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दलित छात्र, जिसकी जाति ने पीछा अमरीका में भी नहीं छोड़ा

डॉ पायल तडवी की खुदकुशी ने दलित छात्रों के उत्पीड़न की बहस को तेज़ कर दिया है और इसने विदेशों में पढ़ने वाले दलित छात्रों की जाति से जुड़ी हुई समस्याओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है.सूरज येंगदे अमरीका में पढ़ते हैं. वो विदेशों में होने वाले जातिगत भेदभाव के मुद्दों को उठाया है.वो इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में क़ानून की पढ़ाई कर रखी है.

By अभिजीत कांबले
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SURAJ YENGDE

डॉ पायल तडवी की खुदकुशी ने दलित छात्रों के उत्पीड़न की बहस को तेज़ कर दिया है और इसने विदेशों में पढ़ने वाले दलित छात्रों की जाति से जुड़ी हुई समस्याओं की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है.

सूरज येंगदे अमरीका में पढ़ते हैं. वो विदेशों में होने वाले जातिगत भेदभाव के मुद्दों को उठाया है.

वो महाराष्ट्र के नांदेड़ इलाक़े से आते हैं और इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में क़ानून की पढ़ाई कर रखी है.

इस समय वो अमरीका के हावर्ड विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टरल फ़ेलो हैं.

वो स्वीकार करते हैं कि उनके जैसे कई छात्र भारत से दूर रहने के बावजूद उसी तरह के भेदभाव का सामना करते हैं.

बीबीसी मराठी सेवा ने सूरज के साथ इस मुद्दे पर बात की. पढ़िए बातचीत के प्रमुख अंश-

एक दलित छात्र के रूप में विदेशों में आपके क्या अनुभव रहे हैं?

जब मैं उच्च शिक्षा के लिए विदेश गया, मैंने इंग्लैंड के विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानून की पढ़ाई चुना.

मैंने पहले सोचा था कि मैं उच्च शिक्षा हासिल करूंगा, बाबा साहब अम्बेडकर की तरह डिग्री हासिल करूंगा और देश की सेवा करूंगा. मैं इसी मानसिकता से वहां गया था. मैंने ये भी सोचा था कि उन लोगों से बातचीत करने और दोस्ती करने का मौका मिलेगा जो भारत के अन्य राज्यों से आते हैं.

क्योंकि नांदेड़ में रहते हुए मैं उन राज्यों में नहीं जा पाया था.

जब मैं इंग्लैंड आया तो यहां कई भारतीय छात्र थे जो एलएलएम, एमबीए आदि कोर्सों में पढ़ाई कर रहे थे.

शुरु में इंग्लैंड में रहना मेरे लिए एक सांस्कृतिक झटके के समान था. मैं अकेला महसूस करता था.

SURAJ YENGDE

इसी बीच मेरी भारतीय छात्रों के साथ दोस्ती बन गई. एक दो महीने में ही उनसे गाढ़ी दोस्ती हो गई. लेकिन जब उन्हें मेरे फ़ेसबुक पेज पर मेरे विचारों से मेरी जाति के बारे में पता चला तो उनका रवैया बदल गया.

उन्होंने एक तरह मेरा बहिष्कार कर दिया. उन्होंने किसी सामूहिक कार्यक्रम में बुलाना बंद कर दिया.

दो महीने तक हम एक साथ घूमे, एक साथ खाए. हमने बहुत सारी बातें साझा कीं. लेकिन जब मेरे सवर्ण मित्रों को लगा कि मैं अपने समुदाय के बारे में फ़ेसबुक पर लिखता हूं और अपने समुदाय के ख़िलाफ़ होने वाले उत्पीड़न पर अपना पक्ष रखता हूं तो उन्हें ये पसंद नहीं आया. मेरी जाति और आरक्षण पर वे तंज कसने लगे.

एक बार मैंने जाति और लिंग को लेकर एक प्रजेंटेशन तैयार किया. इसमें खैरलांजी नरसंहार की पीड़िता सुरेखा भूतमांगे का उल्लेख था.

मेरे दोस्तों ने सुरेखा के बारे में अपमानजनक भाषा आक इस्तेमाल किया और उन्होंने मुझपर भी निशाना साधा. उन्होंने तंज किया कि तुम तो वजीफ़े वाले बच्चे हो, तुम्हारे पास कोई योग्यता नहीं है और तुम आरक्षण वाले लोग हो. ये अनुभव मेरी स्वतंत्र सोच और ऊर्जा को दबाएगा.

क्या आपको कभी उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. उस समय आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?

मैं ऐसे दलित इलाके से आता हूं जहां सवर्ण सरनेम का नाम तक नहीं सुना था.

हमें ऊंची जातियों से दूर रहने को हमेशा कहा जाता था और इस बात ने मेरे ऊपर कुछ हद तक असर डाला. इसलिए मैंने तय किया है कि अपमान के बावजूद इस मुद्दे को अधिक न खींचूं.

लेकन आखिरकार ये मेरे लिए बहुत अजीब और निजी मसला बन गया. मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सका. जब मैं नहीं होता था तो वो मेरे बारे में घंटों बातें करते थे.

मैं भी यही सोचता रहता था कि वो क्यों मेरे बारे में बातें कर रहे हैं. मैंने सोचा कि मुझे इसकी शिकायत करनी चाहिए, लेकिन कहां करूं और कौन ये समझेगा कि मैं क्या कहना चाहता हूं ये समझ नहीं आता था.

दूसरी तरफ़ मैं सोचता था कि चुपचाप पढ़ाई पूरी करनी चाहिए. ये भी ख्याल आया है कि मैं वकील हूं और मैं उस समुदाय से आया हूं जहां मेरे जैसे लड़के लड़कियां इस तरह का उत्पीड़न रोज़ झेलते हैं. कब तक चुप रह सकता हूं और मेरी उच्च शिक्षा का लाभ क्या हुआ.

इसलिए जब मेरे कमरे रहने वाले उत्तर भारतीय ब्राह्मण छात्र ने मुझ पर हाथ छोड़ा तो मैंने पुलिस में शिकायत की.

FACEBOOK/PAYAL TADAVI

पुलिस ने मेरी बात सुनी और मुझे समझाने की कोशिश की कि अगर कार्रवाई की जाती है तो उस छात्र के वीज़ा में परेशानी हो सकती है और कोर्स समाप्त होने के कुछ महीने ही बचे हैं.

पुलिस ने कहा कि बेहतर होगा कि मैं उनसे दूर रहूं. इस सुझाव के बाद मैंने कोई अगला कदम नहीं उठाया.

हमने ऐसा ही पायल तडवी के मामले में हमने देखा. उनकी मां ने बताया कि वो शिकायत करना चाहती थीं लेकिन पायल ने उन्हें मना किया क्योंकि उत्पीड़न और बढ़ने का उन्हें डर सता रहा था.

उन्होंने सोचा कि उन लड़कियों का भविष्य क्यों ख़राब किया जाए? इसी तरह मैंने सोचा कि उन लड़कों का भविष्य क्यों ख़राब किया जाए?

लेकिन दिल में लगा घाव बना रहा. मेरा उत्पीड़न वहीं ख़त्म नहीं हुआ. मेरे असली सर्टिफ़िकेट की फ़ाइल उन्होंने चुरा ली.

ऐसे अनुभव वास्तव में हताशा से भर देने वाले होते हैं. मेरे लिए कोई सपोर्ट ग्रुप नहीं था. उन दिनों नांदेड़ के एक दोस्त ने मुझे भावनात्मक सहारा दिया.

ऐसा वाकया सिर्फ आपके साथ ही हुआ या किसी और एससी-एसटी के छात्र के साथ भी ऐसा कुछ हुआ है?

जब मैंने छात्रों को संगठित करना शुरू किया तो बहुत से छात्रों ने अपने अनुभव मुझसे साझा किए.

बहुतों को ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ा था. ऊंची जाति के छात्र इनकी पृष्ठभूमि के बारे में जान जाते और फिर तंज कसते.

दलित लड़कियों के अनुवभ तो और दर्दनाक हैं. उन्हें हमेशा डर के साये में रहना पड़ता है. ये लड़कियां दलित छात्रों से भी सम्पर्क नहीं रखती हैं.

भविष्य में पायल तडवी जैसे मामले न हों, इन्हें रोकने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?

आज भी भारत में लोगों को उनकी जाति के आधार पर देखा जाता है और इसी आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाता है.

पायल तडवी की मौत एक अमानवीय और ग़ैर संवैधानिक घटना है. अगले डेढ़ दशक में भारत सबसे युवा आबादी वाला देश बन जाएगा. अगर ये युवा देश जातिवादी बनने जा रहा है तो इन युवाओँ की ऊर्जा किस काम की.

भारत में उच्च शिक्षा संस्थाओं का तुरंत सर्वे किया जाना चाहिए और हमें इस मुद्दे पर एक डायवर्सिटी इंडेक्स बनाना चाहिए.

पायल तडवी
Getty Images
पायल तडवी

यही इंडेक्स इस बात को सामने लाएगा कि हमारे शैक्षणिक संस्थाएं कितनी समावेशी हैं.

इन संस्थाओं में कितने एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाएं पढ़ती हैं. इस तरह का डायवर्सिटी इंडेक्स लाना बहुत महत्वपूर्ण है.

मानव संसाधन मंत्रालय के अनुसार, भारतीय विश्वविद्यालयों में 76 प्रतिशत प्रोफ़ेसर सवर्ण हैं.

एक प्रतिशत से भी कम मुस्लिम महिलाएं प्रोफ़ेसर हैं और एससी जाति से आने वाली महिला प्रोफ़ेसर दो प्रतिशत से भी कम हैं.

प्रतिनिधित्व का मुद्दा बहुत ही महत्वपूर्ण है. जैसा पायल के मामले में दिखता है कि उन्हें कोई ज़रूरी औपचारिक या अनौपचारिक सपोर्ट नहीं मिला जो कि एससी-एसटी छात्रों ज़रूरी होता है.

अमरीकी शैक्षणिक संस्थाओं में एक डायवर्सिटी कार्यालय होता है. ये कार्यालय उन छात्रों की मदद करता है जो ऐसे समुदाय से आते हैं जो विभिन्न कारणों से ऐतिहासिक रूप से कमज़ोर रहे हैं.

हमारे देश में एससी-एसटी छात्रों की मदद के लिए स्टूडेंड डायरेक्टर का एक पद है. लेकिन एससी-एसटी छात्रों को इस पद पर बैठे लोगों से उन्हें कितनी मदद मिल पाती होगी, ये एक रहस्य है.

BBC Hindi
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English summary
Dalit students whose caste did not leave behind even in America
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