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मिनी जापान के नाम से मशहूर इस कस्‍बे में पुराने तरीके से बन रहे पटाखे, धड़ल्‍ले से किया जा रहा सप्‍लाई

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बेंगलुरु। इस बार दिल्ली समेत अन्‍य प्रदेशों में पटाखों की धूमधड़ाक कम होगी। क्योंकि सरकार ने प्रदूषण को ध्‍यान में रखते हुए केवल ग्रीन पटाखें छुड़ाने का आदेश दिया हैं। सामान्‍य पटाखें बेचने और उसका प्रयोग करने वालों को जेल भेजने का ऐलान कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दीपावली के मौके पर पटाखों की बिक्री से संबंधित एक फैसले के दौरान ग्रीन पटाखों का ज़िक्र किया था। कोर्ट ने मशविरा दिया था कि त्योहारों पर कम प्रदूषण करने वाले ग्रीन पटाखे ही बेचे और जलाए जाने चाहिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर जहां दिल्‍ली, उत्‍तर प्रदेश समेत कई प्रदेशों की सरकार समान्‍य पटाखो को लेकर इतनी सख्‍त हैं वहीं एक जगह ऐसी हैं जहां धड़ल्‍ले से पटाखों का व्‍यापार हो रहा है। दिवाली के चलते धडल्‍ले से यहां से पटाखे सप्‍लाई किए जा रहे हैं।

firecrackers

यह जगह हैं तमिलनाडु के मदुरई से कन्याकुमारी के रास्‍ते में स्थित शिवकाशी कस्बा। इस कस्‍बे में निरंतर चलने वाली औद्योगिक गतिविधियों के कारण इसे भारत का कुटी जापान यानी मिनी जापान भी कहा जाता है। शिवकाशी की सबसे बड़ी पहचान पटाखा उद्योग है। देश के 90% पटाखे यहीं बनते हैं। यहां पर दीवारों पर बड़े बड़े पोस्टर पोस्‍टर लगे हैं जहां पहुंचते ही आपको लगेगा कि आप पटाखों की दुनिया में हैं। ताज्जुब की बात ये हैं कि इनमें से एक भी 'ग्रीन पटाखों'का पोस्टर नहीं मिलेगा। क्योंकि यहां बने पटाखों में 2% से भी कम ग्रीन पटाखे हैं। यहां 98% पटाखे पुराने फॉर्मूले से ही बनाए जा रहे हैं। दरअसल, यहां सिर्फ चार कंपनियों को ही इसका लाइसेंस दिया गया है। जिस केमिकल को प्रतिबंधित किया गया है, उसका ग्रीन विकल्प पोटेशियम पेरियोडेट 400 गुना महंगा है, जिसके चलते निर्माताओं ने कम ग्रीन पटाखे बनाए।

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शिवकाशी में फिलहाल हर तरफ पटाखे ही दिख रहे हैं। दिवाली के चलते पटाखे सप्लाई करने का काम जोरों पर है। शिवकाशी में रजिस्टर्ड पटाखा निर्माताओं की संख्या 1070 हैं और छोटे-बड़े मिलाकर 1800 से लेकर 2000 इकाइयां पटाखे बनाती हैं। बीते वर्ष यहां पटाखों के व्यापार का टर्नओवर 6500 करोड़ रुपए रहा। सुप्रीम कोर्ट की पाबंदी के बाद यह लगातार गिर रहा है। बीते पांच सालों में टर्नओवर 60 फीसदी कम हुआ है।

शिवकाशी की सबसे पुरानी तमिलनाडु फायरवर्क्स, अमोर्सेस मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन के अध्यक्ष गणेशन शिवकाशी के भविष्य पर चिंतित है। इन्हें आशंका है कि ग्रीन पटाखों के चलते व्यापार खत्म होता है, तो आर्थिक और सामाजिक ताना-बाना बिगड़ जाएगा। माइग्रेशन भी बढ़ेगा।

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शिवकाशी में कंट्रोलर ऑफ एक्सप्लोसिव ऑफिसर डॉ. करुणामय पांडे ने मीडिया को बताया कि 'सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों में इस्तेमाल होने वाले 6 केमिकल पर पाबंदी लगाई है। यह बेरियम नाइट्रेट, एंटीमोनी, लिथियम, मर्करी, आर्सेनिक और लेड हैं। इनमें बेरियम नाइट्रेट सबसे खतरनाक है और इस पर सख्ती से पाबंदी लगाने के लिए कहा गया है।'

एक पटाखा फैक्‍ट्री के मालिक ने बताया कि 'हम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हैं, इसलिए ग्रीन पटाखों का लाइसेंस लिया है, लेकिन सस्ते बेरियम नाइट्रेट के बिना ग्रीन पटाखे बनाना काफी महंगा होगा। बेरियम नाइट्रेट के बिना ग्रीन पटाखे में केवल फुलझड़ी, अनार, पेंसिल, चकरी और लड़ी बनाए जा सकते हैं लेकिन इनकी मांग बहुत कम है।अगर यही नहीं बिके, तो नुकसान उठाना पड़ेगा। समस्या यह है कि 70 रुपए किलो के बेरियम नाइट्रेट की जगह 3000 रुपए किलो वाले पोटेशियम पेरियोडेट के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया है। ऐसे में ग्रीन पटाखों का दाम इतना बढ़ जाएगा कि खरीदार नहीं मिलेंगे।

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नेशनल एनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) की चीफ साइंटिस्ट डॉ. साधना रायालु बताती हैं कि ग्रीन पटाखों पर रिसर्च जारी है। शिवकाशी में 250 निर्माताओं ने फॉर्मूले के लिए आवेदन दिया था, जिनमें से 165 के साथ अनुबंध किया गया है। पेट्रोलियम, एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन (पेसो) से शिवकाशी के 4 निर्माताओं को लाइसेंस मिले हैं। इस पर शिवकाशी से कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर कहते हैं 'लोकसभा चुनाव से पहले चार महीने तक पूरा शिवकाशी अदालत के फैसले के विरुद्ध बंद रहा है। इस साल कुछ भी साफ नहीं था कि कौन से पटाखे बनेंगे। नीरी ने जब फॉर्मूला दिया उस कम समय में ग्रीन पटाखे बन ही नहीं सकते थे।
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शिवकाशी में ग्रीन पटाखों से अलग इस बार फैंसी पटाखों की नई रेंज पर काम किया गया है। मोरको जैसे आसमान में फटने वाले पटाखों की कई वैराइटी इस बार देखने को मिलेंगी। जैक एंड जिल, ग्लेजी बूम और जोडियक जिग्लर्स जैसे 100 शॉट्स वाले पटाखे भी पहले से ज्यादा शॉट्स के साथ मिलेंगे।

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English summary
Crackers being made in this town the old way, only 4 have license to make green crackers.
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