोट मिले और उसने राजधानी की सभी 7 लोकसभा सीटों पर भारी अंतर से कब्जा कर लिया। अगर इस प्रदर्शन को विधानसभा सीटों के मुकाबले देखें तो पार्टी ने दिल्ली के 70 विधानसभा क्षेत्रों में से 65 सीटों पर बढ़त बनाई थी। अगर 2014 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने तब भी 46.4% वोट पाकर 60 विधानसभा सीटों पर बढ़त बनाई थी। उस साल भी सातों लोकसभा क्षेत्रों में उसी की जीत हुई थी। लेकिन, जब कुछ महीने बाद ही फरवरी, 2014 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो पार्टी का न सिर्फ वोट प्रतिशत घटकर 32.2% रह गया, बल्कि सिर्फ 3 सीटें जीतकर वह किसी तरह से विधानसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई थी। इसलिए, अगर बीजेपी ये मानकर चल रही है कि पिछले लोकसभा का जैसा परिणाम आया था, वही विधानसभा में भी आएगा इस खुशफहमी में रहने से उसे झटका भी लग सकता है।
इन तीन राज्यों के नतीजे बीजेपी के लिए बड़ी चेतावनी हैं
अभी सबसे हाल में झारखंड विधानसभा चुनाव का परिणाम आया है। बीजेपी पांच साल से यहां सत्ता में थी, लेकिन चुनाव के बाद 81 सीटों वाली विधानसभा में उसकी सीटें 2014 के विधानसभा चुनाव में आए 35 से घटकर महज 25 रह गई। इस चुनाव में भाजपा को सिर्फ 33.37% वोट मिले हैं, जबकि कुछ महीने पहले ही लोकसभा चुनाव में उसे 50.96% वोट मिले थे और वह 14 में से 11 लोकसभा सीटें जीत गई थी। अक्टूबर में हरियाणा विधानसभा चुनाव में भी यही ट्रेंड देखने को मिला था। कुछ महीने पहले भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर प्रदेश की सभी 10 लोकसभा सीटें जीती थी और उसे 58.02% वोट मिले थे। इस परिणाम को देखकर कोई भी कह सकता था कि विधानसभा चुनाव में भी पार्टी अजेय रहेगी। लेकिन, अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को 90 में से सिर्फ 40 सीटें ही मिलीं और वोट प्रतिशत भी घटकर सिर्फ 36.49% ही रह गया। मतदाता लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के लिए कैसे अलग-अलग तरह से मतदान करते हैं, इसका सबसे अच्छा उदाहरण ओडिशा में देखा जा सकता है। वहां 2019 में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव भी कराए गए थे। बीजेपी ने वहां 21 में से 8 लोकसभा सीटें जीतीं और उसे 38.37% वोट मिले थे। लेकिन, साथ-साथ हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी 147 विधानसबा सीटों में से सिर्फ 23 सीट ही जीत पाई और वोट प्रतिशत में भी वह लोकसभा चुनावों की तुलना में काफी पीछे रही और उसे सिर्फ करीब 33% ही वोट मिल पाए।
लोकसभा-विधानसभा चुनावों में वोटरों का बदला मिजाज
झारखंड, हरियाणा और सबसे बढ़कर ओडिशा के मतदाताओं के फैसले से साफ जाहिर है कि जब वोटर वोट डालने ईवीएम तक पहुंचता है तो लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के लिए उसकी प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं। झारखंड और हरियाणा विधानसभा चुनावों में बीजेपी के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी और प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ नाराजगी का ज्यादा असर हुआ और राष्ट्रवादी मुद्दे और नरेंद्र मोदी फैक्टर मतदाताओं को उतना प्रभावित नहीं कर सका। ओडिशा विधानसभा के नतीजे इस धारणा की और ज्यादा सटीक व्याख्या करता है। मसलन, एक ही मतदाता ने अगर केंद्र के लिए वहां नरेंद्र मोदी के पक्ष में वोट दिया, लेकिन जब उसे राज्य के लिए सरकार चुनने का मौका मिला तो उसने नवीन पटनायक के नेतृत्व पर ज्यादा भरोसा किया। ऐसे में जब दिल्ली में बीजेपी ने किसी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित नहीं किया है और वह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुकाबला करने उतर रही है तो इस कसौटी में वह फिलहाल खरी उतरती नहीं दिखती। क्योंकि, पिछले कई चुनाव नतीजे तो यही बतातें हैं कि नरेंद्र मोदी फैक्टर देश के चुनाव में तो काम करता है, लेकिन प्रदेश में वह तभी ज्यादा असरदार साबित होता है, जब पार्टी के पास स्थानीय मुद्दा भी तगड़ा हो और नेतृत्व भी दमदार हो। अलबत्ता, ये बात अलग है कि हरियाणा में फिर भी मनोहर लाल खट्टर बाकी दलों पर भारी पड़े और उन्होंने जननायक जनता पार्टी के सहयोग से सरकार बना ली। लेकिन, दिल्ली में बीजेपी का सामना अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी से हो रहा है, इसलिए बीजेपी का रास्ता यहां उतना आसान नहीं है।
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