कोरोना वायरस: टैक्सी ड्राइवर ने क्वारंटीन केंद्र के लिए दिया अपना अस्पताल
पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24-परगना ज़िले में बारुईपुर के रहने वाले मोहम्मद शहीदुल लस्कर ने अपना दो मंज़िला अस्पताल कोरोना मरीज़ों के क्वारंटीन केंद्र के तौर पर इस्तेमाल के लिए सरकार को दे दिया है. यूं तो यह सामान्य बात लगती है. लेकिन इसे ख़ास यह तथ्य बनाता है कि शहीदुल एक टैक्सी ड्राइवर हैं और उन्होंने इलाज के अभाव में अपनी बहन की मौत के लगभग 12 साल बाद
पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24-परगना ज़िले में बारुईपुर के रहने वाले मोहम्मद शहीदुल लस्कर ने अपना दो मंज़िला अस्पताल कोरोना मरीज़ों के क्वारंटीन केंद्र के तौर पर इस्तेमाल के लिए सरकार को दे दिया है.
यूं तो यह सामान्य बात लगती है. लेकिन इसे ख़ास यह तथ्य बनाता है कि शहीदुल एक टैक्सी ड्राइवर हैं और उन्होंने इलाज के अभाव में अपनी बहन की मौत के लगभग 12 साल बाद पाई-पाई जोड़ कर इस अस्पताल को बनवाया था.
उन्होंने संकल्प लिया था कि वह अब इलाज की कमी या इसमें लापरवाही के चलते किसी ग़रीब को मरने नहीं देंगे.
शहीदुल का ज़िक्र
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मन की बात के 50वें एपिसोड में शहीदुल का ज़िक्र कर चुके हैं.
उस मौक़े पर शहीदुल को दिल्ली भी बुलाया गया था. लेकिन दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री से उनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी थी.
शहीदुल ने मुख्यमंत्री राहत कोष में भी कोरोना से मुक़ाबले के लिए पांच हज़ार की रक़म दी है.
शहीदुल के अस्पताल में 40 से 50 बिस्तरों वाला क्वारंटीन केंद्र बन सकता है.
स्वास्थ्य अधिकारियों ने उनके अस्पताल और वहां उपलब्ध सुविधाओं का मुआयना कर उन पर संतोष जताया है.
सीने में संक्रमण की वजह से वर्ष 2004 में शहीदुल की बहन मारुफ़ा की मौत हो गई थी.
उसी समय उन्होंने संकल्प लिया कि अब वह कम से कम इलाज के अभाव में पास-पड़ोस के लोगों को मरने नहीं देंगे. इसके बाद उन पर एक अस्पताल बनाने की धुन सवार हुई.
वर्ष 2008 में अपनी तीन टैक्सियों और पत्नी के गहने बेच कर उन्होंने इसके लिए अपने गांव में ज़मीन ख़रीदी थी.
उसके बाद पाई-पाई जोड़ कर और कुछ लोगों से दान में मिली रक़म से उन्होंने कोलकाता से लगभग 50 किलोमीटर दूर दक्षिण 24-परगना ज़िले के बारुईपुर के पूर्नी गांव में एक दो मंज़िला अस्पताल बनवाया.
शहीदुल ख़ुद भी अपने परिवार के साथ अस्पताल के एक कमरे में रहते हैं. ज़मीन ख़रीदने के चार साल बाद अस्पताल का काम शुरू हुआ और इसे तैयार होने में और चार साल लग गए.
शहीदुल ने वर्ष 1991 में 10वीं की परीक्षा पास करने के बाद एक स्थानीय कॉलेज में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया था.
लेकिन आर्थिक तंगी से पढ़ाई जारी नहीं रह सकी. आख़िर वर्ष 1993 से उन्होंने टैक्सी चलाना शुरू किया.
2004 में बहन के बीमार होने के बाद वे उसे लेकर तमाम अस्पतालों में घूमते रहे. लेकिन कहीं आर्थिक तंगी राह में बाधा बन जाती थी तो कहीं इलाज की कमी.
तमाम कोशिशों के बावजूद वे अपनी बहन मारुफ़ा को नहीं बचा सके तो उन्होंने उसकी याद में अस्पताल बनवाने का फ़ैसला किया. उनकी लगन और बरसों की मेहनत के बाद गांव में तैयार दोमंज़िले अस्पताल का नाम भी उन्होंने बहन के नाम पर मारुफ़ा मेमोरियल अस्पताल रखा है.
शहीदुल कहते हैं, "मुझे लगा कि ऐसा कुछ करना चाहिए ताकि कोई व्यक्ति इलाज के अभाव में असमय ही मौत के मुंह में नहीं समाए और मेरी तरह किसी को अपने प्रियजन से बिछड़ना नहीं पड़े."
12 वर्षों की तपस्या
बहन की मौत के बाद ही शहीदुल अपने इस मिशन को पूरा करने निकल पड़े. 12 साल के लंबे संघर्ष के दौरान कुछ लोगों ने मदद की तो कइयों ने मुंह फेर लिया.
शहीदुल बताते हैं कि इस दौरान पत्नी शमीमा चट्टान की तरह उनके साथ खड़ी रही और कंधे से कंधा मिला कर काम किया.
वह कहते हैं, "पत्नी के समर्थन के बिना अस्पताल बनवाने का सपना कभी पूरा नहीं होता. शुरुआत में कई लोग मुझे सनकी समझते थे. लेकिन पत्नी ने हर क़दम पर साथ दिया. ज़मीन ख़रीदने के लिए उसने बेहिचक अपने सारे गहने तक बेच दिए."
उनकी पत्नी शमीमा बताती हैं, "मैंने अस्पताल की ज़मीन के लिए अपने तमाम गहने बेच दिए थे. लेकिन अब यहां इलाज के बाद गांव वाले के चेहरे पर झलकने वाली ख़ुशी देख कर मुझे गहनों के बिकने का अफ़सोस नहीं होता."
फ़िलहाल शहीदुल के इस अस्तपताल में आठ डॉक्टर हैं जो ग़रीबों का मुफ़्त इलाज करते हैं. शहीदुल की योजना इस अस्पताल को चार मंज़िला बनाने और मामूली फीस के एवज में उन लोगों का इलाज शुरू करने की है जो आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में हैं.
गांव के लोग भी शहीदुल के इस काम से बेहद खुश हैं. इस गांव के सरोज दास बताते हैं, "गांव से नज़दीकी अस्पताल 11 किलोमीटर दूर है. लेकिन वहां तक जाना बेहद मुश्किल था. अब गांव में अस्पताल बनने के बाद सिर्फ पूर्नी ही नहीं बल्कि आसपास के दर्जनों गांवों के लोगों को भी काफ़ी सहूलियत हो गई है."
लेकिन आपने अपने अस्पताल को क्वारंटीन केंद्र के लिए देने का फ़ैसला क्यों किया? शहीदुल कहते हैं, "कोरोना वायरस मानवता के लिए सबसे गंभीर ख़तरा बनता जा रहा है. अगर इससे निपटने में मैं मामूली योगदान भी कर सकूं तो इसे अपना सौभाग्य समझूंगा."
अब गांव के लोग ही नहीं, ज़िला प्रशासन भी उनके फ़ैसले की सराहना कर रहा है. स्थानीय बीडीओ मुशर्रफ़ हुसैन कहते हैं, "शहीदुल ने सराहनीय काम किया है. उनके अस्पताल में साफ़-सफाई बेहतर हैं और यहां 40 से 50 बिस्तरों वाला क्वारंटीन केंद्र बन सकता है. ज़रूरत की स्थिति में सरकार इसका इस्तेमाल करेगी और वहां बाक़ी ज़रूरी सुविधाएं जुटाई जाएंगी."
प्रशासन ने शहीदुल और उनके परिवार के रहने का भी वैकल्पिक इंतजाम कर दिया है. अब तक वे अस्पताल के ही एक कमरे में रहते थे. शहीदुल का सपना है कि इस अस्पताल में तमाम अत्याधुनिक सुविधाएं जुटें ताकि किसी को इलाज के लिए बाहर नहीं जाना पड़े. लेकिन वह भी जानते हैं कि इस मंज़िल तक पहुंचने के लिए अभी लंबी दूर तय करनी है और यह सफ़र आसान नहीं है.